हम अभागे नहीं हैं

March 1948

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अपने से बढ़ी चढ़ी स्थिति के मनुष्यों को देखकर हम अपने प्रति गिरावट के-तुच्छता के भाव लावें यह उचित नहीं। क्योंकि असंख्यों ऐसे भी मनुष्य हैं जो हमारी स्थिति के लिए तरसते होंगे और अपने मन में हमें ही बहुत बड़ा भाग्यवान् मानते होंगे।

उन खानाबदोश गरीबों को देखिए जिनके पास रहने को घर नहीं, बैठने की जगह नहीं, बंधी हुई तिजारत या जीविका नहीं आज यहाँ हैं तो कल वहाँ दिखाई देंगे। रोज कुंआ खोदना रोज पानी पीना। क्या इनकी अपेक्षा हम अच्छे नहीं है?

उन रोगियों को देखिए, जिनकी पीड़ाओं का कोई ठिकाना नहीं। दर्द, कष्ट, व्यथा, जलन, कसक, टीस, ताप, निर्बलता, के कारण जिनका रोम रोम छटपटाता है, धन का अपव्यय, दूसरों का अहसान, परिचर्या करने वालों की झुझलाहट, आश्रितों की दुर्दशा एवं मृत्यु के भय के कारण जिनकी नाड़ियाँ संज्ञाशून्य हो रही हैं, उनसे हमारी दशा कहीं अच्छी है।

उन वृद्ध पुरुषों को देखिए जिसका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया है, अनिद्रा, खाँसी, अपच, एवं अशक्ति के कारण जिन्हें अपना जीवन भार हो रहा है। उनसे हम बुरे नहीं हैं।

उन दरिद्रों को देखिए जिनके पास न तन ढकने को कपड़ा है और न पेट भरने को रोटी, वर्षा में जिनकी झोपड़ियाँ चूती हैं, त्यौहारों पर जिनके बच्चे पूड़ी पकवानों के लिए तरसते हैं, दवादारु के बिना जो बेमौत मर जाते हैं। क्या हम उनसे बुरी दशा में हैं?

उन अनाश्रित बालकों और विधवाओं को देखिए जिनके पास गुजारे का कोई सहारा नहीं, जो नाम मात्र की आमदनी से अपनी गुजर करते हैं। संरक्षण, आश्रय और सहायता के बिना जो अपने को लुटा लुटा सा अनुभव करते हैं उनकी अपेक्षा क्या हम गिरी हुई स्थिति में हैं?

उन मानसिक शोक सन्ताप से जलते हुए मनुष्यों को देखिए, जिनका प्रेमी बिछुड़ गया है, जिनकी दुनिया लुट गई है, जिनके कलेजे में घाव हो गये हैं, शक्ति से अधिक बोझ जिनके ऊपर धरा हुआ है, ऋण के बोझ से जो दबे जा रहे हैं। उत्तरदायित्वों को पूरा करने की चिन्ता जिन्हें खाये जाती है, पग-पग पर अपमान सहकर जिन्हें लहू के से घूँट पीने पड़ते हैं, भय से जिनका कलेजा धड़कता रहता है प्रतिष्ठा नष्ट हो जाने की आशंका जिन्हें बेचैन बनाये रहती है, शरीर जिनका स्वस्थ है पर भीतर ही भीतर जो घुले जा रहे हैं, उनकी अपेक्षा हम अधिक दुखी नहीं है।

उन अपाहिजों, अपूर्ण एवं अंग भंग मनुष्यों को देखिए जिनकी जीवन यात्रा दूसरों की दया पर निर्भर है। अंधे, लंगड़े, लूले, गूँगे, बहरे, कोढ़ी, पागल आदि अनेकों प्रकार के असंख्य मनुष्य हमारी अपेक्षा कहीं अधिक गिरी हुई दशा में है।

उन आपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को देखिए जिनके ऊपर अचानक आपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। बाढ़ के प्रवाह से, अग्निकाण्ड से, चोरी हो जाने से, आक्रमण से, आँधी, तूफान, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष आदि प्रकृति प्रकोपों से, दुर्घटना से, बीमारी, महामारी से, अकाल मृत्यु से जिनको असह्य आघात लगा और थोड़ी सी देर में कुछ से कुछ हो गये। ऐसे आकस्मिक आघातों के प्रहार से जो किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये हैं, जिनके अन्तःकरण में हाहाकार मच रहे हैं, उनके कष्ट से हमारे कष्ट किसी प्रकार अधिक नहीं हैं।

अज्ञान और भ्रम के कारण कितने ही लोगों का जीवन कंटकाकीर्ण हो रहा है, कुसंस्कार, दुर्भावना, कुविचार, बुरी आदत, मूर्खता, नीचवृत्ति, पाप, वासना, तृष्णा, ईर्ष्या, घृणा, अहंकार व्यसन, क्रोध, लोभ, मोह आदि आन्तरिक शत्रुओं के आक्रमण से जिन्हें पग-पग पर परास्त एवं पीड़ित होना पड़ता है, उनकी अशान्ति की तुलना में हम अधिक अशान्त नहीं हैं।

अछूत, परिगणित, गुलाम, असभ्य, जंगली जातियों के लोगों के पास कितने सीमित, कितने स्वल्प साधन होते हैं क्या हमारे पास उनसे भी कम साधन हैं?

जेलखाने, पागलखाने और शफाखाने में भरे हुए लोगों की अपेक्षा भी क्या हम अधिक दुर्दशाग्रस्त है?

हम अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ावें तो प्रतीत होगा कि अधिकाँश मनुष्य ऐसे हैं जो हमसे भी गई गुजारी दशा में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जिन कष्ट और कठिनाइयों में होकर हम गुजर रहे हैं असंख्यों व्यक्तियों की कठिनाइयाँ उससे भी अनेक गुनी अधिक हैं।

जिन्हें हम अधिक सम्पन्न और सुखी समझते हैं वे भी हमारी ही तरह दुखी होंगे और अपने से अधिक सम्पन्नों को देखकर सोचते होंगे कि हम पिछड़े हुए, अभावग्रस्त और दुखी हैं। दूसरी ओर जो लोग हमसे पिछड़े हुए हैं वे हमारे भाग्य पर ईर्ष्या करते होंगे। सोचते होंगे अमुक व्यक्ति तो हमारी अपेक्षा बहुत अधिक सुख−साधन सम्पन्न है।

करोड़पति धनिक जो बीमारी और वृद्धावस्था से दुखी है, एक हट्टे-कट्ठे मजदूर को अपने से अधिक सौभाग्यशाली समझता है। एक कुसंस्कारी विद्वान की अपेक्षा सतोगुणी अशिक्षित अधिक सुख शान्तिमय जीवन व्यतीत करता है। गरीबी कोई बुरी बात नहीं है, यदि होती तो अनेकों सन्त महात्मा धन दौलत को न अपना कर उसे क्यों अपनाते? कठिनाइयों का होना भी कोई बुरी बात नहीं, यदि बुरी होती तो जितने भी महापुरुष हुए हैं सबने कठिनाई का जीवन स्वीकार क्यों किया होता?

हो सकता है कि हमें उतनी सुविधा और सम्पन्नता प्राप्त न हो जितनी कई दूसरों को प्राप्त है पर इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हम दीन दुखी या अभागे हैं क्योंकि कितने ही व्यक्ति ऐसे मौजूद हैं जो हमें भी ऊँची श्रेणी का भाग्यवान मानते होंगे। बड़ा और छोटा, गरीब और अमीर, विपन्न और सम्पन्न होना कोई वास्तविक बात नहीं है। यह दूसरों की तुलना में निर्धारित की जाती है। छोटी लकीर से बड़ी लकीर-‘बड़ी’ कही जायेगी किन्तु वह बड़ी लकीर, उससे बड़ी लकीर की तुलना में ‘छोटी’ रह जायेगी, इस प्रकार एक ही लकीर तुलना की दृष्टि से एक अवसर पर बड़ी और दूसरे पर छोटी ठहरती है। यही बात मनुष्य की है। तुलना की दृष्टि से ही वह अपने को अभागा और सौभाग्यशाली मानता है।

हम अपने को अभागा क्यों मानें ? दीन, दुखी, अभाव ग्रस्त या पिछड़ा हुआ क्यों समझें ? जब अनेकों से अनेक अंश में हम सुसम्पन्न और आगे बढ़े हुए हैं तो अकारण दुख न होने पर भी दुखी होने का कोई कारण नहीं। हमें तृष्णा का हड़कम्प उठा कर शान्तिमय जीवन को अशान्त बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। हमें चाहिए कि जो प्राप्त है उसमें संतुष्ट रहें और अधिक प्राप्त करने को अपना स्वाभाविक कर्तव्य समझ कर उसके लिए प्रयत्न करें।


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