प्रेम और कृतज्ञता

June 1942

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(ऋषि तिरुवल्लुवर)

निस्वार्थ भाव से, बदला न पाने की इच्छा से और अहसान न जताने के विचार से जो उपकार दूसरों के साथ किया जाता है उसके फल की समता और तीनों लोग मिलकर भी नहीं कर सकते। बदला पाने की इच्छा रहित जो भलाई की गई है, वह समुद्र की तरह महान है। कोई मनुष्य किसी आवश्यकता से व्याकुल हो रहा है, उस समय उसकी मदद करना कितना महत्वपूर्ण है, इसे उस व्याकुल मनुष्य का हृदय ही जानता है। जरूरतमंदों को एक राई के बराबर मदद देना उससे बढ़ कर है कि बिना जरूरत वाले के पल्ले में एक पहाड़ बाँध दिया जावे। किसी को कष्ट में से उबारना, जन्म जन्मान्तरों के लिए अपना पथ निर्माण करना है।

जिसने तुम्हारे साथ भलाई की है उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। सहायता का मूल्य वस्तु के मूल्य से मत नापो, वरन् उसका महत्व अपनी आवश्यकता को देखते हुए नापो कि उस समय यदि वह मदद तुम्हें न मिलती तो तुम्हारा क्या हाल होता। उनका अहसान मत भूलो जिन्होंने मुसीबत के समय तुम्हारी मदद की थी। उपकार को भूल जाना नीचता हैं पर उन्हें क्या कहें जो भलाई के बदले बुराई करते है? वे मनुष्य बड़े अभागे हैं जो उपकारों का बदला अपकार से देते हैं। संसार के समस्त पापियों का तो उद्धार होगा पर कृतघ्न का कभी कल्याण न हो सकेगा।

धरती माता से उस दिन मनुष्यों का बोझ न उठाया जा सकेगा जिस दिन कि सब लोग अपनी श्रेष्ठता को छोड़ कर नीच बन जावेंगे। आदमी की चमड़ी में क्या खूबसूरती है? सुन्दर तो उसके कर्म हैं। सत्यप्रियता, निष्कपटता, श्रेष्ठ आचरण, सद् व्यवहार और उदारता यही पाँच स्तम्भ हैं जिनके ऊपर श्रेष्ठ आचरण का भवन खड़ा किया जाता है।


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