सच और झूठ

June 1942

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(महात्मा शेखवादी)

किसी अपराधी को एक बादशाह ने फाँसी का दंड दिया। कैदी कहीं दूर देश का रहने वाला था, उसकी भाषा भी दूसरी थी।

कहावत मशहूर है कि- ‘मरता क्या न करता’ कैदी जब अपनी जिन्दगी से निराश हो गया, तो उसने राजा को अपनी भाषा में खूब गालियाँ सुनाईं और अपने जी के गुबार निकाले।

राजा ने उसकी बेवकूफी को सुनकर कैदी की भाषा जानने वाले एक सरदार से पूछा कि- यह क्या कह रहा है?’

सरदार बड़ा विचारवान, दयालु और उदार था, उसने उत्तर दिया-जहाँपनाह ! कैदी की बकझक का मतलब यह है कि-’बन्दों के साथ सलूक करने वालों के साथ खुदा रहम करता है, सो हे महाराज, मुझे माफ कर दीजिए, अल्लाह की रहमत आप पर होगी।’ इस पर बादशाह को दया आई और उसने कैदी की जान बख्श दी।

इतने में उस कैदी की भाषा जानने वाला एक दूसरा सरदार भी उठ खड़ा हुआ। उसने बादशाह में कहा-’हुजूर, पहला सरदार झूठ बोल रहा है। कैदी ने वह बातें नहीं कहीं, जो आपको बताई जा रही हैं। उसने तो आपको जी भर के मन मानी गालियाँ दी हैं।’

राजा एक क्षण को दो परस्पर विरोधी बातों को सुनकर विचार में डूब गया। फिर उसने, उस सत्यवक्ता सरदार से कहा-”तुम्हारी सचाई से मैं उस सरदार की झुठाई को ज्यादा पसन्द करता हूँ। क्योंकि उसने एक आदमी की जान बचाने के लिए भले इरादे से वह बात कही थी। पर तुम तो अपना मर्तबा बढ़ाने के लालच से एक आदमी का खून कराने वाली बात कह रहे हो।”

बुद्धिमानों ने कहा है कि- जिस सचाई को कहने सुनने से बुराई बढ़े, उससे वह झूठ लाख दर्जे अच्छा है, जिससे भलाई पैदा होती हो और नेकी की नसीहत मिलती हो।

कथा-


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