अपराध और दण्ड

October 1942

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(श्री मंगलचन्दजी भंडारी, अजमेर)

एक बार एक ही अपराध के चार अपराधी पकड़ कर राजा के सामने उपस्थित किये गये। राजा ने एक को बिना कुछ कहे छोड़ दिया, दूसरे को लानत मलामत देकर छोड़ दिया, तीसरे को दस बेंतों की सजा दी और चौथे को काला मुँह करे गधे की सवारी पर शहर में चारों और घुमवाया।

दूसरे दिन दरबार के एक सरदार ने पूछा-महाराज! एक ही अपराध के व्यक्तियों को अलग प्रकार की सजा क्यों? राजा में कहा तुम्हारे प्रश्न का उत्तर पीछे दूँगा। पहले तुम एक काम करो, नगर में जाकर पता लगाओ कि वे चारों क्या कर रहे हैं। सरदार राजा की आज्ञानुसार पता लगाने के लिए चल दिया।

उसने देखा कि जिसे बिना कुछ कहे छोड़ दिया था वह एक उच्च घराने का युवक था, शर्म के मारे उसने आत्महत्या कर ली। दूसरा जिसे लानत मलामत की गई थी, वह भी सुशिक्षित घर का था लज्जा के मारे शहर छोड़ कर दूसरी जगह चला गया। तीसरा जिसे बेंत लगे थे मध्यवृत्ति का व्यक्ति था, आत्मग्लानि के कारण लोगों से मुँह छिपाये रहता था, अपराध करना बिलकुल छोड़ दिया था और अब भलमनसाहत से गुजारा चला रहा था। चौथा जिसे गधे पर घुमाया गया था, निर्लज्जता पूर्वक बाजार में ऐंठा-ऐंठा फिर रहा था और फिर उसी अपराध की तैयारी में प्रवृत्त था।

चारों का हाल सरदार ने राजा से कह सुनाया तब राजा ने कहा-मेरे दण्ड में जो अन्तर था, वह अपराधियों की मनोभूमि के अनुरूप था। दंड देने का उद्देश्य बदला लेना नहीं, वरन् सुधार करना है। रोगों की स्थिति देखकर दवा की मात्रा करने वाला वैद्य अन्यायी नहीं वरन् क्रियाकुशल कहा जाता है।

हरि चर्चा लेख-माला-


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