रचियता-श्री. खूबचन्द जैन “पुष्कल” सीहोरा

June 1942

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ओ भव वन में भ्रमते प्राणी! क्षुधाकुलित और जल के प्यासे !

देख रहा है कब से तू नित इस जग के यह खेल तमाशे॥

मिटा चुका, फल फूल ढेर पर अब तक भी तू अघा न पाया।

केवल तन की शक्ति बढ़ाने तूने निज व्यापार बढ़ाया॥

जिसको तू मेरा कहता है अरे हुए क्या वे भी तेरे।

आने वाले चले गये हैं तो भी क्या है होश न तेरे॥

इस जग के उस पार पहुँचने का तेरे इस तन में बल है।

तेरे अस्थि-पंजरों में तो छिनी हुई वह शक्ति अतुल है॥

श्वासों का ये कच्चा धागा न जाने कब टूट जायेगा।

फिर जिसका तू रक्षण करता वह तन कब क्या काम आयेगा॥

जीवन दिन है अतः उजाले में तू झट सन्मार्ग पकड़ ले।

मृत्यु निशा आने के पहिले अरे! पथिक, तू शीघ्र संभल ले॥

ओ मानव मन! जाग काल सन्मुख है तेरे।

कौन भरोसा है जीवन का न जाने क्या हुआ सबेरे॥


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