सच्ची तीर्थ यात्रा

June 1942

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एक बार देवताओं में आपसी विवाद उठ खड़ा हुआ कि हममें से कौन बड़ा और किसकी पूजा सब से पहले होनी चाहिए। सब अपने अपने को बड़ा बताते थे और अपनी ही पूजा पर जोर देते थे। झगड़ा जब बहुत बढ़ा, तो सब लोग मिलकर ब्रह्माजी के पास गये और कहा आप हमारा न्याय कर दीजिए कि हममें से कौन बड़ा है?

ब्रह्माजी ने सब की बात ध्यानपूर्वक सुनी और कहा, कहने मात्र से किसी की बात नहीं मानी जा सकती, मैं आप लोगों की परीक्षा करूंगा कि सचमुच आप में से कौन बड़ा है। देवता परीक्षा देने को तैयार हो गये।

ब्रह्माजी ने कहा-आप लोग पृथ्वी के समस्त तीर्थों की यात्रा कर आइये, फिर मैं देखूँगा कि किसने अधिक पुण्य कमाया है, जिसका पुण्य अधिक होगा, उसे बड़ा पद प्रदान किया जायेगा। आज्ञा पाते ही सब देवता अपने अपने वाहनों पर चढ़कर तीर्थ यात्रा के लिए चल दिए।

गणेशजी ने सोचा-भौतिक पुण्य बेचारे जड़ हैं वे किसी को क्या पुण्य फल दे सकते हैं। पुण्य का स्त्रोत तो आत्मा के अन्दर है। यदि आत्मा में परमात्मा को स्थापित किया जा सके, तो सारे तीर्थ घर बैठे ही प्राप्त हो सकते हैं। तीर्थों का फल भी तो भावना के अनुकूल ही होता है। अश्रद्धालुओं को तो तीर्थों से रंच मात्र भी लाभ नहीं मिल सकता। अधिक विचार करने पर गणेश जी को इन्हीं विचारों में सत्यता प्रतीत हुई, उन्होंने अन्तःकरण में परमात्मा की मूर्ति स्थापित की और सच्चे हृदय से उन्हें तीर्थ मान कर मन ही मन में परिक्रमा कर ली। वे अपने स्थान पर बैठे रहे, उठ कर एक कदम भी तीर्थों की ओर न चले।

देवता गण तीर्थ यात्रा समाप्त करके लौट-लौट कर आने लगे। गणेश जी सब से पहले बैठे हुए थे। ब्रह्माजी ने तीर्थ यात्रा का विवरण पूछना आरम्भ किया, सब लोग अपनी यात्रा का वर्णन करने लगे। अन्त में गणेश जी ने कहा- मैंने देखा कि सब से बड़ा तीर्थ आत्मा की पवित्रता है, मैं आत्म शोधन में लगा रहा हूँ और एक कदम भी हट कर कहीं नहीं गया हूँ।

ब्रह्माजी ने कहा- गणेश जी ने ही सच्ची तीर्थ यात्रा की है, तुम लोग तो मिट्टी, पत्थरों और नदी नालों पर सिर पटकते फिर हो। मैं गणेशजी को सब से बड़ा घोषित करता हूँ। शुभ कार्यों में उन्हीं की पूजा सब से प्रथम हुआ करेगी।


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