सत्य की विजय होती है।

June 1942

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एक व्यक्ति बड़ा ही कंजूस, पापी और दुष्ट स्वभाव का था उसने अनीति के साथ बहुत सा पैसा इकट्ठा किया और अपने बेटे को चोरी करने की कला में खूब निपुण कर दिया। समयानुसार जब वह व्यक्ति मरने लगा तो अपने बेटे को बुला कर उसने कहा पुत्र अब तो तुम स्वयं सब बातें जान गये हो, पर मेरी एक शिक्षा है उसे ध्यान रखना, वह यह है कि कभी कथा वार्ता में, भजन कीर्तन में, साधु संग में न बैठना न उनकी बात सुनना। पुत्र ने पिता की आज्ञा मान ली पिता ने शरीर त्याग दिया।

पिता की तरह पुत्र भी चोरी का पेशा करने लगा। एक रात का वह चोरी करने जा रहा था कि मार्ग में भागवत कथा होती हुई दिखाई दी, नियत स्थान पर जाने के लिए और कोई रास्ता न था। चोर कुछ देर तो विचार करता रहा कि क्या करूं न करूं अन्त में कथा श्रवण के पाप से बचने के लिए कानों में उंगली लगाई और आगे चल दिया। कुछ ही कदम चला था कि अकस्मात पैर में काँटा चुभ गया, काँटा निकालने के लिए कानों में से उंगलियाँ निकालनी पड़ीं। इसलिये उसे कथा की बातें सुनाई पड़ने लगीं चोर ने उन सुनी हुई बातों को भुलाने की पूरी कोशिश की, पर दो बातें उसे याद हो गईं -

(1) देवताओं की छाया नहीं होती, (2) सत्य की सदा जीत होती है।

कथा श्रवण और काँटे की पीड़ा पर झुँझलाता हुआ चोर आगे चल दिया। उसने आज राजमहल में सेंध लगाई और खजाने में से बहुत सा द्रव्य चुरा लिया। चोरी किया हुआ धन सुवर्ण और जवाहरात बहुत थे, उसे ले जाने के लिए उसने राजा का ही एक ऊँट लिया और उस पर सारा बोझ लाद कर पहरेदारों की निगाह बचाता हुआ गुप्त मार्ग से अपने घर आ गया। राजा का ऊँट पहचाना जा सकता था और चोरी खुल सकती थी इसलिये चोर ने उसे काट डाला और शरीर के टुकड़ों को घर में गहरा गड्ढा खोद कर गाड़ दिया।

दूसरे दिन सवेरा होते ही राजा को सूचना मिली कि खजाने में से बड़ी जबरदस्त चोरी हो गई। चोरी किस प्रकार हुई इसकी भारी खोज बीन की जाने लगी। पशुशाला का एक ऊँट गायब मिला। खजाने के पास ऊँट लादने के निशान मौजूद थे इसलिए यह अनुमान कर लिया गया कि चोर ऊँट पर लाद कर चोरी का माल ले गया है। राजा ने चोर का पता लगाने वाले को बहुत सा इनाम देने की घोषणा की और गुप्त पुलिस की भी स्त्री दूतियों को यह कार्य खास तौर से सौंप दिया गया।

गुप्त पुलिस की स्त्री दूतियों में एक बुढ़िया प्रकार के कामों की खोज लगाने में बड़ी ही प्रवीण थी। उसने विचार किया कि चोर राजा के ऊँट को यों ही छोड़ नहीं सकता क्योंकि ऐसा करने से चोर के नगर को मालूम करके सारे नगर की तलाशी लेने पर चोरी पकड़ी जा सकती है, इसलिए चोर ने जरूर उस ऊँट को मार कर कहीं गाड़ दिया होगा। इसी अनुमान के आधार पर वह दूती भेष बदल कर घर से निकल पड़ी। और घरों में जाकर स्त्रियों के सामने रोती पीटती कि मेरा बेटा बीमार है उसके लिए ऊँट का सड़ा हुआ माँस बताया है, न मिलेगा तो बेटा मर जायगा। हाय क्या करूं, कहाँ जाऊँ ?

स्त्रियाँ उसकी बात सुनती, पर ऊँट का माँस कहाँ से देती बेचारी अपनी लाचारी प्रकट करके चुप हो जाती। दूती गाँव-गाँव नगर नगर में फिरने लगी । एक दिन वह चोर के घर जा पहुँची चोर की स्त्री भोली थी बुढ़िया के रोने पीटने पर उसे दया आ गई और गड्ढे में से निकाल कर थोड़ा सा ऊँट का माँस दे दिया। बुढ़िया खुशी से फूली न समाती थी। उसने दरवाजे पर एक काला निशान लगा दिया ताकि वह दूसरे दिन उस घर को पहचान सके और प्रसन्न होती हुई लौट गई।

चोर के घर का पता तो लग गया, पर दूती को अभी यह बात और मालूम करनी थी कि धन उसी के घर में है या कहीं दूसरी जगह रखा हुआ है। राजा को पूरी और पक्की सूचना देने पर ही पूरा इनाम मिलता, इसलिए दूसरे दिन भी जाँच जारी रखने का निश्चय कर लिया।

उस दूती ने काला रंग देह पर पोता, बाल फैलाए और भयंकर रूप बनाकर भैंसे पर चढ़कर उस चोर के घर रात को 12 बजे पहुँची और दरवाजे पर खड़ी होकर हुँकार देने लगी। चोर बाहर आया, दूती ने कहा- दुष्ट ! तू मुझे जानता नहीं, मैं भवानी दुर्गा हूँ। तू राज महल से इतनी बड़ी चोरी कर लाया, पर मेरे लिए एक बलि भी न दी अब मैं तुझे ही खा जाऊँगी।’

चोर धमकी में आ गया। वह गिड़गिड़ा कर देवी के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा- भगवती, चोरी का धन अभी ज्यों का त्यों घर में गढ़ा हुआ है, मैंने उसे छुआ भी नहीं, पहिले आपकी बलि दे दूँगा तब उसमें हाथ लगाऊँगा, गलती के लिए माफ कर, कल ही आपके मन्दिर में नौ बकरों की बलि चढ़ा दूँगा। देवी खुश होती हुई वापिस लौट चली।

देवी के चले जाने के बाद चोर को शक हुआ कि कहीं यह कोई भेदी तो नहीं हैं, जो दुर्गा का भेष बना कर आया हो। इसी समय उसे ध्यान आया कि कथा में मैंने सुना था कि देवताओं की छाया नहीं होती। अपना सन्देह निवारण करने के लिए वह उसी तरफ लपका जिस ओर कि देवी गई थी। आधे फर्लांग दौड़ कर वह देवी के पास पहुँच गया और देखा कि उस की छाया मौजूद है। चोर को निश्चय हो गया कि यह भेदी है। उसने उस देवी को पकड़ लिया और मार कर ऊँट के साथ ही गाढ़ दिया।

मुद्दतें बीत गईं, चोरी का कोई पता न चला, एक दूती भी गायब हो गई। राजा को बड़ी चिन्ता हुई कि ऐसा भयंकर चोर यदि राज्य में रहेगा तो प्रजा की अत्यन्त हानि होगी, इसलिए उसने इनाम की मर्यादा बहुत अधिक बढ़ा दी। घोषणा की गई कि जो कोई उस चोर को पकड़ कर दरबार में हाजिर करेगा, उसे आधा राज्य दिया जायेगा और राजकुमारी विवाह दी जावेगी।

चोर एक भीषण विपत्ति में से बचा। उसे रह रह कर याद आ रहा था कि कथा सत्संग का एक टुकड़ा मैंने सुना था कि देवताओं की छाया नहीं होती, उसी टुकड़े ने मेरे प्राण बचा दिये, वरना उस दूती द्वारा पकड़वा दिया जाता और राजा मुझे कुत्तों से नुचवा कर मार डालता। अब वह सोचने लगा कि सत्संग में जो दूसरी बात सुनी थी, उसकी भी परीक्षा करनी चाहिए।

“सत्य की विजय होती है” इस उपदेश की वास्तविकता जाँचने के लिये वह सीधा राजदरबार में पहुँचा और राजा से कहा-श्रीमान्! यह चोर आपके सामने उपस्थित है, इसने ही चोरी की थी। उसने सारा हाल कह सुनाया।

राजा विचारमग्न हो गया। उसने सोचा ‘सत्य की विजय होती है’। इस उपदेश ने जब चोर को इतना प्रभावित किया कि अपनी जान जोखिम में डाल कर अपराध कबूल करने के लिये मेरे सामने उपस्थित हुआ है, तो मुझे भी अपने सत्य की रक्षा करनी चाहिये। राजा ने चोर का अपराध माफ कर दिया और अपने वचनानुसार उसे बेटी विवाहते हुए आधा राज्य दहेज में दे दिया।

चोर को प्राण-दंड के स्थान पर इतना बड़ा पुरस्कार क्यों मिला? राज्य भर के सब लोग इस प्रश्न को आपस में एक दूसरे से पूछते थे। विचारवान् और बुद्धिमान इसका यही एक उत्तर देते थे कि “सत्य की विजय होती है।”


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