साहस से विजय मिलती है

March 1948

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(पं. शिवशंकर लाल त्रिपाठी, कानपुर)

मनुष्य के आस पास परिस्थितियों और मान्यताओं का एक वातावरण छाया रहता है, उसका भीतरी चित्त इस वातावरण से बहुत प्रभावित होता है तदनुसार वह उसी निर्धारित वातावरण की परिधि के अन्दर सोचता विचारता और कार्य करता है।

कई बार निकटवर्ती वातावरण की यह परिधि उपयुक्त नहीं होती, उसमें रह कर न तो उन्नति की गुंजाइश होती है और न भविष्य को उज्ज्वल बनाने की। उस परिधि से बाहर जाकर उन्नति करने की बात कई व्यक्ति सोचते हैं पर साहस के अभाव में वे वैसा कर नहीं पाते। चिर संचित संस्कार एवं सहयोगियों का प्रतिरोध, उस उत्साह को ठंडा कर देते हैं जो मनुष्य के मन में उन्नति करने के लिए उत्पन्न होता है। फलस्वरूप वह जहाँ का तहाँ रह जाता है।

जब हम संसार के महापुरुषों के जीवन विकास पर सूक्ष्म दृष्टिपात करते हैं तब हमें पता चलता है कि-एक कार्य हर महापुरुष को करना पड़ा है, वह है “अपने चिर निर्मित वातावरण का निष्क्रमण” महात्मा गान्धी यदि राजकोट में अपने पैतृक कारोबार ही संभालते तो क्या वे वह सब कर सकते थे जो उन्होंने किया? स्वामी दयानन्द अपनी पैतृक यजमान वृत्ति को करते तो क्या उन्होंने उतना सब किया होता?

हिटलर के घर में भटियारे का पेशा होता था, मुसोलिनी के घर वाले मोचीगीरी से गुजर करते थे, शेक्सपियर के यहाँ कसाईगीरी होती थी, वाशिंगटन की माता लकड़हारिन थी, नेपोलियन के बाप-दादे चौकरी चाकरी करके पेट पालते आये थे। यदि यह लोग अपने पुराने वातावरण से ऊपर उठने का साहस न दिखा सके होते तो निश्चित था कि उन्हें भी अपने पूर्वजों की भाँति गुजर-वशर करते हुए किसी प्रकार जिंदगी पार करनी पड़ती।

असंख्यों व्यक्ति सचमुच बड़े प्रतिभाशाली होते हैं। उनके अन्दर उत्कर्ष की अटूट इच्छा और कठिनाइयों से लड़ने का दृढ़ साहस होता है। यदि उन्हें अवसर मिलता तो कुछ से कुछ बन सकते थे। पर हाय ! वे अपनी चिर निर्मित परिधि का घेरा पार नहीं कर पाते। आगे बढ़ने की इच्छा करते हैं पर पैर आगे बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते। संकोच, झिझक, डर एवं आशंकाओं की जंजीरें उन्हें कसकर बाँध देती हैं और आगे बढ़ने से रोक देती हैं। इस प्रकार कितने ही मनोहर पुष्प बिना खिले ही अपनी झाड़ियों में मुर्झा जाते हैं।

मनुष्य जीवन महान है। वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार यह बहुत काल पश्चात् बड़ी कठिनाइयों के बाद, किसी विशेष उद्देश्य के लिए मिलता है। इसका समुचित उपयोग न करके भेड़ों के झुण्ड में यों ही आँखें मूँद कर चलते जाना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। हर व्यक्ति को विचारना चाहिए कि वह अपने लिए और दूसरों के लिए अधिक से अधिक उपयोगी किस प्रकार हो सकता है? अपने इस महान मानव जीवन को सफल किस प्रकार बना सकता है? अपनी शक्तियों का अधिक से अधिक लाभ किस मार्ग पर चल कर उठा सकता है? इन प्रश्नों के उत्तर के आधार पर उसे अपना जीवन प्रोग्राम बनाना चाहिए। ‘जैसा कुछ चल रहा है सो ठीक है’ ऐसी निर्बल भावनाएं रखकर मनुष्य जीवन की घड़ियों को किसी प्रकार काट तो सकता है पर अपना उत्कर्ष नहीं कर सकता, जीवन को सफल नहीं बना सकता, आत्मशान्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

हमें चाहिए कि जीवन सम्पत्ति का श्रेष्ठतम सदुपयोग करें। उत्कर्ष का पथ निर्माण साहस के आधार पर होता है। जो बढ़ता है सो बाजी मारता है, जो लड़ता है सो जीतता है।

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