धर्म की परिभाषा

March 1948

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(श्री सत्यप्रकाश ‘सत्य’ वजीरपुरा आगरा)

धर्म की परिभाषा या ठीक-2 स्वरूप जानने के पहिले उसकी व्युत्पत्ति जान लेनी आवश्यक है। ‘धृज् धारणे’ धातु से औणादिक मन् (पा0 स0 145) प्रत्यय होकर धर्म शब्द सिद्ध होता है। इसका साधारण अर्थ है कि जो धारण किया हुआ है उसका नाम धर्म है। किसी ने कहा भी है कि ‘धारणार्द्धम इत्याहुः’-धारण से धर्म कहा गया है।

अब सवाल सामने है कि - जिसे सबने धारण किया हुआ है वह धर्म है? या जिसने सब को धारण कर रक्खा है, वह धर्म है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर एक ही है और वह यह है कि जिसको सबने धारण कर रक्खा है, उसी ने सब को धारण कर रक्खा है और वह है ‘स्वभाव’। जैसे पृथ्वी ने गंध, जल ने शीतलता, अग्नि ने उष्णता, वायु ने स्पृश्यता, आँख ने रूप ग्रहण या देखना, कान ने सुनना, नाक ने सूँघना, त्वचा ने स्पर्श-और इसी तरह अन्यान्य चीजों ने भी जो जिसका स्वभाव है, वह सबने धारण कर रक्खा है। इस दृष्टि से स्वभाव का नाम धर्म होता है। फिर जब हम यह विचार करते हैं कि-जो सब को धारण किया हुआ है उसी धर्म क्यों न माना जाय ? तो भी स्वभाव को ही धर्म मानना पड़ेगा क्योंकि इन वस्तुओं का स्वभाव जिस दिन इनको छोड़ देता है उस दिन वे स्वतः नष्ट हो जाती हैं। इस स्वभाव ने ही इस संसार की चीजों को धारण कर रक्खा है। इसलिए हमारे पूर्व शास्त्रज्ञों ने कहा भी है कि-

“धर्म एव हतो हन्ति धर्मोरक्षति रक्षितः”

अर्थात्-“वही मारा गया है जिसका धर्म मारा गया है और वही बचा है जिसका धर्म बचा है।” इससे और भी स्पष्ट हो जाता है कि संसार को इन जड़ वस्तुओं ने जो अपने-2 स्वभाव धारण कर रक्खे हैं तथा इनके जिन-2 स्वभावों ने इन्हें धारण कर रक्खा है वही इनके धर्म हैं।

अब हम प्राणियों के जीवन की ओर आते हैं। और पूछते हैं कि प्राणियों का जीवन धर्म क्या है? तो उत्तर मिलता है कि प्राणियों का जीवन धर्म वही है जिसने प्राणियों के जीवन धारण कर रक्खे हैं या प्राणियों के जीवन ने जिसे धारण कर रक्खा है। अब फिर पूछना पड़ता है कि वह क्या है ? तो उत्तर मिले बिना न रहेगा कि वह है- “सुखों का साधन समूह।” क्योंकि सुखों के साधन धारण करने (जुटाने) का प्राणी के जीवन का स्वभाव है और इन सुख के साधन ने ही प्राणी के जीवन को धारण (रक्षित) कर रक्खा है। इसलिए निश्चय हुआ कि - ‘प्राणी का जीवन धर्म-अविनाशी सुख का साधन है।’

अथवा हम उपर्युक्त प्रश्न को इस प्रकार से सामने लावें कि-जीव के लिए धर्म क्या है? तो इस प्रश्न के उत्तर के पहले हमारे सामने प्रश्न आता है कि जीव की स्वाभाविक आकाँक्षा क्या है? - इसके उत्तर में यदि कहा जाय कि - हमेशा सुख या आनन्द में रहना जीव के स्वभाव की आकाँक्षा है तो हमारा पहला प्रश्न स्वतः हल हो जाता है कि जीव के लिए धर्म, आनन्द या सुखों का उपार्जन करना है। क्योंकि - ऐसा न करना जीव के स्वाभाविक गुण के विरुद्ध चलता है। लेकिन पशु−पक्षी आदि मनुष्येत्तर प्राणियों को यह बात समझने की शक्ति नहीं। अतएव अपने स्वाभाविक धर्म की पूर्ति करने की बात मनुष्यों पर ही लागू होती है अन्धों पर नहीं। इससे निश्चय हुआ है कि उन उपायों का ग्रहण करना मनुष्य का धर्म है जिससे इस लोक से परलोक तक सुख ही सुख या आनन्द ही आनन्द मिलता रहे।

महात्मा गौतम ने भी अपने वैशेषिक दर्शन में कहा है कि -

‘यतोऽभ्युदयो निश्रेयसः स धर्मः।’

अर्थात्-जो हमें इस लोक में अभ्युदय व परलोक में मुक्ति पद प्राप्त करा सके उस नियम या नियम समूह का नाम ‘धर्म’ है।

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