सच्ची वर्ण व्यवस्था

June 1942

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(आध्यात्मिक रुचि के अनुसार विभाजन)

धर्म शास्त्रों में अलग-अलग तरह के लोगों के लिये अलग-2 तरह की शिक्षाएं दी गई हैं। कहीं नरकों के कठोर चित्रण चौरासी लाख योनियों में पड़ने का कष्ट ईश्वरीय दंड आदि का भय दिखलाया गया है। कहीं ईश्वर की कृपा से धन सन्तान ऐश्वर्य, सुख स्वर्ग मोक्ष आदि मिलने का प्रलोभन है और कहीं आत्मा के सच्चिदानंद स्वरूप में आत्मारमण करने का समाधि आनंद एवं परमपद प्राप्त करने का तत्व ज्ञान है। लोग समझते हैं कि शास्त्र में यह परस्पर विरोधी अनेक तरह के उपदेश हैं, परन्तु विचारपूर्वक देखने से इस अनेकता में एकता छिपी हुई दिखती है। अधिकारी भेद के कारण अलग-अलग कर्मोंपदेश किये जाते हैं। पशुओं को केवल दंड द्वारा ही काम में लगाया जा सकता है। लाठी लेकर ही कोई भेड़ों के झुण्ड को इधर से उधर को हाँक सकता है। उन्हें प्रेमपूर्वक समझाया जाय कि आप लोग कृपा करके सीधी सड़क पर चलिए शायद भेड़ें उसका कुछ अर्थ न समझ सकेंगी। और न उसके अनुसार आचरण करेंगी मनुष्यों में बहुत से इसी पशु संज्ञा के हैं जो केवल नियंत्रण और बल प्रयोग द्वारा ही सत्मार्ग पर चलाये जा सकते हैं चोर डाकू गुँडे आततायी बिना दंड और भय के सीधे रास्ते पर चलेंगे ऐसी आशा नहीं की जा सकती।

मध्यम श्रेणी के लोगों को उनका हित-अहित समझाकर प्रेम द्वारा उनसे हृदय स्पर्श करके ऊँच नीच का मर्म बता कर ठीक रास्ते पर लाया जा सकता है उन्हें यदि भय या दंड दिया जायगा तो विरोधी हो जाएंगे एवं सुधरने के बजाय और बिगड़ेंगे। उनके लिए तो प्रेम ही अस्त्र है। पारिवारिक झगड़ों को दंड से नहीं प्रेम से सुलझाया जा सकता है।

जो विचारक है उच्च मनोभूमि के हैं जिन की आत्मा प्रबुद्ध है उनके लिए संकेत भी पर्याप्त हैं एक इशारे से वे अपनी भूल समझ सकते हैं। और बिना एक पल का विलम्ब लगाए सावधान हो सकते हैं।

वस्तुतः सत्य एक ही है पर अधिकारी भेद से उसका तीन-तीन तरह उपयोग होता है इसलिए सत्य प्रेम और न्याय के तीन नामों से उसे संबोधन कहना पड़ता है। देखना चाहिए कि कौन विद्यार्थी किस कक्षा में पढ़ता है, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए बाल कक्षाओं के छोटे-छोटे बालक अध्यापक के डर से सब काम करते हैं। यदि आधे घंटे के लिए अध्यापक उठ कर चला जाय तो वे पढ़ना लिखना बन्द कर देंगे और स्कूल के सारे नियम तोड़ कर हो हल्ला मचाने लगेंगे अध्यापक उन्हें धमकाता है और भय दिखाकर व्यवस्था में रखता है ऐसे व्यवहार मिडिल कक्षा के किशोर बालकों के साथ नहीं होता। अध्यापक उन्हें समझाता है कि पढ़ने में तुम्हारा क्या लाभ है और न पढ़ने में क्या हानि है प्रेमपूर्वक समझाने से यह विद्यार्थी ठीक आचरण करने लगते हैं, गुरु को उन्हें पीटने की आवश्यकता प्रायः नहीं पड़ती। कालेज के छात्रों से उनके प्रोफेसर दूसरी तरह का व्यवहार करते हैं उन्हें बराबरी का समझते हैं उनके सम्मान का ध्यान रखते हैं और आशा करते हैं कि अपनी शिक्षा के लिए वे स्वयं। ही बहुत प्रयत्नशील होंगे। लेक्चर देने के बाद प्रोफेसर इस बात की चिन्ता नहीं करता कि छात्र पढ़ रहें हैं या नहीं क्योंकि उसे विश्वास है कि ये जवान लड़के अपनी भलाई-बुराई समझने लगे हैं।

विभिन्न मनुष्य विभिन्न प्रकार के व्यवहार के अधिकारी होते हैं। कोई सत्य से सुधर सकता है कोई प्रेम से और कोई न्याय दंड से। इसी प्रकार सत्यधर्म के अनुयायियों को अपने लिए अलग प्रकार का मार्ग चुनना होता है। हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था इसी चुनाव की बोधक है। जिन की रुचि जिस विषय में है वह उसे स्वीकार कर सकता है। सत्य के उपयुक्त जिनकी मनोभूमि है वे ब्राह्मण हैं जिनके मन में प्रेम भरा हुआ है वह वैश्य हैं और जो न्यायशक्ति में दिलचस्पी लेते हैं वे क्षत्रिय हैं। यह वृत्तियां एक दिन में नहीं बन जाती हैं पुराने प्रारब्ध कर्मों, संचित विश्वासों और बहुत दिनों के ज्ञान एवं अज्ञान संस्कारों के कारण यह ब्राह्मणत्व वैश्यत्व और क्षत्रियत्व दृढ़ होता है। बहुत बार जो मनुष्य जिस घर में जन्मा है उसमें वैसी ही गुण होते हैं। बहुत बार संस्कारों की प्रबलता के कारण जन्म और क्रम के स्वभाव में अन्तर होता है। इनमें प्रधानता जीव के स्वभाव और संस्कार को ही दी जाती है। गणिका के गर्भ से उत्पन्न हुए वशिष्ठ, अज्ञात पति से गर्भ धारण करने वाली जाबाला का पुत्र सत्यकाम, सूर्पकार के घर उत्पन्न हुए रामानुज, क्षत्रिय के घर जन्मे हुए विश्वमित्र और गौतम बुद्ध यह सब अपने संस्कारों के कारण ब्राह्मण हुए। इसी प्रकार ब्राह्मण के घर जन्मे हुए द्रोणाचार्य कृपाचार्य एवं परशुराम क्षत्रिय कहलाये। वैश्यों के वर्ण परिवर्तन की भी कथायें प्राप्त होती हैं।

सत्य, प्रेम और न्याय में से जिसमें हमें विशेष रुचि हो और जिस योग्य मनोभूमि हो हम उसके अनुसार अपना वर्ण चुन सकते हैं। भौतिक वर्ण यदि हमारा जन्मजात बना रहे तो भी कुछ हर्ज नहीं जन्मजात वर्ण का वंश या समाज समझा जा सकता है आध्यात्मिक वर्ण अपने संस्कारों की प्रबलता एवं रुचि आकर्षण के अनुसार चुना जा सकता है। जैसे बहुत से लड़कों के दो नाम होते हैं एक माता-पिता का प्यार का नाम दूसरा स्कूल के रजिस्टर में दर्ज नाम उसी प्रकार यदि हम अपने दो वर्ण रखें तो कोई हर्ज नहीं है एक भौतिक वर्ण दूसरा अध्यात्मिक वर्ण जो जिस वर्ण को स्वीकार करे वह उसी के अनुसार आचरण करे और दूसरों को आचरण करने के लिए उत्साहित करे। तीनों सड़कें आगे चल कर एक ही चौराहे पर पहुँचती हैं। किसी एक को अपना अवलम्ब बना कर हम अन्तिम लक्ष तक पहुँच सकते हैं।

पाठक पूछेंगे कि तीन वर्ण तो यह हुए चौथा वर्ण क्यों छोड़ दिया गया? इस सम्बन्ध में हमारा मत है कि जैसे अँधेरा कोई वस्तु नहीं है प्रकाश न होने को ही अँधेरा कहते हैं और जीवन का अभाव मृत्यु कहलाती है उसी प्रकार उपरोक्त तीन गुणों का, तीन वर्णों के धर्म का अभाव ही शूद्र है। जिस व्यक्ति की मनोभूमि बिलकुल ही जड़ हो जो सत्य प्रेम न्याय में से किसी को न तो जानता है और न उसके प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह शूद्र है। शूद्रत्व मनुष्यता का अभिशाप है। किसी मनुष्य को अपने को शूद्र कहते हुए लज्जित होना चाहिए क्योंकि यह शब्द करीब-करीब पशुत्व का बोधक है आरम्भ में सभी मनुष्य जब ज्ञान से रहित हैं तो शूद्र कहलाते हैं। किन्तु जब ज्ञान में प्रवेश करते हैं तो उस पुराने आध्यात्मिक चोले को उतारकर फेंक देते हैं तीन वर्णों को द्विज या द्विजन्मा कहते हैं अर्थात् उन्होंने पुराने शूद्रत्व को उतार कर फेंका और मानवीय उच्चता का शरीर प्राप्त कर लिया दीक्षा लेकर और तीन तार का यज्ञोपवीत कन्धे पर धारण करके शूद्र द्विज बनते हैं। आध्यात्मिक द्विजत्व प्राप्त करना हर मनुष्य का कर्तव्य है, जो उस ओर ध्यान नहीं देता उस शूद्र का जीवन सर्वथा धिक्कारने योग्य है।


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