राम राज्य या सत् युग

June 1942

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(तुलसीकृत रामायण से)

राम राज बैठे त्रैलोका।

हरषित भये गये सब शोका॥

बैर न कर काहू सन कोई

राम प्रताप विसमता खोई ॥

वरणाश्रम निज-निज धरम, निरत वेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहिं सुरत, नहि भय शोक न रोग॥

दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज काहुहि नहि व्यापा॥

सब नर कारहि परस्पर प्रीति।

चलहि स्वधर्म निरत श्रुति रीति ॥

चारिहु चरन धरम जग माही।

पूरि रहा सपनेहु अद्य नाहीं॥

राम भगति रत नर अरु नारी।

सकल परम गति के अधिकारी ॥

अल्प मृत्यु कवनेहु नहिं पीरा ।

सब सुन्दर सब विरुज सरीरा॥

नहि दरिद्र कोउ दुखी न दीना।

नहि कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

सब निर्दभ धर्म रत पुनी।

नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥

सब गुनज्ञ पंडित सब ज्ञानी ।

सब कतृज्ञ नहिं कपट सयानी॥

एक नारि व्रत रत सब झारी ।

ते मन वच क्रम पति हितकारी ।

फूलहिं फलहि सदा तरु कानन

रहहि एक संग गज पंचानन॥

खग मृग सहज बैर विसराई।

सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥

कूजहि खग मृग नाना वृंदा ।

अभय चरहि बन करहि अनंदा॥

सस-सम्पन्न सदा रह धरनी ।

त्रेता भइ सतयुग की करनी ॥

कथा -


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