एक बुढ़िया के चरखे का तकुआ टेढ़ा हो गया था। उसमें ठीक तरह सूत न कतता। बुढ़िया ने अपने लड़के को तकुआ ठीक कराने के लिए लुहार की दुकान पर भेजा। लड़के ने लुहार के हाथ में तकुआ दे दिया और कहा इसमें टेढ़ापन आ गया, कृपया उसे निकाल दीजिए।
लुहार ने तकुए को ले लिया और उसमें जहाँ टेढ़ापन था, वहाँ हथोड़े को चोट लगाकर ठीक कर दिया और अपनी मजदूरी माँगने लगा। लड़के ने कहा-जो टेढ़ापन आपने इसमें से निकाला है, वह मुझे दे दो, माता जी माँगेंगी। लुहार ने लड़के को बताया कि—भोले बच्चे, टेढ़ापन कोई चीज़ नहीं है। वह तो तकुए की एक हालत है, जो हथौड़े के लगने से ठीक हो जाती है और उसका सीधापन फिर वापिस आ जाता है। ऐसी हालत में तुम्हें टेढ़ापन वापिस कैसे दे सकता हूँ। लड़के ने कहा-जब आपने इसमें से कुछ निकाला ही नहीं, तो मज़दूरी किस बात की माँगते हो? दुकान पर बैठे हुए सब लोग हँसने लगे। लड़के की बात से लुहार बहुत खुश हुआ और बिना मजदूरी लिये ही उसको तकुआ दे दिया। लड़का चला गया।
दुकान पर बहुत लोग बैठे हुए हँस रहे थे कि लड़का कैसा बातूनी था। एक साधु भी वहीं बैठे हुए थे। उन्होंने कहा—भाइयो, यह घटना हमारी आत्मा के ऊपर ठीक तरह घटित होती है। जैसे टेढ़ापन कोई अलग चीज़ नहीं है, एक खयाली बात है वैसे ही मनोविकार कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। हथौड़े की एक चोट लगाते ही जैसे तकुआ फिर सीधा हो जाता है वैसे ही ज्ञान की एक ठोकर लगते ही आत्मा का सत्-चित् आनन्द स्वरूप अपने आप प्रकट हो जाता है।
लुहार ने कोई वस्तु न तो उस तकुए में से निकाली और न उसमें कुछ नई डाली। इसी प्रकार कोई उपदेशक न तो कुछ हमारे अन्दर से निकाल सकता है और न डाल सकता है। गुरु ज्ञान का हथौड़ा लगा कर हमारी टेढ़ी चाल को सीधी कर देता है, बस फिर चर्खा ठीक तरह सूत कातने लगता है। अपना उद्धार करने के लिये हम लोग बहुत सा मसाला इधर-उधर से इकट्ठा करते फिरते हैं, पर सच तो यह है कि हमें न तो कुछ अपना बाहर निकालने की जरूरत है और न बाहर से कुछ लेने की। यदि हम लोग अपना टेढ़ापन निकाल दें और स्वाभाविक सीधेपन पर आ जायें तो बस, फिर सब काम ठीक हो जाये, मनचाही वस्तु अपने आप प्राप्त हो जाये।