महात्मा गाँधी की सायंकालीन प्रार्थना

March 1948

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रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम। अल्ला-ईश्वर तेरे नाम। सबको सन्मति दे भगवान।

बौद्ध मन्त्र-

नम्यों हो रंगे क्यों

(सत् धर्म के प्रवर्त्तक भगवान् बुद्ध को नमस्कार करता हूँ)

उपनिषद् मन्त्र-

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किश्च जगत्याँ जगत् तेन त्यक्तेन भुँजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्

(इस जगत् में जो कुछ भी जीवन है वह सब ईश्वर का बसाया हुआ है। इसलिए तू ईश्वर के नाम से त्याग करके यथा प्राप्त भाग किया कर। किसी के धन की वासना न कर)

यं ब्रह्मावरुणेन्द्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै वेदैः साँगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति य सामगाः

ध्यानवस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न बिदुः सुरासुरगणः देवाय तस्मै नमः।

(ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और पवन दिव्य स्तोत्रों से जिसकी स्तुति करते हैं, सामदेव का गान करने वाले मुनि अंग, पद, क्रम, और उपनिषद् सहित वेदों से जिसका स्तवन करते हैं, योगी जन ध्यानस्थ होकर ब्रह्ममय मन द्वारा जिसका दर्शन करते हैं और सुर तथा असुर जिसकी महिमा का पार नहीं पाते, मैं उन परमात्मा को नमस्कार करता हूँ)

गीता, अध्याय 2-

अर्जुन उवाच

स्थित प्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम्।44

हे केशव ! स्थितप्रज्ञ अथवा समाधिस्थ के क्या लक्षण होते हैं? स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता, बैठता और चलता है?

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् आत्मन्येवा त्वना तुष्टः स्थितप्रज्ञः तदोच्यते।।44

हे पार्थ ! जब मनुष्य मन में उठती सभी कामनाओं का त्याग कर देता है और आत्मा द्वारा आत्मा में ही सन्तुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

दुःखेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।56

दुख से जो दुखी न हो, सुख की इच्छा न रखे, और राग, भय और क्रोध से रहित हो, वह स्थिर बुद्धि मुनि कहलाता है।

यः सर्वत्रानभिस्नेहः तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।57

सर्वत्र राग रहित होकर जो पुरुष शुभ या अशुभ की प्राप्ति में न हर्षित होता है, न शोक करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

यदा संहरते चायं कूर्मांगानीव सर्वशः इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य स्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।58

कछुआ जैसे सब ओर से अंक समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों को उनके विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।

विषया विनिवर्त्तते निराहारस्या देहिनः रसवर्ज रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्त्तते।।59।।

देहधारी जब निराहार रहता है तब उसके विषय मन्द पड़ जाते हैं, परन्तु रस नहीं जाता। वह रस तो ईश्वर का साक्षात्कार होने से ही शान्त होता है।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः इन्द्रियाणि प्रमाथानि हरंन्ति प्रसभं मनः।।60।।

हे कौन्तेय ! चतुर पुरुष के उद्योग करते रहने पर भी इन्द्रियाँ ऐसी प्रथमनशील हैं कि वे उसके मन को भी बलात्कार से हर लेती हैं।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।61

इन सब इन्द्रियों को वश में रखकर योगी को मुझमें तन्मय हो रहना चाहिये, क्योंकि अपनी इन्द्रियाँ जिसके वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।

ध्यायतो विषयान्पुसः संगस्तेषूपजायते संगत्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।62

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष को उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।

कोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 63

क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रान्त हो जाती है, स्मृति भ्रान्त होने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया वह मृतक तुल्य है।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् आत्मवश्यैविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।64

परन्तु जिसका मन अपने अधिकार में है और जिसकी इन्द्रियाँ रागद्वेष रहित होकर उसके वश में रहती हैं, वह मनुष्य इन्द्रियों का व्यापार चलाते हुए भी चित्त की प्रसन्नता प्राप्त करता है।

प्रसादे सर्वदुःखानाँ हानिरस्योपजायते प्रसन्नचेवसोह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।65।।

चित प्रसन्न रहने से उसके सब दुःख दूर हो जाते हैं। जिसे प्रसन्नता प्राप्त होती है, उसकी बुद्धि तुरंत ही स्थिर हो जाती है।

नास्तिबुद्धिरयुक्तस्य नचायुक्तस्य भावना न चाभावयतः शान्ति रशान्तस्यकुतःसुखम्।।66

जिसे समत्व नहीं उसे विवेक नहीं। जिसे विवेक नहीं उसे भक्ति नहीं और जिसे भक्ति नहीं उसे शान्ति नहीं है। और जहाँ शान्ति नहीं, वहाँ सुख कहाँ से हो?

इन्द्रियाणाँ हि चरताँ यन्मनोऽनुविधीयते तदस्य हरति प्रज्ञाँ वायुर्नावमिवाम्भसि।।67।।

विषयों में भटकाने वाली इन्द्रियों के पीछे जिसका मन दौड़ता है उसका मन, जैसे वायु नौका को जल में खींच ले जाता है वैसे ही उसकी बुद्धि को जहाँ चाहे खींच ले जाता है।

तस्माद्यस्य महावाहो निगृहीतावि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियावेभ्य स्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।68

इसलिए हे महाबाहो? जिसकी इन्द्रियाँ चारों ओर से विषयों से निकलकर अपने वश में आ जाती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

या निशा सर्वभूतानाँ तस्याँ जागर्ति संयमी यस्याँ जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो गुणेः।।69

जब सब प्राणी सोते रहते हैं, तब संयमी जागता रहता है, जब लोग जागते रहते हैं तब ज्ञानवान मुनि सोता रहता है।

आपूर्य्यमाणमचल प्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् तद्वत्कामा यं प्रविशंति सर्वे स शाँतिमाप्नोति न कामकामी।।70

नदियों के प्रवेश से भरते रहने पर भी जैसे समुद्र अचल रहता है, वैसे ही जिस मनुष्य में संसार के भोग शान्त हो जाते हैं, वही शाँति प्राप्त करता है, न कि कामना वाला मनुष्य।

बिहाय कामान्यः सर्वान्पुमाँश्चरति निस्पृहः। निर्ममो निरहंकारः सशाँतिमधिगच्छति।।71

सच कामनाओं का त्याग करके जो पुरुष इच्छा, ममता और अहंकार रहित होकर विचरता है वहीं शाँति पाता है।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनाँ प्राप्य विमुह्यति

स्थित्वास्या मन्तकालेऽपि ब्रह्म निर्वाणमृच्छति॥ 72

हे पार्थ! ईश्वर को पहचानने वाले की स्थिति ऐसी होती है। उसे पाने पर फिर वह मोह के वश नहीं होता और यदि मृत्युकाल में भी ऐसी ही स्थिति टिकी रहे, तो वह ब्रह्मनिर्वाण पाता है।

एकादश व्रत-

अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य असंग्रह, शरीरश्रम अस्वाद सर्वत्र भयवर्जन, सर्वधर्मा समानत्वस्वदेशीर्स्पशभावना ही एकादश सेवावी नम्रत्वेवतनिश्चये।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, अस्वाद, सब जगह भय का त्याग, सब धर्मों के साथ समान भाव, स्वदेशी धर्म का पालन, स्पर्शास्पर्श त्याग- इन ग्यारह व्रतों को पालन करने का मैं नम्रतापूर्वक निश्चय करता हूँ।

कुरान की आयत-

अऊजु बिल्लाहिं मिनश् शैत्वानिर रजीम्। बिस्मिल्लाहिर रहमानिम् रहीम्।। अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल् आलमीन्। अर रहमानिर् रहीमि मालिकी यौमिद्दीन्।। ईयाकं, नअबुदु व ईयाक नस्तईन्। इह् दिनस्, सिरात्वलू मुस्तकीम्।। सिरात्वल् लजीन अनूअम्त अलै हिम्। गैरिल मन दवूबि अलै किम् वल्द्द्वाल्लीन्।।

मैं पापात्मा शैतान के हाथों से अपने को बचाने के लिए परमात्मा की शरण लेता हूँ। हे प्रभो, तुम्हारे नाम का ही स्मरण करके मैं सारे कामों का आरम्भ करता हूँ। तुम दया के सागर हो, तुम कृपामय हो। तुम अखिल विश्व के पालनहार हो। तुम्हीं मालिक हो। मैं तुम्हारी मदद माँगता हूँ। आखिरी न्याय देने वाले तुम ही हो। तुम मुझे सीधा ही रास्ता दिखाओ। उन्हीं को चलने का रास्ता दिखाओ, जो तुम्हारी कृपादृष्टि पाने के काबिल हो गये हैं। जो तुम्हारी अप्रसन्नता के योग्य ठहरे, जो गलत रास्ते से चले हैं उनका रास्ता मुझे मत दिखाओ।

जरतुश्ती गाथा-

मजदा अत मोइ वहिश्ता। स्रवा ओस्चाश्योथना चा वओचा। ता-तू वहू मनघहा। अशाचा हूषुदेम स्तुतो। क्षमा का श्रथ्रा अहूरा फेरषेम्। वस्ना हइ श्येम दाओ अहूम्।

ऐ हारमज्द, सर्वोत्तम धर्म के वचन और कर्म के विषय में मुझे बता जिससे मैं सच्ची राह पर रह सकूँ और तेरी ही महिमा गा सकूँ। तू अपनी इच्छा के अनुसार मुझे चला। मेरा जीवन चिर नूतन रहे और वह मुझे स्वर्ग सुख का दान करे।

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