क्या चमत्कार आवश्यक हैं?

March 1948

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एक समय था जब किसी महापुरुष के प्रति अज्ञ जनता के मन में भक्ति भावना जागृत करने के लिए उसे चमत्कारी सिद्ध किया जाता था। यह उचित भी था, क्योंकि विचार विज्ञान से अपरिचित, दूर जंगलों में एकाकी जीवन व्यतीत करने वाले अल्पज्ञ लोग, महापुरुषों और उनकी महत्ता का वास्तविक तात्पर्य समझने में असमर्थ होते थे। उनका मस्तिष्क इतना अविकसित होता था कि वे यह समझ नहीं पाते थे कि किसी प्रकार के विचार धारण करने वालों को-ब्रह्म वेत्ताओं को-श्रेष्ठ समझना चाहिए। इस परिस्थिति में यही एक मात्र उपाय था कि उन अविकसित लोगों को यह बताया जाय कि अमुक व्यक्ति में अमुक प्रकार के अलौकिक चमत्कार करने की दैवी शक्ति है, इसलिए वह श्रद्धास्पद है। जरूरत पढ़ने पर किसी तरकीब से कोई चमत्कारी बात उन्हें दिखाई भी जा सकती थी पर आमतौर से किम्वदन्तियाँ प्रचलित कर देने से यह कार्य आसानी से हो जाता था।

हम पढ़ा और सुना करते हैं कि हमारे अमुक पूर्वज में अमुक प्रकार की चमत्कारी शक्ति थी। इससे आमतौर पर उनके महान होने का विश्वास हो जाता है और उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती है। उस हद तक चमत्कारों सम्बन्धी किम्वदन्तियों का महत्व भी है और उपयोगिता भी। परन्तु वस्तुस्थिति का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर विचार करने से प्रतीत होता है कि किसी समय किन्हीं लोगों के लिए यह प्रचार प्रणाली उपयोगी भले ही रही है पर आज तो वह अनुपयोगी ही सिद्ध हो रही है।

जिन महापुरुषों के महान जीवन कार्यों से अनुकरण का लाभ उठाया जाना चाहिए था, वह इनके चमत्कारी या देवदूत होने की आड़ में विलुप्त हो जाता है। देवता, देवदूत, अवतार या भगवान का अनुकरण भला साधारण मनुष्य कैसे कर सकते हैं? इस बात को सोचकर लोग अपने आदरणीय महापुरुषों से प्रकाश या प्रेरणा ग्रहण करने को तत्पर नहीं होते। श्री रामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण जी के जीवन में ऐसे असंख्यों संदेश भरे पड़े हैं जो उनके श्रद्धालुओं, भक्तों के जीवन क्रम को कुछ से कुछ बना सकते हैं-पर यह हो कैसे? जब उन्हें अलौकिक पुरुष मान लिया गया तो जो स्वयं अलौकिक नहीं है वह उनके अनुगमन का साहस कैसे कर सकता है? आज तो श्रीकृष्ण चरित्र के श्रवणमात्र से अथवा उनकी लीलाओं का रास, अभिनय, चित्रण आदि देखने मात्र से मुक्ति मिल जाने की आशा की जाती है। जब यह विचार मनों में भरे हुए हैं तो उनके कष्ट साध्य अनुगमन की कोई क्यों इच्छा करे?

अनेकों ऋषि, तपस्वी, योद्धा, लोकसेवी, ब्राह्मण, पुरुषार्थी, महापुरुष, त्यागी हमारे इतिहास के पन्ने पन्ने पर अंकित हैं। पर वे हैं कोई न कोई चमत्कारी। किसी न किसी देवता की उन पर कृपा रही है। छत्रपति शिवाजी तक की उन पर कृपा रही है। छत्रपति शिवाजी तक को दुर्गा से तलवार मिलती है तभी वे अत्याचारियों से लड़ पाते हैं। साधारण व्यक्ति सोचता है मुझे किसी देवता ने तलवार नहीं दी है तो फिर भला मैं कैसे किसी महान कार्य को करने में समर्थ हो सकता हूँ? यह सोचते सोचते उसकी आशा और उत्साह की कलियाँ मुर्झा जाती हैं। संसार के समस्त देश और समस्त जातियाँ अपने पूर्वजों से प्रेरणा और प्रकाश ग्रहण करते हैं, उनसे पद चिह्नों पर चलने का प्रोत्साहन प्राप्त करते हैं, पर हमारा चमत्कारवाद हमें इस महान लाभ से वंचित कर देता है-विमुख बना देता है।

अभी युग पुरुष, विश्ववंद्य महात्मा गाँधी का महा प्रयाण होकर चुका है। इस महामानव ने जो महान कार्य कर दिखाये, युग को पलट दिया, उस महान चमत्कारों से विश्व के समस्त विचारवान व्यक्ति आश्चर्य से चकित हैं और उन्हें आज तक पृथ्वी पर उत्पन्न हुए सर्वश्रेष्ठ पाँच महामानवों में से एक मानते हैं। पर हमारे पास एक दर्जन से अधिक व्यक्तियों के ऐसे पत्र आये हैं जिसमें उन्होंने यह प्रकट किया है कि महात्मा गान्धी में कोई चमत्कार नहीं थे। वे लिखते हैं-(1) महात्मा गाँधी अपनी मृत्यु का समय तक नहीं जान सके (2) मारने वाले की गोली को अपने योग बल से व्यर्थ नहीं बना सके (3) कोई ऐसी करामातें उन्होंने नहीं दिखाई जो अलौकिक होती। इन कारणों से वे गान्धी को पहुँचा हुआ महात्मा नहीं मानते। एक सज्जन ने तो ईश्वर तक पर अविश्वास प्रकट किया है कि जब वह भक्तों का रक्षक है तो उसने गान्धी जी को बचाया क्यों नहीं? जब उसने नहीं बचाया तो या तो ईश्वर भक्त वत्सल नहीं है या गान्धी जी भक्त नहीं थे।

इन उपरोक्त आशंकाओं की मूल में एक ही विचार धारा काम कर रही है कि-किसी महापुरुष को अलौकिक चमत्कारी या देवता का कृपा पात्र अवश्य होना चाहिए। जिन आदि पुरुषों ने चमत्कारवाद का आरंभ किया होगा उन्होंने यह कल्पना भी न की होगी कि भविष्य में यह मान्यता बिगड़ते बिगड़ते यहाँ तक जा पहुँचेगी कि कोई भी धूर्त बाजीगरी के हथकंडे बताकर श्रद्धालु लोगों को उल्लू बना लिया करेगा और कोई भी महापुरुष इसलिए साधारण समझा जायेगा कि उसने कोई हैरतअंगेज करिश्मा करके अपने को देवता साबित नहीं किया। एक प्रथा किस उद्देश्य से आरंभ की गई थी और उसका अन्त में क्या वीभत्स रूप हमारे सामने आ गया। इस दैव दुर्विपाक को क्या कहा जाये? हमें वस्तुस्थिति को ठीक रूप से समझने के लिए इतिहास के पृष्ठों को पुनः एक बार गंभीरतापूर्वक पलटना पड़ेगा और छोटे छोटे करिश्मों के चुटकुलों को एक ओर हटा कर महापुरुषों के जीवन की प्रमुख घटनाओं पर विचार करना पड़ेगा तभी हम समझ सकेंगे कि-गुप्त बातों को जानना, परमात्मा की मर्जी से परिचित होना या व्यक्तियों और घटनाओं को मनमाना बना लेना मनुष्य के हाथ में है या नहीं? परमात्मा ढाल तलवार लेकर अपने भक्तों की प्राण रक्षा करने के लिए साथ साथ फिरता है या नहीं?

जानकी जी चुराई गई। क्या रामचन्द्रजी इतना भी भविष्य ज्ञान न रखते थे? रावण से उन्हें लड़ने के लिए वानरों की सेना सजानी पड़ी और इतना बड़ा संग्राम करना पड़ा, क्या वे रावण को अपनी शक्ति से चारपाई पर पड़ा पड़ा ही न मार सकते थे? भगवान कृष्ण के पैर पर एक भील ने तीर मारा, उनका महाप्रयाण हो गया था क्या वे इसको पहले से न जानते थे? यदि जानते थे तो अपने को क्यों न बचाया? संजय और धृतराष्ट्र तो दिव्यदर्शी थे, क्या उन्हें मालूम न था कि महाभारत में हार हमारे पक्ष की होगी यदि मालूम था तो उसे रोका क्यों नहीं? क्या कृष्णजी को यह मालूम था कि महाभारत के बाद इतनी देशव्यापी दुर्दशा होगी जिसके प्रायश्चित स्वरूप पांडवों को आत्महत्या करनी पड़ेगी ?

जो बात गान्धी जी के बारे में कहीं जा सकते हैं वही बात भगवान राम और श्रीकृष्ण के बारे में भी कही जा सकती है। जिनको दैवी सहायता मिले और संकट से बच जाय वे भगवान के कृपा पात्र-और जिनको कष्ट सहने पड़े, तप करने पड़े वे भगवान के अकृपा पात्र-यह तो कोई उचित मान्यता नहीं है। हमारे असंख्यों वीर पुरुष धर्म के लिए दीवारों में चुने गए हैं, खोलते तेल के कढ़ावों में तले गये हैं, जिन्दा जलाये गये हैं, शूली पर चढ़े और फाँसी पर झूले हैं क्या उन सबको भगवान का द्वेषी कह दें? बंगाल के दुर्भिक्ष में लाखों आदमी भूख से मर गए, साम्प्रदायिक हत्या काण्डों में चार लक्ष मानव प्राणी उत्सर्ग हो गये इन पीड़ितों के प्राण बचाने के लिए कितनों ने ही अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी। गत दो महायुद्धों में कितने ही व्यक्ति कर्तव्य के लिए लड़ते हुए मरे, कितने ही चालाकों द्वारा चंगुल में फंसा कर मरवा डाले गये, कितने ही निर्दोष अपने घरों में बैठे हुए बमों के शिकार हो गये, क्या इन सबको ईश्वरीय कोप का भाजन कहना उचित होगा? इन दुखद अवसरों पर भी अनेक व्यक्ति स्वार्थ साधन में तत्पर रहे, उन्होंने अवसर से लाभ उठाया और मालामाल हो गये, आज वे मूँछों पर ताव दे रहे हैं क्या इन्हें ईश्वर की कृपा पात्र कहना चाहिए? बंगाल की भुखमरी में अन्न संचय का मुनाफा बटोरने वाले, साम्प्रदायिक उपद्रवों में हाथ साफ करके लूट के माल से अमीर बने हुए गुण्डे क्या भगवान के कृपा पात्र हैं?

सच बात यह है कि कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र हैं। वह भले या बुरे चाहें जैसे कर्म स्वेच्छा से कर सकता है। भगवान किसी के कर्म मार्ग में रोड़ा नहीं बनते। हाँ कर्म कर चुकने के बाद उसके फल से मनुष्य नहीं बच सकता। तीर चलाना न चलाना हमारी इच्छा के ऊपर निर्भर है पर तीर चल जाने के बाद हम उसके परिणाम को नहीं टाल सकते। मनुष्य चाहे तो बुरे कर्म कर सकता है- घृणित से घृणित दुष्टताएं और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ सत्कर्म करने की उसे पूरी पूरी आजादी है पर क्रिया के बाद तुरन्त या देर में उसे सामाजिक, राजकीय, आत्मिक अथवा दैवी परिणाम अवश्य प्राप्त होगा। यह सोचना उचित नहीं कि जितने पीड़ित शोषित या सताये हुए हैं यह सब पूर्व कर्म का फल पा रहे हैं और जितने गुलछर्रे उड़ाने वाले हैं पूर्व जन्म के सुकृती हैं। इस जीवन की हर क्रिया पूर्व जन्म का फल नहीं है जिस प्रकार पूर्व जन्म में कर्म करने की स्वतंत्रता थी वैसी ही इस जन्म में भी है। परमात्मा किसी की कर्म करने की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करता- भले ही उस स्वतंत्रता के दुरुपयोग से कैसा ही बड़ा अनिष्ट उत्पन्न क्यों न होता हो।

ईश्वर नियम रूप है। उसके नियमों के अनुसार सब व्यवस्था चल रही है। चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक, पापी हो या पुण्यात्मा, किसी के लिए आग ठंडी किसी के लिए गरम नहीं हो सकती। भक्त और भगवान के बीच सहायताओं के चमत्कारी वर्णनों की जो गाथाएं प्रचलित हैं, वे श्रद्धा की महत्ता पुष्ट करने के लिए हैं, उनको वैज्ञानिक तथ्य की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए। खंभ फाड़कर नृसिंह पैदा होने की आशा रखने वाले प्रहलादों को अवसर पर निराशा का ही आशय लेना पड़ेगा। बेचारे मृग, बकरे, खरगोश आदि निरीह पशु अनादि काल से सिंह व्याघ्रों से अपनी हड्डियाँ तुड़वाते रहे हैं पर आज तक उनकी रक्षा करने के लिए ग्राह को बचाने वाले भक्त वत्सल गरुड़ पर चढ़ कर नहीं आए। गौ माताओं का वंश कटते कटते समाप्ति की ओर जा रहा है पर गोविन्द के दर्शन दुर्लभ हैं। फफक फफक कर एक एक दाने अन्न के लिए बंगाल के 35 लाख मनुष्यों ने प्राण त्यागे पर नरसी के घर पर हुण्डी बरसाने वाले साँवलिया साहू ने कुछ बोरी अन्न तक न बरसाया।

अनुचित आशा करने वालों को निराश होना पड़ता है। परमात्मा नियम रूप है, नियमिक सत्ता है, नियंत्रण और व्यवस्था करने वाली शक्तियों को वह सजग रखता है। विश्व का संतुलन न बिगड़ने देने के लिए उसकी उत्पादक शक्ति काम करती है। वह जड़ चैतन्य को उपजाता है, उनके सक्षम रखने की व्यवस्था करता है और साथ ही उनके विनाश का हेतु भी बनता है, इस प्रकार वह ब्रह्मा विष्णु महेश की त्रिगुणात्मक शक्तियों द्वारा अपना परिचय देता है, वह समदर्शी है, निष्पक्ष है, निर्लिप्त है। वह सर्वोपरि है-फिर भी उसने सबको कर्म करने की पूर्ण स्वाधीनता प्रदान की है, हाँ कर्मफल की उसकी न्याय व्यवस्था से कोई अछूता नहीं बच सकता है। वह बड़ा दयालु है क्योंकि उसने हमें सब प्रकार के साधन और अवसर दिये हैं। वह बड़ा निर्दय है क्योंकि वह अनुचित क्रियाओं को न होने देने के लिए कुकर्मियों के हाथों को लुँज पुँज नहीं कर देता। हम पसंद करें चाहे न करें पर उसका सृष्टि क्रम ऐसा ही है। वह चमत्कारों का केन्द्र है, उसकी सृष्टि का जर्रा जर्रा चमत्कार से परिपूर्ण है पर बाजीगरी के लिए उसकी व्यवस्थित क्रिया पद्धति में स्थान नहीं।

अब समय बहुत बदल गया है। वे परिस्थितियाँ न रहीं जिनमें किसी व्यक्ति को महापुरुष की श्रद्धा तभी प्राप्त हो सकती थी जब उसे देवताओं जैसा अलौकिक चमत्कारी सिद्ध करना आवश्यकता होता था। अब हम किसी व्यक्ति के आदर्श से उसकी महानता को आकेंगे, और उसके व्यक्तित्व से प्रकाश ग्रहण करते हुए सन्मार्ग पर चलेंगे। इस दृष्टि से गाँधी जी हिमालय से उच्च और सूर्य से प्रकाशवान् हैं। विज्ञ संसार उन्हें इसी रूप में देखेगा। बापू का व्यक्तित्व इतना ऊंचा है उनके सिद्धान्त इतने महान हैं जिन पर बाजीगरी की, चमत्कारों की, अलौकिकताओं की, कोटि-कोटि कल्पनाओं को निछावर करके फेंका जा सकता है।


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