(ज्ञान की अग्नि में कर्मों की आहुति दीजिए)
शास्त्रों में पंच महायज्ञों की बड़ी महिमा वर्णन की गई है और मनुष्य जाति को आदेश किया गया है कि नित्य पंच यज्ञ करने चाहिए। नित्य कर्म विधि में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। आइये उनके सम्बन्ध में कुछ गम्भीर विवेचना करें और विचार करें कि सत्य धर्म के अनुयायियों को इनका पालन करना चाहिए ।
पंच यज्ञ यह है (1) ब्रह्म यज्ञ (2) पितृ यज्ञ, (3) देवयज्ञ (4) भूत यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। अग्नि में या भूमि पर अन्न के छोटे छोटे बीस किनके डाल देने का चिन्ह पूजा इस बात का स्मरण कराने मात्र को ऐ अतीत स्मृति है कि किसी जमाने में आर्य लोग पंच यज्ञों को करने में कितने सतर्क थे कि नित्य इन कर्तव्यों को यथाशक्ति पूरा करते थे और उन्हें किए बिना अन्न तक गृहण न करते थे हमें उन यज्ञों के महान मन्तव्यों में गहरा घुस कर यह देखना होगा कि क्या वे सत्य धर्म की पूर्ति करते हैं। विचार करने पर पता चलता है कि इनके द्वारा न केवल सत्य मार्ग की पुष्टि होती है वरन् उसका पूरा-पूरा कार्यक्रम भी मिल जाता है।
पंच यज्ञों में सत्य प्रेम न्याय की पूरी व्यवस्था सन्निहित है ब्रह्म यज्ञ सत्य का पर्यायवाची है। परमात्मा का चिन्तन, आराधन अन्वेषण यही तो ब्रह्म यज्ञ है। एकान्त होकर ईश्वर जीव प्रकृति के सम्बन्ध में अखण्ड आत्मा, अखंड जीवन अखंड जगत के सम्बन्ध में निदिध्यासन, भजन आदि करना ब्रह्म यज्ञ ही तो ठहराया जायगा।
प्रेम के अंतर्गत पितृ यज्ञ और देव यज्ञ दो यज्ञ आते हैं। पितृ यज्ञ का भावार्थ यह है कि जो वस्तु अपने पूर्वजों से ली है वह आगे वालों को देना। यह बहुत ही संकुचित बात है कि पिता ने हमें उत्पन्न किया तो हमें भी संतान उत्पन्न करनी चाहिए या श्राद्ध तर्पण के भौतिक चिन्ह पूरा करके संतुष्ट हो जाना चाहिए। पितृ का अर्थ पूर्वज है। संसार के अनेक प्राणियों ने हमें विभिन्न रूपों में अनेक वस्तुएँ दी हैं। रहने का घर फर्नीचर विद्या ज्ञान आदि असंख्य पदार्थ असंख्य ज्ञान और अज्ञान प्राणियों से प्राप्त होते हैं। यह सभी हमारे पितृ हैं। इन पितृओं के उपहार का बदला तभी चुकाया जा सकता है जब जिस प्रकार उन्होंने उदारतापूर्वक अपनी वस्तुएँ हमें दी हैं उसी प्रकार हम दूसरों को दें। बिना किसी स्वार्थ की भावना के एवं बिना किसी विज्ञापन के संसार हमें दे रहा है हमें भी चाहिए कि अपनी शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक कमाई को पहले दान करें पितृ में लगावें तत्पश्चात जो यज्ञ अवशिष्ट बचे उसे अपने काम में लावें। यह दान वृति तभी जागृत हो सकती है जब हम विश्व बन्धुत्व की भावनाएँ अपने मन में धारण करें आत्मियता को बढ़ाएं अहम भाव का प्रसार करें अपने आदमी को ही देने की इच्छा होती है कहावत है कि ‘अन्धा बाँटे रेवड़ी फिर-फिर घर को ही देय।’ देने का कार्य आत्मीयता के साथ है इसलिए पितृ यज्ञ प्रेम के दो अंगों में अखण्ड प्रवाह और अखण्ड आत्मीयता को पूरा करता है।
देव यज्ञ देवताओं को प्रसन्न करना पुष्ट करना भोजन देना पूजा करना, उन्नत करना कहलाता है। मनुष्य, दानव और देवताओं में आकृतियों का नहीं विचारों का अन्तर है। एक मनुष्य चाहे तो दानव भी बन सकता है और देवता भी। उसकी आकृति तो वही रहेगी पर विचार में अन्तर हो जायगा। दैवी भावनाओं को बढ़ाने से संसार में देवत्व की पुष्टि होती है। यही तो देव यज्ञ है। अखंड देव यज्ञ का तात्पर्य यह है कि आप निरंतर शुभ संकल्प करें उच्च मानवीय गुणों को अपने मन में स्थापित करें और दूसरों को सन्मार्ग पर चलने का उपदेश करें। प्रेम का तृतीय चरण अखंड यज्ञ यही उपदेश करता है कि हमें निरन्तर शुभ विचार करते रहने चाहिए और दूसरों के हृदयों में पवित्र विचार भरने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी से संसार में देवत्व पुष्ट होगा।
जिस प्रकार प्रेम के अंतर्गत पितृ यज्ञ और देव यज्ञ का समावेश था, उसी प्रकार न्याय के अंतर्गत भूत यज्ञ और अतिथि यज्ञ आते हैं। कीड़े मकोड़े कुत्ते आदि मूक निर्बल और असहाय प्राणियों को आप कुछ दीजिए यह भूत यज्ञ की आन्तरिक भावना है। विचार करना चाहिए संसार के निर्बल प्राणियों को हम क्या दें जिससे कि उनका वास्तविक उपकार हो सके। निर्बलों को कोई भौतिक पदार्थ देने से उनकी सेवा नहीं हो सकती भिखमंगे को एक मुट्ठी अन्न दिया तो उस दिन के उसके आलस्य में वृद्धि होगी और दूसरे दिन फिर उसका कार्यक्रम ज्यों का त्यों। वह दान उसके आलस्य को कुछ क्षण के लिए प्रोत्साहित भले कर दे किन्तु उसकी ठोस सेवा नहीं कर सकता। यदि अधिक दे दिया जाय तो उस पर और दूसरी आपत्ति आवेगी, बलवान उसे मारेंगे और उस दी हुई वस्तु को छीन लेंगे। इसलिए निर्बलों के साथ सब से बड़ा उपकार यही हो सकता है कि उन्हें बलवान बनावें। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक बल जिस मनुष्य में होगा उन्हें किसी की कृपा के टुकड़े प्राप्त करने की जरूरत न होगी। आप अपने शरीर से कुटुम्ब जाति देश विश्व की कुछ सेवा करना चाहते है। तो उन्हें शक्ति का पाठ पढ़ाइए, स्वावलम्बन सिखाइए आत्मविश्वास पैदा कीजिए और उनके कण-कण को शक्ति सम्पन्न बनाने का उद्योग कीजिए। शक्ति प्रदान करना ही निर्बलों की सब से बड़ी सेवा है। इससे बड़ा उपकार उनके साथ और कुछ नहीं हो सकता। भूत यज्ञ का संदेश है कि आप प्राणियों के लिए न्याय की व्यवस्था कीजिए; उन्हें अखंड शक्ति के मार्ग पर प्रवृत्त कीजिए।
नर यज्ञ न्याय के दूसरे और तीसरे चरण का पोषण करता है। नर यज्ञ को अतिथि यज्ञ भी कहा जाता है। अतिथि वह है, जो अनायास ही आ जावे, जिससे हमारा कोई स्वार्थ न हो, तो भी उसकी सेवा करे भोजनादि से सत्कार करे। दुनिया में ऐसी कोई स्वार्थ पूर्ण प्रथा प्रचलित है कि हमारा मुँह तोड़ने की और बदला लेने की शक्ति रखता है, उसे तो समान गिनते है बाकी अन्य लोग जो कितने भी उपयोगी और श्रेष्ठ क्यों न हों, उन्हें अपने से नीचा, हीन, तुच्छ, समझते हैं। गोरे और काले का रंग भेद प्रसिद्ध है। गौरी जातियाँ कालों को नीच समझती है। काले भी अपने से कालों को तुच्छ समझते हैं। सवर्णों और अछूतों का भेदभाव प्रसिद्ध है। इनका बिलकुल सीधा अर्थ यह है कि जो थप्पड़ का जवाब घूँसे से नहीं दे सकता उसे नीच समझा जाता है यह बड़ी ही आसुरी और पशुतापूर्ण दुष्ट विचारधारा है। अतिथि यज्ञ इस शैतानी मनोभावना को हटा कर ईश्वरीय चेतना को स्थापित करता है। किसी व्यक्ति से हमारा कोई बदला नहीं है वह हमारा तुरन्त ही कुछ बदला नहीं दे सकता तो भी उसके साथ समता का, भलमनसाहत का, मनुष्यता का, पूजा व्यवहार का करना चाहिए और उसकी समुचित आवभगत करनी चाहिए यहाँ यह भ्रम नहीं करना चाहिए कि रोटी तोड़ हराम खाऊ आलसियों को मुफ्त में चराना चाहिए। अतिथि यज्ञ की भावना यह है कि जिन लोगों के बलवान होने के कारण हम उचित स्थान नहीं देते उन्हें मनुष्यता के नाते समानता का स्थान देना चाहिए। निर्बलों को बलवान बनाना चाहिए और बलवानों को निर्बलों के साथ मनुष्यता का व्यवहार करना चाहिए। यह संदेश न्याय के द्वितीय चरण का है। अखंड समता का प्रसार करने से अतिथि यज्ञ का आधा भाग पूरा होता है। इस यज्ञ का आधा भाग तब पूरा होता है जब आप अतिथियों, निर्बलों की यथाविधि पूजा अर्चना करते हैं। उन्हें भोजन कराते हैं, उनके लिए कुछ त्याग करते हैं। कुछ कष्ट सहते हैं अतिथि को जिस बात का कष्ट है उसे वह देना चाहिए। भोजन,जल आदि की आवश्यकता पूरी करनी चाहिए। महान मानव धर्म के कर्तव्य में यह बात यों घटेगी कि निर्बलों को सब से बड़ी आवश्यकता न्याय दिलाने की है। जिन लोगों ने उनके अधिकार छीन रखे हैं या जो उन्हें सताते हैं उनसे न्याय दिलाना चाहिए। जिनके मुँह हराम लगा हुआ है वे आसानी से निर्बलों के अधिकार उन्हें देने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें न्याय पर लाने के लिए बल प्रयोग की आवश्यकता होती है। जोंक या कानखजूरा किसी से चिपट जाता है तो वह आसानी से नहीं छूटता उसे छुड़ाने के लिए संड़ासी से पकड़ कर बलपूर्वक खींचना पड़ता है जो लोग अनुचित रूप से दूसरों के हकों का अपहरण कर रहे हैं जिन्हें स्वार्थ का कानखजूरा चिपक गया है उन्हें बल प्रयोग किये बिना निर्विकार नहीं बनाया जा सकता है इसके प्रयत्नकर्ता को कुछ संघर्ष में आना पड़ता है और संघर्ष से कष्ट होता है। इस कष्ट को तप समझ कर प्रसन्नतापूर्वक अपनाना अतिथि यज्ञ का आधा भाग पूरा करना है। अतिथि की आवश्यकता को स्वयं कष्ट सह कर पूरा करना इस मन्तव्य की सतयुगी व्याख्या यह है कि निर्बलों को न्याय दिलाने के लिए निस्वार्थ भाव से प्रसन्न करना और उसके लिए जो कष्ट सहना पड़े उसे खुशी-2 सहना। न्याय का तीसरा चरण अखण्ड तप यही सन्देश देता है। अतिथि यज्ञ की पूर्ति इसी प्रकार होती है।