‘द’ ‘द’ ‘द’

October 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(पं. रामनगीना शर्मा, रसूलपुर)

एक बार देव, मनुष्य और असुर तीनों भाई प्रजापति ब्रह्माजी के पास धर्मोपदेश ग्रहण करने के लिये गये। पितामह ने तीनों को सत्कारपूर्वक बिठाया। सब से पहले उन्होंने देवों को बुलाया तथा और कुछ ने कह कर केवल ‘द’ का उपदेश दिया। फिर ब्रह्माजी ने पूछा वत्स! मेरे उपदेश का अर्थ समझे? देवों ने कहा - हाँ, पूज्य! समझे, आपने सूत्र रूप से ‘द’ शब्द कह कर हमें दमन का-इन्द्रिय संयम का-उपदेश दिया है। प्रजापति ने प्रसन्न होकर कहा-तुमने मेरे उपदेश का ठीक ही अर्थ समझा।

अब मनुष्यों की बारी आई। उन्हें एकान्त में ले जाकर ब्रह्माजी ने ‘द’ का उपदेश दिया और पूछा कि मेरे कथन का तात्पर्य समझे। मनुष्यों ने कहा-आपने हमें ‘द’ का मन्त्र देते हुए ‘दान’ का आदेश किया है। प्रजापति ने हर्षपूर्वक कहा-ठीक है बेटा, तुम्हारे लिए मेरे कथन का यही तात्पर्य है।

अन्त में असुर बुलाये गये। इन्हें भी ब्रह्माजी ने ‘द’ का उपदेश दिया और पूछा कि इस सूत्र का क्या भावार्थ समझे? असुरों ने उत्तर दिया भगवान् आप हमें ‘दया’ का उपदेश कर रहे है। पितामह ने उनके अर्थ को भी ठीक बताया और उसी का पालन करने का विशेष रूप से आग्रह किया।

वृहदारण्यक के उपनिषद् की उपरोक्त कथा का तात्पर्य यह है कि धर्म तत्व ‘द’ शब्द में समान एक ही है, पर अधिकारी भेद से उसके पालन में कुछ अन्तर होता है। जिस व्यक्ति में जो त्रुटियाँ हैं, वह उन्हें दूर करने के लिए उसी दिशा में प्रयत्न करे। धर्म का यही मूलभूत सिद्धान्त है।

जीवन-विज्ञान लेख माला-


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: