सत्य आन्दोलन क्या है?

June 1942

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लोग पूछते हैं कि अखंड ज्योति द्वारा आरंभ किया हुआ ‘सत्य’ आन्दोलन क्या है, इसका उद्देश्य, मर्म और कार्यक्रम क्या है? कितने ही ऐसे पक्ष उपस्थित किये जाते है, जिनमें इसे एक आदर्शवाद बताया जाता है, और कहा जाता हैं कि यह संसार की पेचीदा गुत्थियों को नहीं सुलझा सकता। जब कि राजनैतिक दावपेचों का सब जगह बोल बाला है, तब बेचारा। ‘सत्य’ कहाँ टिक सकेगा? राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक समस्यायें भला सत्य के आधार पर कैसे सुलझ सकती है?

इस प्रकार के सन्देह उठने का कारण यह है कि शैतानी सभ्यता की चमचमाहट ने हमारी आंखों को ऐसे चौंधिया दिया है कि हमें वस्तुस्थिति ठीक प्रकार दिखाई नहीं पड़ती। ‘सत्य’ आन्दोलन अव्यवहारिक और काल्पनिक आदर्शवाद नहीं है, यह ऐसा प्रचंड और शक्तिशाली तत्व है, जो संसार की सारी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझा सकता है। इस आन्दोलन का मर्म मनुष्य का दृष्टिकोण भौतिक जगत से हटा कर आध्यात्मिक बनाना है। जानना चाहिये कि आध्यात्मिकता, गाँजे बाज और हरामखोर भिख-मंगों का पेशा नहीं हैं, वरन् मनुष्य जीवन की सब से प्रथम और अनिवार्य आवश्यकता है। पशु से मनुष्य बनाने वाली वस्तु आध्यात्मिकता ही है। शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्माण्ड की कुँजी पिंड के अन्दर है। हर व्यक्ति अपने लिए एक अलग संसार बनाता है जो उसके अन्दर होता है। वास्तव में संसार बनाता है और उसकी रचना उस पदार्थ से करता है जो उसके अन्दर होता है। वास्तव में संसार बिल्कुल जड़ है, उसमें किसी को सुख दुःख पहुँचाने की शक्ति नहीं है। मकड़ी अपना जाला खुद बुनती है और उसमें विचरण करती है। हम अपने लिए अपना संसार स्वतंत्र रूप से बनाते है और जब चाहें उसमें परिवर्तन कर लेते है।

एक व्यक्ति क्रोधी है, उसे प्रतीत होगा कि सारी दुनिया उससे लड़ती झगड़ती है, कोई उसे चैन से नहीं बैठने देता, किसी में भलमनसाहत है ही नहीं, जो आता है उससे उलझता चला आता है। एक व्यक्ति झूठ बोलता है-उसे लगता है कि सब लोग अविश्वासी है सन्देह करने वाले है, किसी पर भरोसा ही नहीं करते। एक व्यक्ति नीच है, वह देखता है कि सारी दुनिया घृणा करने वालों, घमंडियों, स्वार्थियों से भरी हुई है, किसी में सहानुभूति है ही नहीं। एक व्यक्ति निकम्मा और आलसी है, उसे मालूम होता है कि दुनिया में काम है ही नहीं, सब जगह बेकारी फैली हुई है व्यापार नष्ट हो गया। नौकरियों नहीं है, लोग बहुत काम लेकर थोड़ा पैसा देना चाहते है। एक व्यक्ति बीमार है-उसे दिखाई पड़ता है कि दुनिया में सारे भोजन अस्वादिष्ट, हानिकर और नुकसान पहुँचाने वाले है। इसी प्रकार व्यभिचारी, लम्पट, मूर्ख, अशिक्षित, कंजूस, सनकी, गँवार, पागल, भिखारी, चोर तथा अन्याय मनोविकारों वाले व्यक्ति अपने लिए एक अलग दुनिया बनाते हैं। वे जहाँ जाते हैं, उनकी दुनिया उनके साथ जाती है।

बनावट और छल कुछ ही क्षणों में खुल जाते हैं और मनुष्य को असली रूप प्रकट होने में देर नहीं लगती। जहाँ उसका गुण, कर्म, स्वभाव प्रकट हुआ, बनावट का पर्दा फटा कि उनकी दुनिया उनके सामने आकर खड़ी हो जाती है। इसी प्रकार विद्वान, साधु कर्मनिष्ठ, उत्साही, साहसी, सेवा भावी, उपकारी, बुद्धिमान् और आत्मविश्वासी लोगों की दुनिया अलग होती है। बुरे व्यक्तियों को जो दुनिया बुरी मालूम होती थी वही अच्छे व्यक्तियों के लिए अच्छी बन जाती है। फिर जड़ पदार्थों की अनुभूतियों के बारे में तो कहना ही क्या? दो व्यक्तियों के पास एक-एक हजार रुपये हैं। एक व्यक्ति का मन दूसरी तरह का है वह रुपयों को जमीन में दबा कर रखता है, कहीं चोर न आ जाय इसलिए रात भर जागता है, कोई इस स्थान को भाँप न ले इसलिए चिन्तित रहता है, सन्देह करता है कि घर का कोई अविश्वासी आदमी रुपयों लेने के लिए उसे जहर देकर न मार डाले। इसके विपरीत दूसरा आदमी इन रुपयों से एक कारखाना खोलता है, उसमें काम करने वाले मजदूरों से प्यार करता है उन्हें रोटी देता है, मजदूर उस पर जान देते हैं। सब लोग हँसी-खुशी का जीवन बिताते हैं दोनों व्यक्तियों पर धन एक सा ही है पर एक के लिए वह चिन्ता, विपत्ति, आशंका और भय के हेतु बना हुआ है दूसरे को प्रसन्नता दे रहा है। वास्तव में रुपये बेचारे जड़ हैं, वे न तो किसी को सुख दे सकते हैं और न दुःख, मनुष्य एक प्रकार का कुम्हार है जो वस्तुओं की मिट्टी से अपनी इच्छानुसार बर्तन बनाता है। दुनिया किसी के लिये दुःख का कारण हैं किसी के लिए सुख का हेतु हैं। वास्तव में दुनिया कुछ नहीं है। अपनी छाया ही संसार के दर्पण में प्रतिबिम्बित हो रही है।

‘सत्य’ आन्दोलन मनुष्यों में प्रेरणा करता है कि अन्तर में मुँह डालो। अपना दृष्टिकोण बदलो, अपना और दुनिया का स्वरूप समझो अपने को अच्छा बना डालो, बस सारी दुनिया तुम्हारे लिए अच्छी बन जाएगी। तुम सत्यनिष्ठ बनो, दुनिया तुम्हारे साथ सत्य का आचरण करेगी। तुम प्रेम करो, दसों दिशाओं में तुम्हारे ऊपर प्रेम की वर्षा होगी। न्याय पर आरुढ़ हो तो, तुम्हारे सामने अन्याय खड़ा न रह सकेगा। सत्यवादी अपने को सुधारता है, दूसरों को व्यक्तिगत सुधार करने के लिए कहता है। जो लोग इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लेते हैं वे जीवन मुक्त हो जाते हैं। बन्धन उन्हें बाँधते नहीं, वरन् वह अपने लिए जैसी चाहता है वैसी स्थिति स्वयं उत्पन्न कर लेता है। फटे चिथड़ों में लिपटा हुआ साधु राजगद्दी का आनन्द लूटता है, जिन काम, क्रोध, लोभ मोह के बन्धनों में जकड़ी हुई दुनिया त्राहि त्राहि करती है, सत्य का शोधक उनके वास्तविक स्वरूप का अनुभव करता है और दुख और सुख में समान रूप से खड़ा मुस्कराता रहता है। सत्य धर्म का गुप्त रहस्य यह है कि हर व्यक्ति अपने को सुधारे और दूसरों के साथ मनुष्य के कर्तव्य पालन करे जिससे उसके वैसी ही स्वर्गीय दुनिया बन जावे जैसा कि वह स्वयं है।

शायद आप राजनीतिज्ञ हैं और स्वतन्त्रता चाहते हैं शायद आप समाज सुधारक हैं और समाज में क्रांतिकारी सुधार करना चाहते हैं, शायद आप धर्म प्रचारक हैं और दुनिया को धर्मात्मा बनाना चाहते हैं, शायद आप अर्थशास्त्री हैं और गरीबों को अमीर बनाना चाहते हैं, शायद आप एकतावादी हैं और साम्प्रदायिक एकता स्थापित करना चाहते हैं आप अपने उद्देश्य पूरे करने के लिए बड़ी-2 योजना बनाते हैं और कार्य आरंभ करते हैं, आपका आन्दोलन थोड़ा चलकर बन्द हो जाता है। क्या आपने विचार किया कि ऐसा क्यों होता है? कारण यह है कि आप गधों को रथ में जोतते हैं और उस रथ को विमान की तरह उड़ने की आशा करते हैं आप भूल जाते हैं कि जिनके ऊपर रथ चलाने का भार डाला जा रहा है वे गंधें हैं, पिट-कुटकर जरा-जरा घिसटना उनकी आदत है, यह बेचारे रथ को कहाँ ले पहुँच सकते हैं। महात्मा गाँधी कहते हैं कि स्वराज्य के लिए मुझे मुट्ठी भर सच्चे कर्मनिष्ठ चाहिएं। मालवीय जी कहते हैं हमें धर्म पर प्राण देने वाले कर्मवीर चाहिएं, चाहे वे थोड़े ही क्यों न हों। हर क्षेत्र में उन मनुष्यों की आवश्यकता है जो मनुष्यता से पूर्ण हों। चाहे बल, विद्या, बुद्धि, हममें न हो पर यदि मनुष्यत्व है, सत्यनिष्ठा है आत्मनिर्भरता है, तो अन्य सारे गुण आज नहीं तो कल आ जाएंगे और यदि न भी आ जावें तो कोई काम लटका न रहेगा। इसके विपरीत जिसमें सत्यनिष्ठा नहीं है, वह अपने बल, बुद्धि और विद्या का दुरुपयोग करेगा जिसका दृष्टिकोण भौतिक है, जो आत्मा और परमात्मा पर विश्वास नहीं करता वह किसी कार्य में सच्चा नहीं रह सकता। इन्द्रिय तृप्ति और भौतिक सुख जिसका उद्देश्य हो ऐसा व्यक्ति पत्ते-पत्ते पर डोलेगा और संकुचित स्वार्थ से उसकी दृष्टि ऊँची न उठ सकेगी। ऐसी जनता भली किस प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकती है?

मनुष्य का अपना उद्धार इसमें है कि वह सत्यनिष्ठ बने, क्योंकि आत्मचेतना के अनुसार ही अपने लिए भले या बुरे संसार की रचना होती है। देश, जाति और विश्व की छोटी से लेकर बड़ी तक समस्त समस्याएं और गुत्थियाँ इसी एक कुँजी से खुल सकती हैं कि लोग आत्मवान् बनें, आत्म निर्भरता सीखें। सत्य धर्म का एक मात्र मर्म यह है कि मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बने। आत्मा में परमात्मा की ज्योति जगमगावे। यह सम्पूर्ण उन्नतियों का मूल मन्त्र है इसलिए इसका स्थान सर्वोपरि है। मूल को सींचने से जैसे पत्ते हरे-भरे हो जाते हैं वैसे ही सत्यधर्म का प्रसार होने से मानव जाति के सद्गुण विकसित होंगे और जो कठिनाइयाँ बेचैन किये हुए हैं वे बड़ी सुगमता से दूर हो जाएंगी। इसलिए सब प्रकार के सुधारकों को अखण्ड ज्योति एक प्रोग्राम देती है कि वे सत्यधर्म का प्रसार करे हर व्यक्ति को सत्यनिष्ठ बनावे।


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