गृहस्थ में संन्यास

October 1942

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औदार्य त्याग सेवानाँ प्राप्नुते व्यवहारतः।

ग्रहस्थे आश्रमे नूनं संन्यासस्य फलं नरः॥

-पंचाध्यायी

(नरः) मनुष्य (नूनं) निश्चय से (औदायं त्याग सेवानाँ) उदारता त्याग और सेवा के (व्यवहारनः) व्यवहार से (ग्रहस्थे आश्रमे अपि) ग्रहस्थ आश्रम में भी (सन्यासस्य) संन्यास के (फलं) फल को (प्राप्नुते) प्राप्त होता है।

“त्याग सेवा और उदारता का व्यवहार करने से गृहस्थ में संन्यास का फल प्राप्त होता है।” इन शब्दों के अंतर्गत पूर्ण सत्य का ऐसा अमृत तत्व छिपा हुआ है कि यदि हम लोग उसे समझ लें तो अपनी वर्तमान परिस्थितियों को ही स्वर्ग समान आनन्ददायक बना सकते हैं। देखा जाता है कि हमारे घर क्लेश कलह, कपट, छिद्रान्वेषण, अविश्वास और असन्तोष से भरे रहते हैं। बहू की सास, ननद, देवरानी, जिठानी से नहीं पटती। भाई-भाई में अनबन रहती है। सास को देखिये तो वह बहू-बेटों का रोना रोती मिलेगी। पिताजी अपने बेटों को कुपुत्र घोषित करते फिरते हैं। लड़के समझते हैं पिताजी की बुद्धि सठिया गई है। घर में बुजुर्गों का आदर सत्कार तो दूर रहा जहाँ अपमान न होता हो वहीं सौभाग्य समझना चाहिए। पैसे के सम्बन्ध में आपापूती का बोलबाला रहता है, जिसके हाथ जो पड़ता है उसे हथियाने की कोशिश करता है, कुटुम्ब के सम्मिलित धन में से चुरा कर अपना निज संग्रह करना, अपनी कमाई का एक अंश अपने लिए बचा लेना, हिसाब को उलटा-सुलटा बताना इस प्रकार के आचरण अक्सर हमारे कुटुम्बियों में देखे जाते हैं। कहने को तो सम्मिलित खानपान रहता है पर घर के चतुर व्यक्ति बाजार में जाकर चुपचाप अपनी इच्छाओं को तृप्त करते हैं। कुटुम्बियों की दृष्टि बचा कर जो पैसा कमाया है वह ससुराल से स्त्री को मिला, मैंने अमुक प्रकार अतिरिक्त परिश्रम से कमाया, कह कर निजी अधिकार में कर लिया जाता है। एक ओर तो कमाने वालों की यह मनोवृत्ति होती है, दूसरी ओर न कमाने वाले या कम कमाने वाले वैसी सुविधा प्राप्त नहीं कर पाते, इनमें से कोई-कोई तो अपने भोले होने के कारण साधारण व्यवहार से भी वंचित रह जाते हैं, नतीजा यह होता है कि वे मन ही मन कुढ़ने, जलने-भुनने, लगते हैं। भले ही वे कारणवश मुँह से विरोध प्रकट न करें पर अन्तर में इतना घोर असन्तोष धारण किये रहते हैं जिसकी ज्वाला में प्रेम का रस सहज ही सूख जाता है। ऐसे कितने घर हैं जिसमें सम्मिलित कुटुम्ब के सब सदस्य आपस में सच्चा प्रेम करते हों, एक दूसरे पर जान देते हों, और कोई किसी से असन्तुष्ट न हो।

सौ में से नब्बे पिचानवे घर ऐसे मिलेंगे जो कहने को तो सम्मिलित कुटुम्ब गिने जाते हैं पर उनकी आन्तरिक व्यवस्था में घोर अराजकता फैली हुई होती है। गृह-युद्ध है ज्वालामुखी भीतर ही भीतर सुलगता रहता है और इस बात की सदैव आशंका बनी रहती है कि कहीं भयंकर विस्फोट न हो जाय, नाशकारी गदर न मच जाय, आये दिन ऐसे समाचार कानों से टकराया करते हैं कि अमुक भाई-भाइयों में मारपीट हो गई अमुक व्यक्ति अपनी स्त्री को लेकर अलग हो गया, अमुक लड़का अपने पिता को बुरी-बुरी गालियाँ दे रहा है, अमुक सास बहुओं में खूब बजी, अमुक विधवा भाग गई, अमुक पति-पत्नी में देवासुर संग्राम मचा हुआ है। आत्महत्याओं में तीन चौथाई से अधिक भाग गृह जीवन से दुखी व्यक्ति होते हैं, साधु संन्यासियों में मुश्किल से पाँच फीसदी ऐसे मिलेंगे जो सच्चे स्थायी हैं, अन्यथा तो पारिवारिक जीवन की कटुता ही प्रायः उन्हें एकाकी जीवन बिताने के लिये प्रोत्साहित करती है। अखबार के पन्ने खोलते ही “गुमशुदा की तलाश” का एक-दो विज्ञापन दिखाई पड़ जाता है, उसमें लिखा होता है कि “अमुक लड़का घर से भाग गया है, जो उसे तलाश करके घर पहुँचावेगा, उसे मार्ग व्यय के अतिरिक्त इतनी रकम इनाम दी जायगी।” यह गुमशुदा भगोड़े अक्सर पारिवारिक जीवन से असंतुष्ट होकर भागते हैं। व्यभिचार की जो लहर बड़ी तेजी से बढ़ती चली आ रही है, उसकी तह में भी ऐसे ही कारण होते हैं, जिनके कारण असंतुष्ट व्यक्ति व्यभिचार करने पर उतारू हो जाता है।

सम्मिलित कुटुम्ब’ वास्तव में एक बड़ा ही उच्च आदर्शमय जीवन है। विश्वबन्धुत्व की-लोक सेवा की-वैरागी जीवन की-संन्यास की मुक्ति साधना की-आरंभिक तपोभूति इस प्रथा को निस्संकोच कहा जा सकता है। दूसरे देशों में लड़का सयाना होते ही बहू को साथ लेकर पक्षी की तरह अलग घोंसला बना लेता है और माता-पिता से अपना सम्बन्ध त्याग देता है। कहते हैं कि-”न्यारा पूत पड़ौसी जैसा!” माँ-बाप से अलविदा होकर लड़के ने अपनी गृहस्थी अलग बसा ली, फिर उनके बीच एक बहुत ही पतला-लोक दिखावे का सम्बन्ध सूत्र रह जाता है। आज पाश्चात्य देश पृथक कुटुम्ब प्रथा के सुखों और सुविधाओं को भली प्रकार प्रकट करते हैं, वे साबित कर देते हैं, कि जितना ही छोटा कुटुम्ब होगा, उतना ही वह सूखी स्वतन्त्र एवं उन्नतिशील होगा। भौतिक दृष्टि से उनकी बात मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं हैं, एक दूसरे पर गुर्राने वाले कबूतरों का भरा दरबार सदा दुख-दारिद्र का ही घर बना रहेगा, जब कि एक-एक जोड़ा तीतर आनन्द की किलकारियाँ मारता फिरता है और अपना गौरव प्रकट करने का अवसर पाता है। हमारे बुद्धिमान पूर्वज इन लाभों से अपरिचित नहीं थे, जिन सुख और सुविधाओं को आज नवीन सभ्यताभिमानी महानुभाव पृथक कुटुम्ब के पक्ष में रख रहे हैं, उन्हें भारतीय सुखदर्शी भली भाँति समझते थे। परन्तु उन्होंने “बड़ी के लिए छोटी का त्याग“ की महत्वपूर्ण नीति को अपना कर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। आपके पास चाँदी की एक भारी सिल हो, परन्तु रास्ते में उससे भी भारी सोने की सिल पड़ी मिल जाए, उस सुनसान मार्ग में साथी कोई हो नहीं, तो निश्चय ही आप चाँदी को फेंक कर सोना ले चलना पसन्द करेंगे। कम लाभ का व्यापार होते हुए भी यदि अधिक लाभ का व्यापार प्राप्त होता हो तो निश्चय ही चतुर व्यापारी पहले व्यवसाय को छोड़ कर अधिक लाभ का रोजगार ग्रहण करता है। पृथक कुटुम्ब बसने में सुविधाएं हैं पर वे इतनी नहीं हैं, जितनी कि सम्मिलित कुटुम्ब में।

संघशक्ति की प्रबलता को वे लोग जानते हैं, जो 1 और 1 मिल जाने पर 11 बन जाने का अनुभव कर चुके हैं। प्राणी की शारीरिक और मानसिक रचना ऐसी अद्भुत है कि जितने अधिक लोग एक समूह में बढ़ते जाते हैं, उसके अनुपात से दस गुनी शक्ति बढ़ जाती है। एक आदमी यात्रा करने में थकान का अनुभव करता है, पर दो व्यक्ति साथ-साथ चलें, तो थकान नहीं व्यापती, उत्साह बना रहता हैं और दूना काम हो जाता है। चले दोनों अपने-अपने पावों से, पैसा दोनों ने अपना-अपना खर्च किया। दोनों के स्वार्थ अलग-अलग हैं, परन्तु केवल कार्यक्रम में एकता हो जाने के कारण यात्रा की सुविधाएं कई गुनी बढ़ गई। सिनेमा, सरकस एक दिन आप अकेले अकेले चुपचाप चले जाइये और देख आइये, दूसरे दिन दो मित्रों के साथ जाइये, फिर पहले दिन के मनोरंजन का मुकाबला कीजिए, दोनों में कई गुना अन्तर मिलेगा। पैसा सब ने अपने-अपने पास से खर्च किया, देखा भी अपनी-अपनी अलग आँखों से, परन्तु एक की खुशी दूसरे की खुशी में मिल कर कई गुनी हो गई। इस प्रकार खुशी का फव्वारा फूट निकला। बड़ी सेना में सम्मिलित सैनिक की, सहभोज में भोजन करने वाले की, सामूहिक प्रार्थना करने वाले की, प्रसन्नता, आशा और स्फूर्ति कितनी होती है, इसका अनुमान वे लोग नहीं कर सकते जो अकेले या थोड़े लोगों के बीच रह कर गुजारा करते हैं। सामूहिक आश्रम में एक ऐसी विद्युत के प्रत्येक व्यक्ति के आन्तरिक आनन्द को मानसिक विकास को कई गुना बढ़ा देता है। यह ठीक है कि मियाँ-बीबी की जोड़ी मौज से रह सकती है, परन्तु जो स्वर्गीव आनन्द भाई, बहिन, भावज, भतीजे, चाचा, चाची, माता, पिता, दादी तथा छोटे-छोटे बाल बच्चों के भरे−पूरे घर में आता है, भला ‘अकेले-शूकरें’ लोगों को कहीं स्वप्न में भी प्राप्त हो सकता है?

लेकिन वह स्वर्गीय आनन्द तभी प्राप्त हो सकता है, जब त्याग, सेवा और उदारता का उसमें भरपूर समावेश हो, अन्यथा दुख दारिद्र से भरा अंधेरा कबूतर खाना ही वह कुटुम्ब रहेगा। अगले अंक में पाठक पढ़ेंगे कि उपरोक्त तीन महान आदर्शों को कितनी सुगमतापूर्वक गृहस्थ जीवन में व्यवहृत किया जा सकता है और घर की तपोभूमि में योग साधना करते हुए संन्यास का अमर फल प्राप्त किया जा सकता है।


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