सत्य की अनन्त शक्ति

June 1942

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(महात्मा गाँधी)

सत्य शब्द की उत्पत्ति सत् से हुई है। सत् का अर्थ है होना। तीनों काल में, एक ही रूप में अस्तित्व एक मात्र परमात्मा का ही है। जिस सज्जन ने ऐसे सत्य की भक्ति करके उसे अपने हृदय में सदा के लिये स्थान दे दिया है, उसे सौ करोड़ बार मेरा नमस्कार हैं। इस सत्य की सेवा करने के लिये मैं जी जान से कोशिश कर रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि उसके लिये हिमालय की चोटी से कूद पड़ने की हिम्मत मुझ में है। फिर भी मैं उससे बहुत दूर हूँ। ज्यों-ज्यों मैं नजदीक पहुँचता जाता हूँ त्यों त्यों मुझे अपनी शक्ति का ज्ञान अधिकाधिक होता जाता है और त्यों-त्यों यह ज्ञान मुझे नम्र बनाता जाता है। हाँ अपनी निर्जीवता को न जानना और अभिमान रखना संभावनीय है। परन्तु जो जानता है, उसका गर्व दूर हो जाता है। मेरा तो कभी का दूर हो गया तुलसीदास जी ने अपने को शठ की उपमा दी है। उसका मर्म मैं ठीक-ठीक समझ सकता हूँ, यह मार्ग शूरवीरों का है, कायरों का यहाँ काम नहीं जो चौबीसों घंटे प्रयत्न करता है। खाते पीते बैठते, सोते, सूत कातते हुए, जो केवल सत्य का ही चिंतन करता है, वह अवश्य सत्यमय हो जाता है और जब किसी के अन्दर सत्य का सूर्य संपूर्णतः प्रकाशित होता है, तब वह छिपा नहीं रहता। तब उसे बोलने बतलाने या समझाने की जरूरत नहीं रहती या उसके बोल में इतना बल होता है, इतना जीवन भरा होता है कि उसका असर लोगों पर तुरन्त होता हैं। ऐसा सत्य मुझ में नहीं। हाँ, इस मार्ग में अलबत्ता मैं विचरण कर रहा हूँ। अतएव ‘रुख नहीं वह रेड प्रधान’ की तरह मेरी यह दीन दशा हैं।

सत्य में प्रेम होता है। सत्य में अहिंसा है, ब्रह्मचर्य अस्तेय आदि का समावेश हो जाता है। पाँच यम तो केवल सुविधा के लिये बनाये गए हैं। सत्य को जान लेने के बाद जो हिंसा करता है, वह सत्य का त्याग करता है। सत्य को जान लेने के बाद जो व्यभिचार करता है, वह तो मानो सूर्य के रहते हुए अंधेरे ही हस्ती को मानता है। ऐसे शुद्ध सत्य का पूरी तरह पालन करने वाला एक मनुष्य भी इस वर्ष के अन्त में पहले निकल आवे, तो स्वराज्य मिले बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसका कहना सबको मानना ही पड़े। सूर्य का प्रकाश किसी को बताना नहीं पड़ता। सत्य स्वयं प्रकाशवान है। और स्वयं सिद्ध है। ऐसा सत्य आचरण इस विषमकाल में कठिन तो है, पर असंभव नहीं। यदि कुछ ही लोग कुछ ही अंश में सत्य के आग्रही हो जाएं, तो भी स्वराज्य प्राप्त कर लें। ऐसे सत्य के सख्त आग्रही अगर हम कुछ लोग ही हो जाएं, तो भी स्वराज्य मिल जाय, पर हम सच्चे हैं। सत्य के बदले सत्य का ढोंग नहीं काम दे सकता। भले ही रुपये में एक आना हो पर सच्चे। इस थोड़े बहुत सत्य में कोई भी भूले चूके, जाने अनजाने में वाणी के असत्य का समावेश तो हरगिज न करें। मेरी तो यह महत्वाकाँक्षा है कि इस धर्म के यज्ञ में हम सब लोग सत्य का सेवन करने वाले हो जाएं।


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