जन्म और जाति

October 1942

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लोकस्तु जन्मना सर्वः शूद्र एवाभिजायते। संस्कारैरभिजायन्ते पश्चात्सर्वे द्विजातयः॥

-पंचाध्यायी।

(जन्मना) जन्म से (तु) तो (सर्वः) सम्पूर्ण (लोकः) संसार (शूद्रः) शूद्र (एव) हि (अभिजायते) होता है। (पश्चात्) बाद में (संस्कारैः) संस्कारों से (सर्वे) सब लोग (द्विजातयः) द्विज (अभिजायन्ते) होते हैं।

शास्त्र का अभिमत है कि जन्म से तो सभी वर्ण शूद्र होते हैं, किन्तु पीछे संस्कारों से द्विज बन जाते हैं। द्विज शब्द ही इस अर्थ का बोधक है कि इस व्यक्ति का दो बार जन्म हुआ है। मामूली हिन्दी पढ़े-लिखे व्यक्ति भी जानते हैं कि ‘द्वि’ अर्थात् दो बार ‘ज’ अर्थात् जन्म, जिसका दो बार जन्म हो वह द्विज। षोडश संस्कारों की भारतीय प्राचीन प्रथा के अंतर्गत यही रहस्य छिपा हुआ है कि पशु को मनुष्य बनाने के लिए उसकी आरम्भ से ही देखभाल रखी जाय। आज गर्भाधान, सीमन्त, पुँसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन आदि संस्कारों का चिन्ह पूजा मात्र कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होती है, परन्तु पूर्व काल में ऐसा न था। बालक के गर्भ प्रवेश करने से पूर्व ही माता-पिता इस बात की चिन्ता करते थे कि इसे अपने परिश्रम द्वारा सुसंस्कृत द्विज बनावें, क्योंकि वे जानते थे कि यदि ऐसा न किया जा सका, तो बालक शूद्र का शूद्र ही रह जायगा। जन्म से तो मनुष्यों की एक ही जाति है, पर उसका श्रेणी विभाजन कर्मों के अनुसार होता है। घोड़ा, गधा, गाय, भैंस, कबूतर, बतख, मोर आदि की अलग-2 जातियाँ इसलिए हैं कि उनकी आकृति, बनावट, खुराक, कार्य, रुचि में अन्तर है। गधों की शारीरिक बनावट अन्य पशुओं से एक अलग प्रकार की है, इसलिए उनकी एक स्वतन्त्र जाति हुई। इसी प्रकार अन्य पशु पक्षी भी अपनी-अपनी शरीर रचना के आधार पर एक विशेष जाति वाले कहलाते हैं। संसार के सम्पूर्ण मनुष्यों की शरीर रचना एक ही प्रकार की है, इसलिए वे सब मनुष्य जाति के ही कहला सकते हैं। उपभेदों की बारीकी में यहाँ हम नहीं आना चाहते, जैसे अरबी, तुर्की आदि घोड़े और नागौरी, मद्रासी आदि बैलों में उपभेद होते हैं। आर्य, मंगोल आदि उपभेद मनुष्यों में भी हैं, किन्तु उपभेदों के कारण मूल जाति में कोई अन्तर नहीं आता। स्थान भेद के कारण साँपों के रंग रूप में अन्तर आ सकता है, उनका उपभेद हो सकता हैं, पर जाति तो सर्प ही रहेगी। काले, पीले, लाल, भूरे सभी प्रकार के मनुष्यों की एक जाति रहेगी।

यह मानने में भी कुछ आपत्ति नहीं है कि, प्रकृत रूप से मनुष्य एक प्रकार का पशु ही है। वाशिंगटन के वैज्ञानिक ब्रेविन ने अपने तत्वाधान में कुछ मानव शिशुओं को एकान्त स्थान में इस प्रकार पाला कि बाहरी दुनिया के बारे में वे कुछ न जान सकें। यह बालक बड़े होने पर जब जवान हुए, तो आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि पशु तुल्य योग्यताओं के अतिरिक्त और उन्हें कुछ भी ज्ञान न था। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक आदि किसी नियम के बारे में वे कुछ भी नहीं जानते थे। अफ्रीका से एक बार एक मादा भेड़िया दो मनुष्य बालकों को उठा ले गई, उस ने उन्हें मारा नहीं, बल्कि अपना दूध पिला कर बड़ा कर लिया। एक शिकारी ने उस मादा भेड़िये को मार कर उन मनुष्यों को पकड़ा। विचारवानों की एक समिति ने अनेक प्रकार परीक्षा की, पर उन्हें मानवोचित ज्ञान से सर्वथा अपरिचित पाया। हाँ, उनने अपनी भेड़िया दाई से जो सीखा था, उसे जानते थे-हाथ और पाँवों के बल भेड़ियों की तरह वे चलते थे, जीवित जानवरों को हाथ और दाँतों की सहायता से मार कर खा जाते थे। असभ्य, जंगली और अशिक्षित लोगों की सन्तानें भी करीब-करीब अपने निकटस्थ समाज की मर्यादा में ही न्यूनाधिक ज्ञान रखती है। जंगली भील का लड़का अपने कुटुंबियों के समान शिकार मारने की योग्यता तो ज्यादा या कम मात्रा में रख सकता है, पर बौद्ध दर्शन शास्त्र के बारे में उसका ज्ञान बिल्कुल शून्य होगा, क्योंकि उस प्रकार के वातावरण का संस्कार उस तक नहीं पहुँचा। ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत अब भी ऐसी अनेक व्यक्ति पाये जाते हैं, जो यह नहीं जानते कि उनका राजा कौन हैं, कारण इस तरह की चर्चा उन तक पहुँच नहीं पाई। मनुष्य में अनुकरण शक्ति, समझने की शक्ति, तर्क शक्ति, विकास शक्ति अद्भुत हैं, पर उसका विकास तो तभी हो सकता है, जब उस विषय का बाह्य ज्ञान प्राप्त हो। अन्यथा कैसी ही तीव्र बुद्धि वाला व्यक्ति क्यों न हो, अपरिचित विषय में जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता। यह हो सकता है कि जीवनोपयोगी समस्याओं को सुलझाने की निरन्तर इच्छा होने से मनुष्य बिना बाह्य सहायता के भी कुछ आविष्कार करे, पर वह बहुत ही अधूरे होंगे और बड़ी धीमी गति से आगे बढ़ेंगे। शरीर को सर्दी-गर्मी से बचाने की गुत्थी को सुलझाते हुए पत्ते, वृक्षों की छाल, पशु चर्म, बालों का नमदा, कपास का गद्दा, रस्सियों का जाल बनाते-2 आधुनिक वस्त्रों तक पहुँचने में करोड़ों वर्षों का लम्बा जमाना व्यतीत हो गया, पचासों पीड़ियाँ इस आविष्कार के बारे में सोचती रहीं, तब एक व्यवस्थित चीज़ पा सकी। इस तरह का क्रमिक विकास हो सकता है, पर जितना ज्ञान आज मनुष्य समाज को उपलब्ध है, वह शिक्षा के द्वारा ही स्वल्प काल में प्राप्त किया जा सकता है। बिना सामाजिक सहायता के अकेला मनुष्य यदि ज्ञान प्राप्त करना चाहे, तो उसे असम्भव ही कहा जायगा।

हमारा तात्पर्य यह कहने का है कि मनुष्य जन्म से ही कुछ ज्ञान लेकर नहीं आता, वरन् जिस समाज में रहता है, वैसे ही संस्कारों से प्रभावित हो कर निर्माण करता है। कसाई का बालक पशु वध देखकर विचलित नहीं होगा, पर ब्राह्मण का बालक उस रक्तपात को देख कर घबरा जायेगा। यदि एक ही माता के दो बालकों को अलग-अलग रख कर एक को माँसाहार कराया जाय और दूसरे को माँस से घृणा कराई जाय, तो दोनों वैसे ही बन जायेंगे। एक योरोपियन व्यक्ति अपनी कुमारी बहिन या बेटी को उसके अन्तरंग मित्रों के साथ देखकर बुरा नहीं मानेगा, परन्तु भारतीय व्यक्ति होकर मरने मारने पर उतारू हो जायगा कारण वह है कि दोनों ने अपने 2 विचारों का निर्माण विपरीत परिस्थितियों में किया हैं, इसलिए उनके विश्वास और भाव भी भिन्न हैं। यदि स्वभावतः ही सब को ज्ञान होता, तो सब लोगों के एक से ही विचार और विश्वास होते, परंतु ऐसा होता नहीं। हम देखते हैं कि मनुष्यों में आपसी मतभेद बहुत है। सभी पक्ष अपनी-2 मान्यता को ठीक समझते हैं। इस पेचीदगी पर मनोवैज्ञानिक विधि से दृष्टिगत करने पर प्रतीत होता है कि बालक आरम्भ में एक गीली मिट्टी के गोले के समान होता है, उसे अपने चारों और जैसा ढांचा मिल जाता है, वह उसी में ढल जाता है। उसके विचार और विश्वास वैसे ही बन जाते हैं और यह सब उसे इतने प्रिय एवं अभ्यस्त हो जाते हैं कि, सभ्यता तथा संस्कृति का ऊँचा नाम देकर उनकी रक्षा करता है। अनेक सभ्यता और संस्कृतियों की दुहाई हम चारों ओर सुनते हैं, इससे प्रतीत होता है कि ये वस्तु प्राकृतिक नहीं हैं, परन्तु पीछे बनी हुई हैं। यदि ईश्वर प्रदत्त होती, तो जैसे सब घोड़े घास खाते हैं, वैसे ही सब लोगों के विचार एक ही समान होते।

जन्म से सब शूद्र हैं- यह एक सच्चाई है, जिसे निष्पक्ष नेत्रों से हम अपने चारों और बिखरी हुई देख सकते हैं। एक सी मानसिक योग्यता वाले दो बालकों में से एक को घसियारे के यहाँ छोड़ दिया जाय और दूसरा पण्डित के यहाँ रहे, तो बड़ा होने पर पण्डित की संरक्षता वाला शास्त्री हो जायगा, किन्तु गसियारा बेचारा उन्नति करने पर भी लकड़हारा ही हो सकता है। परिस्थितियों से, शिक्षा से, प्रभाव से, वातावरण से, संगति से, मनुष्य का निर्माण होता है इस सत्य को भारतीय तत्व वेत्ता पूर्व काल से ही स्वीकार करते आ रहे हैं, इसलिए उन्होंने जन्म काल से पूर्व से ही उस बालक पर संस्कार डालने की ओर सतर्कतापूर्वक व्यवस्था बनाई थी। जिसका बालक कुसंस्कारी हो जाता था, उसके माता-पिता, शिक्षक एवं अभिभावकों को लज्जित होना पड़ता था। कुपुत्र से माता कहती थी-”मेरी कोख लजाई” पिता कहता था-”मेरा नाम डुबोया।” इन शब्दों में वे स्वीकार करते हैं कि हमने बालक को सुसंस्कृत करने में लज्जाजनक भूल की है। यदि बालक की भूल समझी जाती, तो माता कहती ‘तूने अपने को लज़ाया’ पिता कहता-’तूने अपना नाम डुबोया’ परन्तु ऐसा नहीं कहा जाता, क्योंकि सचाई को अन्ततः स्वीकार करना ही पड़ता हैं।

बालक जब तक कि स्वयं विचारशील नहीं हो जाता, अपनी भलाई-बुराई नहीं समझने लगता तर्क नहीं करने लगता, अपनी जिम्मेदारी अनुभव नहीं करने लगता, तब तक उस का निजी स्थायित्व स्वीकार नहीं किया जाता। नाबालिगों को राजदरबार में शूद्र माना जाता है, उनकी बुद्धि को कच्ची और नासमझ माना जाता है। नाबालिग के हाथ के दस्तावेज सही नहीं माने जाते। सम्पत्ति, विवाह, वोट, जमानत के मामलों में उसे अछूत समझा जाता है। जैसे मन्दिर में शूद्रों का पदार्पण नहीं होता, वैसे ही जहाँ समझदारी का प्रसंग हैं, विवेक विचार का विवेचन है, वहाँ नाबालिग को अन्त्यज घोषित कर दिया जाता है। ठीक भी है, बिना परिपूर्णता आये, बिना विश्वस्तता का प्रकटीकरण हुए, क्योंकर उत्तरदायी कार्यों का बोझ उसे दिया जा सकता हैं?

पाठक समझ गये होंगे कि ‘जन्म से जब शूद्र हैं’ कहने का क्या अभिप्राय है। पत्थर पड़ा हुआ है, जब तक संस्कारित होकर वह मूर्ति न बन जाय, कौन उसकी पूजा करेगा? बिना मोती की सीप को जौहरी क्यों खरीदेगा? बिना ज्ञान, बुद्धि, चरित्र और योग्यता के कौन मनुष्य द्विज कहा जायगा? यदि द्विज कहा भी जाय तो कागज के हाथी के समान उपहास का ही साधन बनेगा। निःसन्देह जन्म से तो गीली मिट्टी के समान सभी मनुष्य ज्ञान रहित शूद्र हैं, पीछे वे जिस साँचे में ढलकर ये बाहर निकलते हैं, जिन संस्कारों से परिपूर्ण होते हैं, उन्हीं के अनुसार पद पाते हैं।

शूद्र को द्विज बनाने वाले संस्कार क्या हैं और वे किस प्रकार एक ही आकृति वाले प्राणियों को चार वर्णों में विभक्त कर देते हैं, इसका विस्तृत परिचय पाठकों को अगले अंक में मिलेगा।


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