सत्य स्वरूप आत्मा

June 1942

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(पवित्र अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा मैं हूँ)

अखंड आत्मा, अखंड जीवन और अखंड जगत के महान तत्व ज्ञान का मंथन करने पर वेद वाणी उत्पन्न होती है कि-”पवित्र अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा मैं हूँ।” यही सत्य धर्म का प्रथम सूत्र है। इस सूत्र की विस्तृत व्याख्या करने पर यह प्रतीत होगा कि आत्मा के सम्बन्ध में वास्तविकता की जानकारी प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना जीवन यात्रा का ठीक स्वरूप ही सामने नहीं आता। कोई उद्देश्य ही स्थिर नहीं होता और हम परिस्थितियों के प्रवाह में उधर उधर उड़ते फिरते हैं। सत्य को हृदयंगम किये बिना किसी बात पर सुस्थिरता नहीं हो सकती और सुस्थिरता के बिना शान्ति का मिलना असंभव है।

“मैं पवित्र अविनाशी और निर्लिप्त आत्मा हूँ” इस महान सत्य को स्वीकार करते ही मानव जीवन का दृष्टिकोण बदल जाता है। वह परिस्थिति के भव बन्धन में बन्धा हुआ इधर उधर नाचता नहीं फिरता, वरन् अपने लिए वैसे ही संसार का जान बूझ कर निर्माण करता है, जैसा कि वह पसंद करता है। असल में यह आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास और आत्मपरायणता का मार्ग है। यदि आप अपना सम्मान करते हैं, अपने को आदरणीय मानते हैं अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता पर विश्वास करते हैं तो सचमुच वैसे ही बन जात हैं। योग शास्त्र पुकार-पुकार कर कहता है कि जो समझता है कि मैं शिव हूँ, जो समझता है कि मैं जीव हूँ, वह जीव है।’ मोटी कहावत है कि “लड़के का नाम घर से रखा जाता है।” अपने लड़के का नाम यदि आप बुरा रखेंगे, तो यह आशा रखना व्यर्थ है कि बाहर वाले उसे किसी अच्छे नाम से पुकारेंगे। मनोविज्ञान शास्त्र साक्षी है कि जिन बालकों को उनके माता पिता अध्यापक या अभिभावक सदा मूर्ख बेवकूफ , नालायक आदि कह कर उसे अपमानित और लाँछित किया करते हैं उस बालक के लिए बड़े होकर महत्व प्राप्त करना कठिन है। मनुष्य गीली मिट्टी के समान है, जो संस्कारों द्वारा भला या बुरा बनाया जाता है। हमारा बाह्य मस्तिष्क जिस प्रकार के विश्वास अपने अन्दर धारण करता है, पिछला गुप्त मस्तिष्क उसे किस प्रकार स्वीकार करके सूचना चेतना में ग्रहण कर लेता है, इसका मर्म मैस्मरेजम और हिप्नोटिज्म के जानकार भली प्रकार समझते हैं। जो व्यक्ति बार बार अपने सम्बन्ध में बुरे विचार करेगा, हीनता और तुच्छता के भाव रखेगा, वह निःसंदेह कुछ समय में वैसा ही बन जायगा। मैं नीच हूँ पापी हूँ, दुष्ट हूँ, कुकर्मी हूँ, नरकगामी हूँ, आलसी हूँ, अकर्मण्य हूँ, तुच्छ हूँ, दास हूँ,असमर्थ हूँ, दीन हूँ, दुखी हूँ, इस प्रकार के मनोभाव रखने का स्पष्ट फल यह होता है कि हमारे जीवन की अन्तः चेतना उसी ढांचे में ढल जाती हैं और रक्त के साथ दौड़ने वाली विद्युत शक्ति में ऐसा प्रवाह उत्पन्न हो जाता है, जिसके द्वारा हमारे सारे काम काज ऐसे होने लगते हैं, जिनमें उपरोक्त भावनाओं का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देने लगता है। आत्मतिरस्कार करने वालों के कामों का देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह नीच वृत्ति का, अकर्मण्य, आलसी, दान दीन और अपाहिज है। अपने आप का तिरस्कार करने वाले आत्म हत्यारे अपना यह लोक भी बिगाड़ते हैं और परलोक भी। उनकी उन्नति के स्रोत रुक जाते हैं और दीनता की सड़ी हुई कीचड़ में कीड़ों की तरह बुजबुजाते रहते हैं। यह कीड़े सदैव दुख दरिद्र से घिरे रहेंगे। उनका उद्धार परमात्मा से भी न हो सकेगा, क्योंकि कृपा करके उन्हें कीचड़ से बाहर कोई निकाल भी दे तो वे फिर अपने उन्हीं पूर्व संस्कारों की नाली में।


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