दैविकं दैहिकं चापि भौतिकं च वथैव हि।
आयाति म्वयमाहूतो दुःखानामेष संचयः॥
-पंचाध्यायी।
(दैविकं) दैविक (अपिच) और (दैहिकं) दैहिक (तथैव हि) उसी प्रकार (च) और (भौतिकं) भौतिक (दुःखानाँ) दुखों का (एव) यह (संचयः) समूह (स्वयभाहूतः) अपने आप बुलाया हुआ (आयति) आता है।
अनेक बार ऐसे अवसर आ उपस्थित होते हैं जो प्राकृतिक नियमों के बिलकुल विपरीत दिखाई देते हैं। एक मनुष्य उत्तम जीवन बिताता है पर अकस्मात् उसके ऊपर ऐसी विपत्ति आ जाती है मानो ईश्वर किसी घोर दुष्कर्म का दण्ड दे रहा हो। एक मनुष्य बुरे से बुरे कर्म करता है पर वह चैन की बंशी बजाता है सब प्रकार के सुख सौभाग्य उसे प्राप्त होते हैं। एक निठल्ले को लाटरी में जुआ से या कहीं गढ़ा हुआ धन मिल जाता है किन्तु दूसरा अत्यन्त परिश्रमी और बुद्धिमान मनुष्य अभाव में ही ग्रसित रहता है। एक व्यक्ति स्वल्प परिश्रम में ही बड़ी भारी सफलता प्राप्त कर लेता है दूसरा घोर प्रयत्न करने और अत्यन्त सही तरीका पकड़ने पर भी असफल रहता है। ऐसे अवसरों पर ‘प्रारब्ध’ ‘भाग्य’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है। इसी प्रकार महामारी, बीमारी, अकाल मृत्यु, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बिजली गिरना, भूकम्प, बाढ़ आदि के दैवी प्रकोप भी भाग्य-प्रारब्ध कहे जाते हैं। आकस्मिक दुर्घटनायें, मानसिक आपदा, वियोग आदि वे प्रसंग जो टल नहीं सकते इसी श्रेणी में आ जाते हैं।
यह ठीक हैं कि ऐसे प्रसंग कम आते है, प्रयत्न से उलटा फल होने को-आकस्मिक घटना घटित हो जाने के अपवाद चाहे कितने ही कम क्यों न हों, पर होते जरूर हैं। और वे कभी-कभी ऐसे कठोर होते हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे अवसरों पर हममें से साधारण श्रेणी का ज्ञान रखने वाले बहुत ही भ्रमित हो जाते हैं और ऐसी-ऐसी धारणा बना लेते हैं जो जीवन के लिए बहुत ही घातक होती हैं। कुछ लोग तो ईश्वर पर अत्यन्त कुपित होते हैं, उसे दोषी ठहराते हैं और भरपूर गालियाँ देते हैं, कई तो नास्तिक हो जाते हैं कहते हैं कि हमने ईश्वर का इतना भजन पूजन किया पर उसने हमारी कुछ भी सहायता नहीं की ऐसे ईश्वर को पूजना व्यर्थ है, कई महानुभव लाभ की इच्छा से साधु संत देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। यदि संयोग वंश इसी बीच में कुछ हानिकर प्रसंग आ गये तो उस पूजा के स्थान पर निन्दा करने लगते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि ऐसे आकस्मिक प्रसंग आने के समय ही यदि घर में कोई नया प्राणी आया हो, कोई पशु खरीदा हो, बालक उत्पन्न हुआ हो, नई बहू आई हो तो उस घटना का दोष या श्रेय उस नवागन्तुक प्राणी पर थोप दिया जाता है यह नया बालक बड़ा भाग्यवान हुआ जो जन्मते ही इतना लाभ हुआ, यह बहू बड़ी अभागी आई कि आते ही सत्यानाश कर दिया इस श्रेयदान या दोषारोपण के कारण कभी-2 घर में ऐसे दुखदायी क्लेश कलह उठ खड़े होते हैं कि उनका स्मरण होते ही रोमांच हो जाता हैं। हमारे परिचित एक सज्जन के घर में नई बहू आई उन्हीं दिनों घर का एक जवान लड़का मर गया। इस मृत्यु का दोष बेचारी नई बहू पर पड़ा। सारा घर यही तानेजनी करता- यह बहू बड़ी अभागी आई है आते ही एक बलि ले ली। कुछ दिन तो इन अपमानों को बेचारी निर्दोष लड़की विष के घूँट की तरह पीती रही पर जब हर वक्ता का अपमान, घर वालों का नित्यप्रति का दुर्व्यवहार सहन न कर सकी तो मिट्टी का तेल छिड़क कर जल मरी। बेचारी निरपराध विधवाओं को अभागी, कलमुँही, डायन की उपाधि मिलने का एक आम रिवाज है। इसका कारण भाग्यवाद के सम्बन्ध में मन में जमी हुई अनर्थमूलक धारणा है। सही बात को न समझने के कारण लोगों के हृदयों में ऐसे ऊट पटाँग विश्वास घर जमा लेते हैं, अनेक व्यक्ति तो भाग्य की वेदी पर कर्तव्य को भी बलि चढ़ा देते हैं उनका विश्वास होता है कि इस जीवन में जो भी हानि-लाभ होगी वह भाग्य के अनुसार होगी। अब जो कर्म किये जा रहे हैं उनका फल अगले जन्म में भले मिले पर यह जीवन तो प्रारब्ध के रस्सों में ही अकड़ा हुआ है। जब उपाय करने, प्रयत्न या उद्योग करने की बात चलती है तो वे यही कहते हैं जो भाग्य में लिखा होगा सो होगा, ब्रह्मा की लकीर को कौन मेट सकता है, जो ईश्वर को करनी होगी वह होकर रहेगी, होनी बड़ी प्रबल है इन शब्दों का प्रयोग वास्तव में इसलिये है कि जब आकस्मिक दुर्घटना पर अपना बस नहीं चलता और अनहोने प्रसंग सामने आ खड़े होते हैं जो मनुष्य का मस्तिष्क बड़ा विक्षुब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। सामने कोई दोषी तो दिखाई नहीं पड़ता पर आघात लगने के कारण दोष आता ही है। आवेश में बुद्धि ठिकाने नहीं रहती संभव है कि वह दोष किसी निर्दोष पर बरस पड़े और अनर्थ उपस्थित कर दे। इसलिये उस क्षोभ को शान्त करके किसी प्रकार सन्तोष धारण किया जा सके। परन्तु हम देखते हैं कि आज अनेक व्यक्ति उस आपत्तिकाल के मनसमझाव को कर्तव्य के ऊपर कुल्हाड़ी की तरह चलाते हैं। होते-होते यह लोग उद्योग के विरोधी हो जाते हैं और अजगर और पक्षी की भाँति उपमा देकर भाग्य के ऊपर निर्भर रहते हैं। यदि यह सज्जन बड़े-बूढ़े हुये तो अपने प्रभाव से निकटवर्ती अल्पज्ञान वाले तरुणों और किशोरों को भी इसी भाग्यवाद की निराशा के दलदल में डाल देते है।
पाठक समझे होंगे कि आकस्मिक घटनाओं के वास्तविक कारण की जानकारी न होने से कैसी-कैसी अनर्थ कारक ऊट पटाँग धारणायें उपजती हैं और वे लोगों के मनों में जब गहरी घुस बैठती हैं तो जीवन प्रवाह को कैसा उलटा, विकृत एवं बेहूदा बना देती हैं। मनुष्य जाति ‘कर्म की गहन गति’ को चिरकाल से जानती है, और उसके उन कारणों को जानने के लिये चिरकाल से प्रयत्न करती रही है। उसके कई हल भी अब तक तत्वदर्शियों ने ढूँढ़ निकाले हैं। पंचाध्यायीकार ने उपरोक्त श्लोक में ‘गहना कर्मणोगतिः’ पर प्रकाश डालते हुये यह बताया है कि यह दैविक, दैहिक और भौतिक घटनायें, तीन प्रकार के आकस्मिक सुख-दुख, संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों के आधार पर होते हैं। दूध एक नियत समय में एक विशेष प्रक्रिया द्वारा घी बन जाता है इसी प्रकार विविध कर्म भी तीन प्रकार के फलों को उत्पन्न करते हैं। वे आकस्मिक घटनायें किस तरह उत्पन्न करते हैं इसका पूरा, विस्तृत, एवं वैज्ञानिक विवेचन जानने के लिए पाठकों को अगले अंक की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
धर्म तत्व निरूपण लेखमाला-