(श्री मैथिलीशरण जी गुप्त)
दोनों ओर प्रेम पलता है!
सखि, पतंग भी जलता है, और दीपक भी जलता है।
शीश हिलाकर दीपक कहता,
बन्धु, वृथा ही तू क्यों दहता,
पर पतंग पड़ कर ही रहता,
कितनी विह्वलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है॥ 1॥
बचनकर हाय, पतंग मरे क्या,
प्रणव छोड़ धरे बचा,
जले नहीं तो मरा करे क्या,
क्या यह असफलता है।
दोनों और प्रेम पलता है॥ 2॥
कहता है पतंग मन मारे,
तुम महान मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है ॥ 3॥
दीपक के जलने में आली,
फिर भी है जीवन की लाली,
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली,
किस का वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है ॥ 4॥
जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती, जिससे चखती,
काम नहीं, परिणाम निरखती,
मुझे यही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता पलता है॥ 5॥
-साकेत