कई पाठक हम से पूछते हैं कि “अखण्ड-ज्योति द्वारा जो सत्-धर्म का प्रचार किया जा रहा है। क्या यह कोई सम्प्रदाय है? उसका कोई धर्म-ग्रन्थ है? किस शास्त्र के आधार पर इसका निर्माण हुआ है? सत्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति को क्या करना चाहिये? क्या मानना चाहिये? क्या न मानना चाहिये? इन सब बातों का विस्तारपूर्वक उत्तर देने वाला कोई विधान होना चाहिये।”
पाठकों को जानना चाहिये कि ‘सत्-धर्म’ अत्यन्त प्राचीन सम्प्रदाय है। इससे पूर्व किसी भी धर्म की स्थापना नहीं हुई है। सृष्टि का निर्माण होने पर जीवों में जब चेतना-शक्ति उत्पन्न हुई और वे कुछ सोचने-विचारने लगे तो उनके सामने सबसे प्रथम यह प्रश्न आया कि ‘हमें क्या करना चाहिये?’ उस समय भाषा और लिपि का सुव्यवस्थित प्रचलन नहीं था और न कोई धर्म-पुस्तकें ही मौजूद थीं। शिक्षा देने वाले धर्म-गुरु भी दृष्टिगोचर न होते थे, ऐसी दशा में अपने अन्दर से ही पथ-प्रदर्शन करने वाली प्रेरणा जागृत होती थी और प्राणी उसी के अनुसार आचरण करते थे।
नटनागर ने त्रिगुणमयी सृष्टि का निर्माण करके बालकों को खेलने और अभ्यास करने के लिये तीन रंग की गेंदें फेंक दीं, कभी एक लुढ़कती, कभी दूसरी, बच्चे उनमें उलझने लगे। प्रकृति के साथ विकृति का जन्म हुआ। अल्लाह के साथ शैतान उत्पन्न हुआ और सत् के पीछे असत् पैदा हो गया। अल्लाह ने आदम को सब से पहिले आदेश किया था पीछे उन्हें शैतान ने बहका लिया। अन्तःकरण में से सत् की, औचित्य की, कर्त्तव्य की, धर्म की, पुकार सबसे पहिले उठती है, ईश्वर का सन्देश सबसे पहिले आता है, उसके पीछे ही पीछे शैतान की हरकत होती आई है। सत् असत् का द्वन्द्व प्राचीन काल से है। पर इसमें पहिले सत् ही उत्पन्न हुआ। सुर पहिले जन्मे, असुर उसके बाद। जीवन पहिले हुआ मृत्यु उसके बाद। वेद अनादि है इसका अर्थ यह है कि जीवों की अन्तरात्मा में सब से प्रथम सत्य धर्म का सन्देश आया। वेद की भाषा या मंत्र संहिता ईश्वर की लिखी हुई है, यह मान्यता ठीक नहीं, वास्तविकता यह है कि प्रबुद्ध आत्माओं के ऋषियों के अन्तःकरण में ईश्वरीय संदेश आये और उन्होंने उस सन्देश को मन्त्र की तरह रच दिया। प्रायः सभी धर्मों की मान्यता यह है कि उनका धर्म अनादि है, पैगम्बरों और अवतारों ने तो उनका पुनरुद्धार मात्र किया है।
तत्वतः सभी धर्म अनादि हैं। अर्थात् एक ही अनादि धर्म की शाखाएँ हैं। उनका पोषण, जिस वस्तु से होता है वह ‘सत्’ तत्व है। वही धर्म ठहर सकते हैं जो सत् पर अवलंबित हैं। असत् वंचना है वह अल्प-स्थायी होती है और वह बहुत जल्दी नष्ट हो जाती है। कोई भी संप्रदाय यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि हमारा धर्म ‘सत्’ पर अवलंबित नहीं है। इस लिये यह स्वीकार करना ही होगा कि सब से प्राचीन धर्म अनादि धर्म ‘सत्’ है और उसका आश्रय लेकर प्राचीन और अर्वाचीन मजहबों की रचना हुई है। इसलिये पाठकों को ऐसा न समझना चाहिये कि अखण्ड-ज्योति द्वारा प्रचारित ‘सत्-धर्म’ कोई नवीन संप्रदाय है। यह तो वही महान् तत्व है जिसे अनादि कह सकते हैं।
विभिन्न सम्प्रदायों के अपने-2 स्वतन्त्र धर्म-ग्रन्थ हैं। वेद, कुरान, बाइबिल, जिन्दावस्ता, धम्मपद आदि असंख्य धर्म-शास्त्रों में उसी महान् सत् की व्याख्या की गई है। अपनी-2 शक्ति के अनुसार इन महान शाखाओं ने सत् की व्याख्या की है, फिर भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ और अपने कथन की अपूर्णता स्वीकार करते हुए ‘नेति नेति’ ही कहते रहे। सभी धर्मों में नये सुधारक होते रहे और उन्होंने पुरानी व्याख्या को दोषपूर्ण बता कर अपनी रुचि के अनुसार सुधार किये। इन सुधारकों का कथन था कि उन्हें ईश्वर ने ऐसा ही सुधार करने के निमित्त भेजा है, उन्हें ऐसी ही ईश्वरीय प्रेरणा हुई है। बाइबिल और कुरान के संशोधन सर्वविदित हैं। वेदों का एक से चार हो जाना इसी सुधार का द्योतक है। इन सुधारकों में भी सुधार करने वाले होते आये हैं, और वे सब भी धर्माचार्य ही थे। संप्रदायों के मूल धर्म-ग्रन्थों की रचना और उनमें हुए संशोधन एवं एक-दूसरे की भिन्नता पर गंभीर पर्यावलोकन करने से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है कि विश्व के लाखों-करोड़ों धर्म-ग्रन्थ उस महान् ‘सत्’ की व्याख्या करने में लगे हुए हैं किन्तु कोई भी पूर्णता को नहीं पहुँच सका है। जब हजारों-लाखों धर्म-ग्रन्थों में सत् की व्याख्या पूरी नहीं हो सकी और अभी तक उनमें लगातार सुधार होते चले आ रहे हैं तो अखण्ड-ज्योति से ऐसे किसी धर्म-ग्रन्थ की आशा करना व्यर्थ है जो पूर्ण हो। पाठकों को किसी धर्म-ग्रन्थ की माँग करने से पूर्व इस बात पर विचार करना होगा कि यह शास्त्र आखिर हैं क्या? करीब तीन सौ धर्मों के प्रधान शास्त्रों का अध्ययन करके हम (सम्पादक) यह जान सके हैं कि उनकी अन्तरात्मा में ज्ञान और कर्म की विवेचना है। कुछ-2 इतिहास का भी सम्मिश्रण है। इतिहास को हम इस समय अलग छोड़ देते हैं। ज्ञान का मूलभूत सिद्धान्त, जो सभी धर्मों को मान्य है, वह यह है कि “सर्व शक्तिमान ईश्वर को प्राप्त करना चाहिये।” वह ईश्वर क्या है और कैसा है, इसकी व्याख्या में उसके गुण बताये गये हैं। वह अजर, अमर, निर्विकार, दयालु, दाता, क्षमा करने वाला, सत्य प्रेमी, उपकारी आदि है। इन गुणों वाले ईश्वर को प्राप्त करना चाहिये। अर्थात् जो शक्ति इन गुणों वाली है, उसे अपने अन्दर धारण करना चाहिये। सूर्य का सेवन करना अर्थात् उसकी किरणों का प्रयोग करना, अग्नि का उपयोग करना अर्थात् गर्मी को काम में लाना; ईश्वर को प्राप्त करना अर्थात् उसके जैसे गुणों वाला स्वयं बन जाना। तात्पर्य यह है कि जीव को उच्च-ईश्वरीय गुणों को प्राप्त करना, ईश्वर को प्राप्त करना, उसमें मिल जाना चाहिये। शास्त्रों की दूसरी व्यवस्था कर्म है। कर्म परिवर्तनशील है। वह घड़ी-घड़ी पर बदलता है। एक दिन-रात में आवश्यकतानुसार पचासों तरह के काम करने पड़ते हैं। वर्ष दो वर्ष बाद इन कर्मों का क्रम बिलकुल बदल जाता है और पुराना टाइम टेबल उस समय के लिये व्यर्थ एवं हानिकारक बन जाता है। बचपन की दिनचर्या को जवानी में और जवानी की दिनचर्या को बुढ़ापे में काम में लाने वाला मूर्ख कहा जाएगा। उसे इच्छा, या अनिच्छा से समय की प्रगति के साथ-2 कार्य-क्रम बदलना पड़ेगा। जाड़े के नियम गर्मी के दिनों में बेकार हैं।
“ईश्वर को प्राप्त करना चाहिये। “ यह मन्त्र सर्वसम्मत है। मतभेद इस बात में है कि ईश्वर में कौन-कौन से गुण हैं और उसे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। यह जिज्ञासु की मनोभूमि के ऊपर निर्भर है। अविकसित मस्तिष्क वाला जंगली मनुष्य यह समझता है कि चिड़ियों का अण्डा चढ़ाने से ईश्वर खुश होता है। एक देश के मनुष्य समझते हैं कि बकरी, गाय आदि की कुर्बानी करने से ईश्वर प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर के स्वभाव और गुणों के बारे में भी ऐसी ही विरोधी कल्पनाएं हैं। जंगली लोगों का ईश्वर बात-बात में नाराज हो जाता है और लोगों को विपत्ति में डाल देता है, जब कि ईसाइयों का परमात्मा प्रेममय है। लोगों का हृदय जितना विशाल होता जाता है, उतने ही उच्च गुण वह ईश्वर में आरोपित करते हैं। अर्थात् हर मनुष्य अपने वर्तमान जीवन की अपेक्षा ऊँचे गुण वाले ईश्वर को मानता है। विकास की सीढ़ी पर जैसे-जैसे कदम बढ़ाता है, वैसे ही वैसे वास्तविक तत्व के निकट पहुँचता जाता है। ईश्वर के गुण-स्वभाव का कोई ठीक-ठीक निर्धारण इस लिए नहीं हो सकता कि मनुष्यों की मनो-भूमि भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, इसलिए ईश्वर भी भिन्न-भिन्न प्रकार का ही होता है। हर आदमी का ईश्वर उसकी योग्यतानुसार अलग प्रकार का है, इसलिए धर्म-ग्रन्थों में ईश्वर सम्बन्धी मतभेद रचना आवश्यक है।
कर्म के विषय में भी पहिले ही कह चुके हैं कि रीति-रिवाजों का बदलना बहुत ही स्वाभाविक और आवश्यक है। नये अवतार पैगम्बर, ज्ञान (ईश्वर) और कर्म (रिवाजों) के सम्बन्ध में परिवर्तन करते रहे हैं और रहेंगे। इसका कारण यह है कि उनसे पहले पैगम्बर के समय की और इस समय की परिस्थितियों में अन्तर हो गया। यह परिवर्तन अत्यन्त आवश्यक है, इन्हें रोकना साँस रोकने जैसा कठिन है।
उपरोक्त पंक्तियों को ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद पाठक समझ गये होंगे कि धर्मग्रन्थों में क्यों परिवर्तन होते रहते हैं और उनमें परस्पर विरोध होने का कारण क्या है? मनुष्यों की मनोभूमि के अनुसार ईश्वर के, ज्ञान के, स्वरूप में अन्तर आता है और समय के अनुसार कर्मों में, रीति-रिवाजों में फर्क पड़ता है। इस प्रकार कोई भी धर्म-शास्त्र एक प्रकार की मनोभूमि वालों के लिए और एक समय के लिए ही उपयोगी हो सकता है। किसी के लिए कभी कोई शास्त्र उपयोगी है, तो किन्हीं के लिए कभी वह अत्यन्त हानिकारक भी हो सकता है।
अखण्ड-ज्योति मानती है कि आत्मा स्वतन्त्र, शक्तिवान् और प्रकाशस्वरूप है। उस पर नाना प्रकार के नियन्त्रण स्थापित करने की आवश्यकता नहीं है। केवल आत्मा के दैवी अंश को प्रोत्साहन देने और आसुरी अंश को दबाने की व्यवस्था करने से धर्मग्रन्थ की आवश्यकता पूरी हो सकती है। अब हमें नाना जंजालों से भरे हुए मत-मतान्तरों की ओर पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उनमें से बहुत सी वस्तुएं समय से पीछे की हो जाने के कारण निरुपयोगी हो गई हैं। उनसे चिपके रहने का अर्थ यह होगा कि हम अपने हाथ पाँव बाँधकर अपने को अंधेरी कोठरी में पटक लें। सभी धर्मग्रन्थों में गुण और सभी में दोष हैं। उनकी आधार शिला सत्य के ऊपर रखी गई है, इसलिए उनमें बहुत से गुण हैं; किन्तु मनुष्य ने उन्हें बनाया है, इसलिए मनुष्य में भी जो दोष होते हैं, वे भी उनमें मिल गये हैं। हमें सभी धर्मग्रन्थों का आदर करना चाहिए। हंस की वृत्ति ग्रहण करके उनमें से दूध को ले लेना चाहिए और पानी को छोड़ देना चाहिए। अब इतने धर्म-ग्रन्थ मौजूद हैं तो और नये ग्रन्थों की क्या आवश्यकता रह जाती है। जो भी नया धर्म शास्त्र बनेगा, वह उन्हीं गुण-दोषों से परिपूर्ण होगा, जिनसे कि पुराने ग्रन्थ भरे पड़े हैं।
सत् धर्म का सन्देश है कि-हे ईश्वर के प्राण प्रिय राजकुमारों! हे सच्चिदानन्द आत्माओं! हे नवीन युग के निष्कलंक अग्रदूतों! अपने अन्तःकरणों में ज्योति पैदा करो। अपने हृदयों के कषाय कल्मषों को मथकर निरन्तर धोते रहो। अपने अन्दर पवित्रता, निर्मलता और स्वच्छता को प्रतिक्षण स्थान देते रहो, इससे तुम्हारे अन्दर ब्रह्मत्व जागृत होगा, ऋषित्व उदय होगा। ईश्वर की वाणी तुम्हारे अन्तरात्मा का स्वयं पथ-प्रदर्शन करेगी और बतायेगी कि इस युग का धर्म क्या है, इस वर्तमान समय का कर्म क्या है? अब आप अनादि सत् धर्म को स्वीकार करते हैं, तो इन नाना प्रकार के जंजालों से भरी हुई पुस्तकों की ओर क्यों ताकें? सृष्टि के आदि में जब सत् धर्म का उदय हुआ था तो जीवों का पथ-प्रदर्शन उनकी अन्तरात्मा में बैठे हुए परमात्मा ने किया था, इसी को ‘वेद’ या आकाशवाणी कहा जाता है। आप पुस्तकों की गुलामी छोड़िए और आकाशवाणी की ओर दृष्टिपात कीजिए। आपकी अन्तरात्मा स्वतंत्र है, शक्तिमान है और प्रकाशस्वरूप है। वह आपको आपकी स्थिति के अनुकूल ठीक-ठीक मार्ग बता सकती है। यह मत सोचिए कि आप तुच्छ, अल्प और असहाय प्राणी हैं और आपको अन्धे की तरह किसी उंगली पकड़कर ले चलने वाले की जरूरत है। ऐसा विचार करना आत्मा के ईश्वरीय अंश का तिरस्कार करना होगा।
अखण्ड ज्योति कहती है कि हे सत् धर्म की दीक्षा देने वालों, अपने अन्दर सत्य को धारण करो। अपने अन्दर प्रेम को धारण करो। अपने आत्मा के सामने और परमात्मा के सामने सच्चे बनो। अपने अन्दर ऋषित्व को उत्पन्न करो, फिर अन्तर में बैठे हुए परमात्मा से पूछो कि हे हमारे अनादि सत् -धर्म के आचार्य ! हे सत्य नारायण प्रभु! हमें हमारे धर्म का उपदेश दीजिए, हमें हमारे कर्तव्य की शिक्षा दीजिए, हमारा पथ प्रदर्शन कीजिए। आप देखेंगे कि वेद का ज्ञान, आकाशवाणी का उद्भव, आपके अन्दर से ही होता है, हर समस्या के सम्बन्ध में एक सुलझा हुआ ठीक आदेश मिलता है, और वह गुरु धर्माधर्म का ठीक-ठीक निर्णय कर देता है। सत् धर्म मनुष्यकृत नहीं है, दैवी है। इसलिए इस धर्म का धर्मग्रन्थ मनुष्य द्वारा नहीं, अन्तः करण द्वारा निर्मित होगा। यह धर्मग्रन्थ आप सब लोगों के पास है। केवल अपनी दृष्टिशोधन करके नेत्रों के देखने के लिए सक्षम बनाने की आवश्यकता है।