खतरे का घंटा बज रहा है!

April 1942

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आगामी क्षण कितने विषम, भयानक और चिन्ताजनक हैं, उनका आभास हर कोई समझदार व्यक्ति पा रहा है। खतरे का घंटा घनघोर गर्जना कर रहा है। भविष्य के गर्भ में कितनी वेदना छिपी हुई है, उसे कौन जानता है? कितनी सौभाग्यवती देवियों का सौभाग्य-सिन्दूर पुँछ जाएगा। कितनी माताएँ अपने बालकों के लिए विलाप करेंगी, कितने स्नेह-सम्बन्धी एक-दूसरे से सदा के लिए पृथक हो जाएंगे, कितने अमीर भिक्षा का ठीकरा हाथ में लिये हुए दर-दर भटकेंगे, कितने विशाल भवन खंडहर की तरह धूलि में लोटेंगे, यह सब निकटवर्ती समय हमें बता देगा। निस्संदेह राजा से रंक तक सभी को प्रज्ज्वलित अग्नि शिखाओं के बीच में से गुजरना पड़ेगा। कितने सौभाग्यशाली इन लपटों को चीरते हुए बिना दाग बाहर निकले यह देखना है। महाभारत की इन कराल डाढ़ों में से अछूते निकलने वाले व्यक्ति कितने होंगे, यह कौन जानता है। इन पंक्तियों को लिखते समय भारत के समुद्री तट पर बम वर्षा हो रही है। छप कर अंक पाठकों के हाथ में पहुँचते समय तक संकट कई दिशाओं में बढ़ चुकेगा। आगे की घड़ियों में तो कठिनाइयाँ बढ़ती ही जायेंगी।

यह समय न तो उपेक्षा का है और न लापरवाही में दिन बिताने का। हमें अपनी एक-एक घड़ी को बहुमूल्य समझ कर इस समय दत्त-चित्त होने की आवश्यकता है। इस समय निजी भौतिक वस्तुओं की रक्षा का अत्यधिक विचार करना योग्य नहीं है। क्योंकि प्रयत्न करने पर भी धन-सम्पत्ति की बहुत कम अंशों में रक्षा हो सकेगी। अपनी सम्पदा की जो जितनी रक्षा कर सकेगा, वह उतनी करेगा ही। इसके संबंध में न तो हमारा कुछ विशेष ज्ञान है और न कुछ कह ही सकते हैं। जिसे जो उचित सूझ पड़े करे। हमें तो अपने प्रत्येक पाठक का ध्यान उस वस्तु की ओर आकर्षित करना है जिसकी हानि वास्तव में हानि है और जिसका लाभ वास्तविक लाभ है। सारी संपदाएं जीवन के लिए हैं और जीवन आत्मा के लिए। बड़ी कठिनाई से मनुष्य योनि प्राप्त होती है। यही ऐसा मार्ग है, जहाँ से हमारे कल्याण का दरवाजा पास पड़ता है। इस अवसर को चूक जाने पर दूसरा अवसर फिर बड़ी कठिनाई से ही प्राप्त होता है।

आज उपेक्षा और लापरवाही का समय नहीं है। वरन् सब से अधिक सतर्कता के इन क्षणों का जोरदार तकाजा है कि—मनुष्य अपने महान् उद्देश्य का स्मरण करे, कहीं ऐसा न हो कि यह जीवन रूपी बहुमूल्य हीरा हाथ से चला जाए और इस अलभ्य अवसर के लिये सिर धुन-धुन कर पछताना ही शेष रह जावे। यह घड़ी हमारे लिए वैसी ही है जैसी उसकी शृंगी के शाप के पश्चात् राज परीक्षित की हुई थी। शाप के कारण सातवें दिन राजा की मृत्यु तक्षक सर्प के काटने से हो जाएगी। यह समाचार शमीक ऋषि द्वारा जब राजा के पास पहुँचाया गया तो वह सावधान हो गया। उसने धन सम्पत्ति की सुरक्षा, राज-पाट की व्यवस्था में अपना शेष समय नहीं बिताया वरन् सब ओर से चित्त हटा कर आत्म-कल्याण के मार्ग पर जुट गया। सारा जीवन वह माया के प्रपंचों में बिता चुका था, यदि इन स्वर्ण घड़ियों को भी वह गँवा देता तो निस्संदेह वह अपनी आत्मा के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात करता। दुनिया वाले “होशियार लोग“ कहते कि मरते वक्त राजा ने अपनी धन-सम्पदा को बेटे-पोतों के लिये खूब सुरक्षित करके रख दिया। परन्तु ज्ञानवान् आत्माएँ उसे परले सिरे का मूर्ख कहतीं और उसकी मूर्खता पर हंसती। धन किसका है? इस पृथ्वी को अपनी-अपनी कहते हुए बड़े-बड़े शक्तिशाली नृपति इसी में मिल गये हैं। सिकन्दर के हाथ अर्थी से बाहर निकले हुए थे कि मैंने इतना कमाया पर अन्त में खाली हाथ जा रहा हूँ।

खतरे की इन घड़ियों में पाठक धैर्य को हाथ से न जाने दें, सावधान रहें, कठिनाइयों का मुकाबला करें और अपनी भौतिक व्यवस्था के संबंध में स्वयं विचार करें। हमारी चेतावनी आध्यात्मिक व्यवस्था के संबन्ध में है। आत्मा कल्याण के लिए आन्तरिक पवित्रता आवश्यक है। हमारे हृदयों में हर घड़ी प्रभु का ध्यान होना चाहिए, एक घड़ी के लिए भी उन्हें बिसारना उचित नहीं। अपने अन्तःकरण में सत्य, प्रेम और न्याय को गहरा स्थान देना चाहिए। करुणा, दया, उदारता, प्रेम, सहानुभूति, सेवा, सत्य-निष्ठा आदि गुणों को निरन्तर अपने में धारण करना चाहिए। —”आप सर्वतो भावेन सत्यनारायण की शरण में अपने को समर्पण कर दें। बालक की तरह सत्य के अंचल में अपने को छिपा लें जहाँ कि बम और वायुयान कुछ भी असर नहीं कर सकते। नित्य प्रभु की प्रार्थना करना, बुराइयाँ त्यागकर भलाई अपनाना और शक्ति-संग्रह करना यह कार्य आज से ही आरम्भ हो जाने चाहिएं। सार्वभौम वातावरण को पवित्र बनाने के लिए आध्यात्मिक ब्रह्म यज्ञ की आवश्यकता है। शुभ विचार करना और कराना ही ब्रह्म यज्ञ है।” इन्हीं शब्दों को हम आज फिर दुहराते हैं और प्रत्येक पाठक से अपील करते हैं कि सत्यनारायण की शरण में अपने को अविलम्ब समर्पित कर दें। वर्तमान खतरे से बचने का सबसे सुरक्षित मार्ग यही है।


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