(श्री विश्वमित्रजी वर्मा डभौरा)
बाह्य स्पर्श के कारण कंपन उत्पन्न होते ही सदा तत्काल इनका असर अन्तर मन पर नहीं पड़ता और बोध भी नहीं होता-जब कोई साधारण विचार बाहर से हमारे मन में आता है तो तत्काल उसका ज्ञान हमें नहीं होता-परन्तु कभी-2 इनका प्रभाव हम पर वैसा ही होता है जैसा सूर्य, वर्षा, खाद का असर उस बीज पर होता है जो पृथ्वी में दबा पड़ा हुआ है। पहले पहल उन कम्पनों का कोई दृष्टिगोचर परिणाम नहीं होता जो उस बीच पर विहार कर रहे हैं किन्तु उसके अन्तर में एक ऐसा मन्द स्पन्दन होता रहता है जो शनैः शनैः प्रबल होते होते इतना तीव्र हो जाता है कि वह उस बीज के छिलके को फाड़कर नन्हीं जड़ों को निकालता है और उसका विकास करता है।
ठीक ऐसी ही गति मन की भी है-प्रज्ञा, अन्तर में धीरे धीरे स्फुरित होती रहती है। बाह्य स्पर्शों का बाह्य ज्ञान होने के पूर्व हमारे अन्तर में एक ऐसी स्फुरण हो रही है जिसका हमें मानसिक ज्ञान नहीं है। किसी महापुरुष की संगति से जब हम लौटते हैं तो हमारा मन मानसिक महाप्रवाह के साथ - अर्थात् उस महापुरुष के तेजस् मण्डल के साथ, पहले हमारा मन महापुरुष की संगति में प्रवेश करते समय उसके तेजोमण्डल अथवा विचार प्रवाह की परिधि के इतने समीप नहीं होता जितना कि सत्संग से लौटते समय होता है। अतः हमारे अन्तर में तथा हमारे चारों ओर वायुमण्डल में-आकाश में स्थित संकल्प के परमाणु उत्तेजित हो जाते हैं और हमारे मन को उन्नति में सहायता मिलती है। हमारे मन की उन्नति बहुत कुछ बाह्य स्पर्श से हो सकती है।
विचार शक्ति शनैः शनैः बढ़कर हमारे वश में आती है और उसका उपयोग विशेष प्रयोजनों की सिद्धि के निमित्त किया जा सकता है। आजकल प्रायः प्रत्येक व्यक्ति ‘बेतार का तार’ का नाम जानता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करते ही उसकी यह आन्तरिक कामना रहती है कि वह किसी स्थूल यंत्र के बिना अपने मानसिक रेडियो द्वारा ही विचार प्रेषण कर सके और डाक अथवा तार की सहायता के बिना ही अपने दूरस्थ मित्रों अथवा कुटुम्बियों से घर बैठे ही वार्तालाप किया करे तो बड़ा ही आनन्द आवेगा। बहुतों का यह विचार हुआ करता है कि थोड़े प्रयत्न से ही साधन की सिद्धि प्राप्त हो सकती है किन्तु जब वे अपने प्रयत्न को सर्वथा व्यर्थ पाते हैं तो आश्चर्य होता है। स्पष्ट बात तो यह है कि संकल्प भेजने के लिए शक्ति प्राप्त करने के पूर्व वे लोग मनन करने की शक्ति प्राप्त कर लें। विचार की तरंगें स्थानान्तर भेजने के लिए स्थिर मनन करने की शक्ति प्राप्त करना आवश्यक है। बहुतों की निर्बल और चपलवृत्ति के कारण संकल्पों से केवल अस्थायी कंपन उत्पन्न होते हैं जो क्षण भर में उत्पन्न होकर पुनः विलीन हो जाते हैं तथा उनका चित्र भी क्षण भंगुर होता है अतः जब तक मनन शक्ति दृढ़ न होगी, विचारों का कंपन भी स्थायी नहीं होगा-मनुष्य चाहे कितना पढ़े, उसकी मानसिक उन्नति उसके विचारों की न्यूनाधिकता के अनुपात से होगी। जब तक वह उस विचार को लेकर उस पर कुछ समय तक मनन न करे तब तक उससे क्षणिक लाभ और बहुत थोड़ा लाभ होगा। अभ्यास से ही पूर्णता अथवा सिद्धि प्राप्त होती है। यह कथन मन के लिए उतना ही सत्य है जितना कि देह के लिए खाने से पेट भरता है, किन्तु जैसे जब तक आहार पचे नहीं तब तक वह शरीर के लिए व्यर्थ होता है। उसी प्रकार मन भी पठन द्वारा भरा जा सकता है किन्तु जब तक उसका मनन न हो तब तक पाठ पचकर मानसिक प्रकृति के साथ एकीभूत नहीं होता इसी से मन की वृद्धि नहीं होतीं और सफलता भी नहीं प्राप्त होती। अतः यदि हम चाहते हैं कि हमारा मन उत्कृष्ट हो और हमारी बुद्धि विकसित हो तो हमें पढ़ना कम, और मनन अधिक करने की आवश्यकता है। पाँच मिनट तक पढ़कर दस मिनट तक मनन करना चाहिए।
संकल्प को स्थानान्तर भेजने की दो रीतियाँ हैं। एक तो आधिभौतिक और दूसरी आधिदैविक। पहली का संबंध मन और मस्तिष्क से है और दूसरी का कार्य केवल मन से होता है। संकल्प उत्पन्न होकर प्रथम मानसिक क्षेत्र में, फिर एस्ट्रल (सूक्ष्म) क्षेत्र में कंपन उत्पन्न करते हैं-इससे ईथर व आकाश तत्व में और फिर स्थूल मस्तिष्क में तरंगें उत्पन्न होती हैं। इन मानसिक कम्पनों से आकाश तत्व प्रभावित होता है और तरंगें आकाश तत्व द्वारा जाती जाती दूसरे के मस्तिष्क में पहुँच जाती हैं और प्रेषक व्यक्ति के मस्तिष्क से दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुँच जाती हैं और उसके स्थूल तथा आकाश तत्व के कणों में कंपन उत्पन्न करती हैं। मस्तिष्क में एक छोटी सी इन्द्रिय है जिसको पीनियल ग्लाण्ड (Pineal Gland) अथवा दिव्य चक्षु कहते हैं। इसको उन्नत करके हम ऐसी अवस्था में ला सकते हैं जिससे यह मन चाहा कार्य हो सकता है। यदि कोई मनुष्य दृढ़ता पूर्वक एक ही विषय पर लगातार सावधानी से गूढ़ विचार करे तो उसे पीनियल ग्लाण्ड अथवा दिव्यचक्षु में एक प्रकार के मन्द कम्पन का अनुभव होगा जैसे उसके मस्तिष्क के अन्दर उस विशेष स्थान में चींटी चलती हो । यह कम्पन एक हलकी सी चुम्बक धारा उत्पन्न कर देता है जिससे दिव्य चक्षु के स्थूल कणों में कम्पन का अनुभव होता है। यदि विचार इतना तीव्र हो जाय कि उससे चुम्बकीय क्षेत्र बन जाय और साधक को उस कम्पन का अनुभव होने लगे तो साधक जान जाता है कि उसे संकल्प को एकाग्र करने और स्थानान्तर भेजने के योग्य बलवान बनाने में सिद्धि प्राप्त हुई है।
दिव्य चक्षु के आकाश का कम्पन आसपास के आकाश में प्रकाश की तरंगें उत्पन्न करता है। ये तरंगें प्रकाश की तरंगों की अपेक्षा बहुत छोटी, सूक्ष्म और बहुत ही तीव्र गति वाली होती हैं तथा एक साधक के मस्तिष्क से संकल्पों को दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में जाने के लिए किसी प्रकार से पर्वत अथवा दीवालों द्वारा रुकावट नहीं हो सकती। दिन के समय सूर्य के प्रकाश और गर्मी तथा साँसारिक चहल पहल के कारण संकल्प के कंपन मार्ग कुछ विर्चालत हो जाते हैं परन्तु रात के समय जब अंधकार रहता है और संसार में आकाश शान्त रहता है तब विचार बड़ी तीव्र गति से चलते हैं। चाहे साधक चारों ओर से बन्द गुप कमरे के अन्दर से विचार प्रेषण किसी भी दिशा को करे, मार्ग में कोई भी जबरदस्त पदार्थ रुकावट डाले, कुछ असर नहीं पड़ सकता और विचार अवश्य अपने निश्चित स्थान को, जहाँ के लिए उनको प्रेरित किया गया है-जावेंगे। यदि दूसरे व्यक्ति का मन इतना उन्नत नहीं है और उसके दिव्य चक्षु में कम्पन का अनुभव नहीं होता तो-साधक के मस्तिष्क से निकले हुए संकल्प दूसरे व्यक्ति के पास जाकर वहाँ से वापिस अपने प्रेषक के पास लौट आवेंगे और दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में प्रेषित संकल्पों का कुछ भी प्रभाव न पड़ेगा जैसे कि प्रकाश की तरंगों का कोई प्रभाव अन्धे मनुष्य के चक्षु पर नहीं पड़ता।
संकल्प को दूसरी रीति से स्थानान्तर भेजने में मनन कर्त्ता अपने मानसिक क्षेत्र में दूसरे व्यक्ति का चित्र बनाकर उसके मस्तिष्क तक संकल्प नहीं भेजता किन्तु उसे सीधा दूसरे मननकर्त्ता की ओर मानसिक क्षेत्र में प्रेरित करता है। इस प्रकार की क्रिया सावधानी से करके सामर्थ्यवान् होने के लिए प्रथम रीति की अपेक्षा अधिक मानसिक उन्नति और एकाग्रता की आवश्यकता है क्योंकि यह साधन करने के लिए संकल्प प्रेरक को मानसिक क्षेत्र पर आत्मदृष्टा होना आवश्यक है। किन्तु संकल्प की स्थानान्तर प्रेरणा शक्ति को हम सब लोग अप्रत्यक्ष और अज्ञात रीति से काम में लाते रहते हैं क्योंकि हमारे सब विचार मानसिक क्षेत्र में कम्पन उत्पन्न करते हैं और नियमानुसार इन कम्पनों का प्रभाव मानसिक प्रकृति पर अवश्य होता है। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी अलग रीति से विचार करते हैं। उसका अपना प्रभाव अपनी मानसिक उन्नति करने में अन्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बलवान है। वह अपने मन की साधारण कम्पनगति को आप ही नियत करता है। जो विचार उसके कम्पनों के सजातीय नहीं होते वे आप ही लौट जाते हैं। यदि कोई मनुष्य सत्य का मनन करता है तो उसके मन में झूठ के विचार नहीं आ सकते, आते ही लौट जायेंगे। यदि वह प्रेम पर मनन करता है तो ‘घृणा’ उसके मन पर प्रभाव नहीं डाल सकती। यदि वह विज्ञान का विचार करता है तो अज्ञानता उसे जड़ीभूत नहीं कर सकती।
केवल इसी नियम में दृढ़ होकर हमें शक्ति प्राप्त होती है मनोभूमि को ऊसर पृथ्वी समझकर कभी खाली न पड़ी रहने देना चाहिए-उसमें कोई संकल्प बीज पड़कर वह उगकर वृद्धि पा सकता है। यदि तुम अभ्यास करोगे तो इस अदृश्य जगत् के व्यापार में तुम्हें सफलता प्राप्त होने पर स्थूल जगत् के व्यापार में सहज ही सफलता मिल जायेगी क्योंकि अदृश्य जगत् के व्यापार ही स्थूल जगत् के व्यापार का आधार है। तुम यदि सूक्ष्म जगत के इन नियमों का अभ्यास और पालन करोगे तो उसका मूल्य और महत्व ज्ञात हो जायेगा जिससे विश्वास हो जायेगा कि विचार द्वारा जीवन अधिक शुभ, सुखी और आनन्दमय बनाया जा सकता है।
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