ईश्वर और जीव

October 1942

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(श्री लक्ष्मीनारायण जी गुप्त कमलेश’ मौदहा)

एक पुरुष ने एक महात्मा से प्रश्न किया कि ‘आप लोग कहते हैं-ईश्वर और जीव में भेद नहीं हैं, दोनों एक ही आत्मा हैं। तब फिर ईश्वर में जो सर्वव्यापक गुण हैं, वे जीव में क्यों नहीं हैं?

महात्मा ने प्रश्न सुनकर कहा-हमको, प्यास लगी है और गंगाजल की ही हर पीते हैं। गंगा जी हमारी कुटी से दो मील के फासले पर है, प्रथम तुम जाकर गंगाजी से जल तो ले आओ। असली गंगाजल ही लाना, कूप का जल न लाना। जब हम गंगाजल पान कर लेंगे तब तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे।

यह पुरुष महात्मा की तूँबड़ी लेकर गंगा जी से जल भर लाया और महात्माजी के सामने रखकर कहा-’लीजिये, गंगाजल को मैं भर लाया हूँ। महात्मा तूँबड़ी के जल को देखकर कहने लगे-’यह तो गंगाजल नहीं हैं।’

उसने कहा - ‘यह गंगाजल ही है।’

महात्मा ने कहा -’हम कैसे विश्वास करें, कि यह गंगाजल ही है?

वह पुरुष गंगाजल की पुष्टि में कसमें खाने लगा। महात्मा ने कहा-’तुम तो सच कहते हो, परन्तु गंगाजी में पचासों नावें चलती हैं, हजारों जल जीव बसते हैं, बड़ी-बड़ी लहर उठती हैं और करोड़ों मछलियाँ रहती हैं, लाखों मनुष्य जिसमें स्नान करते रहते हैं, उनमें से तो एक भी इसमें नहीं दीखता हैं। सैकड़ों पर्वत, वृक्ष तथा नगर एवं ग्राम उसके किनारे पर हैं, किन्तु यहाँ कुछ भी नजर नहीं आता, तब हम कैसे जान लें कि यह गंगाजल ही है!’ उस पुरुष ने कहा-’वह बड़ा भारी गंगाजी का प्रवाह है, जिसके किनारे पर हजारों नगर और पर्वतादि हैं, यह थोड़ा सा उसी प्रवाह का हिस्सा है, इसमें वह सब कैसे रह सकते हैं? मैं जो लाया हूँ, वह गंगाजल ही है और जो माधुर्य उस बड़े प्रवाह में है वही इसमें हैं, अन्तर केवल यही है कि गंगाजी की भाँति सब दृश्य इसमें उपस्थित नहीं हो सकता!’

महात्मा ने कहा-यही तेरे प्रश्न का उत्तर है। इसी तरह तू ईश्वर और जीवात्मा में घटा लें। जीवात्मा की उपाधि अन्तःकरण है, वह छोटी सी उपाधि है और ईश्वरात्मा की उपाधि माया है वह सारे ब्रह्माण्ड में फैली हुई है। ईश्वरात्मा गंगाजी के बड़े प्रवाह के समान है और जीवात्मा इस छोटी तूँबड़ी के जल को तरह। इसी कारण ईश्वर में सर्वत्रतादिक धर्म रहते हैं, जीवात्मा में नहीं रहते, परन्तु सुखरूपता दोनों में बराबर ही है, नियत्व और चेतनात्वादिक धर्म भी दोनों में बराबर ही हैं। इसी से सिद्ध होता है कि, जीवात्मा और ईश्वरात्मा का बिलकुल भेद नहीं है।

तुमको दूसरा कोई अच्छी सलाह दे, तो तुम्हारा सुनना व्यर्थ है। तुम किन्तु अपनी आत्मा की सलाह से ही काम करते रहो, कभी धोखा नहीं खाओगे।


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