तुम्हीं सर्वोच्च हो!

April 1942

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(स्वामी रामतीर्थ)

जब हमारे द्वारा कोई महान् और विचित्र कार्य सम्पादित होता है, तब उसका श्रेय लेना मूर्खता है, क्योंकि जब वह कार्य हो रहा था, तब यश का भी अहंकार बिल्कुल गैरहाजिर था, अन्यथा कार्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता । मैं कह रहा हूँ कि चेतना बिल्कुल गैरहाजिर थी। ईश्वर से अपने आप ही वह बात आई। इस प्रकार हम देखते हैं कि ये लोग तात्विक और महान लेखक कोई भी वे हों, अपने आचरणों से ही नहीं, अपनी देह के प्रत्येक रोम कूप से यह उपदेश देते और प्रचार करते पाये गये हैं कि —’जगत् मिथ्या है।’ यदि हम उनके समय के निर्णय को, सम्मति को ग्रहण करें, तब ये अपनी उत्कृष्ट दशा में होते हैं। शब्दों की अपेक्षा कार्य जोरों से बोलते हैं, प्रभाव डालते हैं। समर में हम महान शूरों और नायकों को देखते हैं, अपनी श्रेष्ठ दशा से वे लड़ते रहते हैं। गोलियाँ दनादन और सनासन उनके आस पास मंडराती रहती हैं। वहाँ गोली है, यहाँ घाव है, खून उनकी देहों से वेग से बहता रहता है, उनके शरीर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। ऐसी दशा में पीड़ा-पीड़ा ही नहीं है व्यवहारतः शरीर, शरीर नहीं है; और न बाहरी दुनिया—दुनिया है। उद्योग की भाषा में वह जगत् और शरीर को मिथ्या कर रहा है। इस तरह तुम्हारे नैपोलियन, तुम्हारे वाशिंगटन और दूसरे सब अपने कामों के द्वारा तुमसे कहते हैं कि तुच्छ बनाने वाली बुद्धि की उपेक्षापूर्वक जब वास्तविक आत्मा जो अखिल तेज है, अपना सिक्का जमाता है, तब दुनिया कुछ नहीं है, सच्चा अपना आप जो पूर्ण ज्ञान और परमशक्ति है, एक मात्र कठोर सत्य ही है, जिसके सामने जगत् की बाह्य सत्यता घुल जाती है।


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