(रचयिता—श्री गुरु प्रसाद शर्मा ‘विशारद्’)
चेतना है एक मुझ में ;क्षुद्र-सा व्यक्तित्व मेरा,
बन चमकती ज्योति सी हूँ। है; मगर मैं, जानती
मैं प्रबल पावक मयी हूँ; कौन-सी है शक्ति मुझ में;
मत गुनो खद्योत सी हूँ। बस; उसे पहचानती हूँ।
मैं न भूली हूँ कभी भी, मैं फिरूं निस्सीय में नित;
ज्वाल से है जन्म मेरा तपिश दिल में इक छिपाये।
बस सदा जलना-जलाना; उग्र हूँ, उद्याम हूँ मैं—
ही रहा है धर्म मेरा।कौन?, जो मुझको मिटाए।
खेलती हूँ मैं पवन में, मौत का मुझको नहीं भय;
नित नई रंगरेलियों से। वश्यतः, में मैं नहीं हूँ।
फूँक देती हूँ पलों को,पाठ बस अमरत्व का मैं;
तुच्छ सी अठखेलियों से। नित्यशः पढ़ती रही हूँ।
बन गया इस भाँति जीवन;
लोक में प्रत्यक्ष मेरा।
मैं निशांिकडडडडड बन गई हूँ;
प्रबल बन करती बसेरा।