(ले—श्री दरबारीलाल जी, ‘सत्य-भक्त’)
मनुष्य वास्तव में अभी पशु है, वह पशु बल के आगे झुकता है, त्याग-तप और सेवा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। अगर मैं तलवार उठाये स्त्रियों को विधवा बनाना शुरू कर दूँ, बच्चों के बाप छीन लूँ, बुड्ढों के बच्चे छीन लूँ, तो वे ही लोग मेरे सामने सिर झुकायेंगे, सोना, चाँदी, हीरा, माणिक आदि की भेंट चढ़ायेंगे। मुझे अपना रक्षक और अन्नदाता कहेंगे, जिनके बेटों को भाइयों को और बापों को मैं तलवार के घाट उतारूंगा और आज जब मैं समस्त राज-वैभव त्याग कर, बिलकुल निरुप द्रव होकर, सेवक बनकर, जनता के सामने आया तो मुझे जनता ने खाने को क्या दिया? वही दिया जो मेरे यहाँ जानवर भी नहीं खा सकते थे। जिसे देखकर आँतें तक मुँह से निकलना चाहती हैं।
मार पापी कह रहा है-”मार्ष, मैंने तुम से कहा था न, दुनिया को तुम्हारे त्याग की परवाह नहीं है, उसकी दृष्टि में जैसे सैकड़ों भिखारी भीख माँगते फिरते हैं, वैसे तुम भी हो। तुम उसे इस तरह क्या दे पाओगे। लातों के देवता बातों से नहीं मानते। तुम घर में तीन वर्ष के पुराने सुगन्धित चावलों का भोजन करते थे। एक से एक बढ़कर रस पीते थे, वह सब तुम्हें यहाँ भी मिलता, अगर तुम राजा बनकर आते। आज तुम त्यागी बनकर आये, समझे होगे, अब मैं राजाओं से भी बड़ा हो गया, पर दुनिया ने तुम्हें क्या समझा? सिर्फ एक भिखारी। मार्ष भला चाहो तो अब लौट जाओ।” मन में बैठा हुआ पापी मार मौके बे मौके ऐसी ही चोटें किया करता है। पर मुझे नहीं जीत पाता। पापी मार ने जब मुझे ऐसे ताने मारे, तब मैंने उससे कहा-
मूर्ख, तू त्याग के रहस्य को क्या जाने। दुनिया पशु-बल के वैभव के और अधिकार के आगे झुकती है। त्याग की सेवा की कद्र नहीं करती। यह तो उसकी बीमारी है, जिसे मैं दूर करना चाहता हूँ। वैद्य अगर रोगी के रोग से घबरा जाये, तो वह उसकी चिकित्सा क्या करेगा। सन्निपात में रोगी वैद्य को गालियाँ भी देता है। लातें भी मारता है, पर वैद्य इन बातों का विचार कहीं करता। वह उसकी चिकित्सा करता है। मुझे उसकी चिकित्सा का विचार करना है। मूर्खता से किये गये अपमान या उपेक्षा पर ध्यान नहीं देना है। राजा बनकर मैं आदर पा सकता हूँ, पर अनन्त यश नहीं। वह यश तो अपने हृदय से निकलता है और जगत् की परवाह नहीं करता।
मेरी बातों से पापी निरुत्तर हो जाता है।
-नई दुनिया।