चिनगारी

April 1942

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(रचयिता—श्री गुरु प्रसाद शर्मा ‘विशारद्’)

चेतना है एक मुझ में ;क्षुद्र-सा व्यक्तित्व मेरा,

बन चमकती ज्योति सी हूँ। है; मगर मैं, जानती

मैं प्रबल पावक मयी हूँ; कौन-सी है शक्ति मुझ में;

मत गुनो खद्योत सी हूँ। बस; उसे पहचानती हूँ।

मैं न भूली हूँ कभी भी, मैं फिरूं निस्सीय में नित;

ज्वाल से है जन्म मेरा तपिश दिल में इक छिपाये।

बस सदा जलना-जलाना; उग्र हूँ, उद्याम हूँ मैं—

ही रहा है धर्म मेरा।कौन?, जो मुझको मिटाए।

खेलती हूँ मैं पवन में, मौत का मुझको नहीं भय;

नित नई रंगरेलियों से। वश्यतः, में मैं नहीं हूँ।

फूँक देती हूँ पलों को,पाठ बस अमरत्व का मैं;

तुच्छ सी अठखेलियों से। नित्यशः पढ़ती रही हूँ।

बन गया इस भाँति जीवन;

लोक में प्रत्यक्ष मेरा।

मैं निशांिकडडडडड बन गई हूँ;

प्रबल बन करती बसेरा।


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