अपचितः प्रपतत सुपर्णो बसतेरिक सूर्यः कृणोतु भेषजं चन्द्रमा वोपोच्छतु।
अथर्व0 6 । 3। 3
(अप चितः) हे हानिकारक व्याधियों! (प्रपतत) दूर जाओ (इव) जैसे (सूपर्णः) तेज उड़ने वाला पक्षी (बसतेः) अपने घोंसले से निकल जाता है। (सूर्यः) सूर्य (भेषजम्) चिकित्सा (कृणोतु) करे (वा) तथा (चन्द्रमा) चन्द्रमा (उप उच्छतु) समीप होकर प्रकाश करे।
भावार्थ—सूर्य की प्रचण्ड शक्ति समस्त रोगों की चिकित्सा करती है। शरीर की जीवनी शक्ति सूर्य द्वारा ही संचित होती है। रक्त के रोग विनाशक श्वेत कीटाणुओं को बल सूर्य की किरणों द्वारा ही मिलता है। जब हम सूर्य भगवान का तेज अपने अन्दर धारण करते हैं, तो समस्त हानिकारक व्याधियाँ इसी प्रकार दूर भाग जाती हैं, जैसे पक्षी अपने घोंसले को छोड़ कर सूर्योदय होने पर दूसरी जगह चले जाते हैं। चन्द्रमा के प्रकाश में शीतलता और स्निग्धता के गुण हैं।
उत पुरस्तात् सूर्य एति विश्व दृष्टो अदृष्ट हा।
दृष्टाँश्च घ्नन्नदृष्टाँश्च सवाँश्च प्रमृणान् किमीन्॥
अथर्व 5। 23। 5
(पुरस्तात्) पूर्व दिशा में (सूर्यः) सूर्य (अतएति) उदय होता है, (विश्वदृष्टः) सब उसको देखते हैं, (अदृष्ट हो) जो सूक्ष्म रोग जन्तु हमें दिखाई देने वाले को (घ्नन्) मारता हुआ (च) और (अदृष्टान्) न दिखाई देने वाले (सर्वान्) जितने प्रकार के भी हैं, उन सभी (क्रसीन्) रोग कीटाणुओं को (प्रमृणन्) नष्ट करता हुआ, सूर्य उदय होता है।
भावार्थ—नाना प्रकार के रोग कीटाणुओं से हमारी रक्षा करने वाले सूर्य हैं। वे अदृष्ट रोग जन्तुओं का निरन्तर संहार करते रहते हैं। दिखाई देने वाले ज्वर, क्षय, खाँसी, संग्रहणी आदि प्रबल रोग सूर्य द्वारा अच्छे होते हैं और जो रोग प्रकट नहीं हुए हैं वरन् गर्भ में ही हैं, उन्हें भी सूर्य का तेज नाश कर देता है जब सूर्य उदय होता है, तो समस्त रोग बाधाओं को नाश करता आता है।
या रोहिणीर्देवत्या जावो या उत रोहिणीः।
रुपं रुपं वयोवयस्ता भिष्ट्वा परि दध्मसि॥
अथर्व0 1 । 22 । 3
जो देवता सम्बन्धी काल सूर्य किरणें हैं, वे लाल गौवें हैं, उनको रूप और बल के अनुरोध उनके साथ तुझको चारों ओर धारण करते हैं, पुष्ट करते हैं।
भावार्थ—सूर्य की लाल किरणों की उपमा वेद से लाल गौओं से दी गई है, जैसे गौएँ उत्तम दूध देकर हमारे शरीरों को परिपुष्ट करती हैं, बल वीर्य को बढ़ाती हैं, अशक्तता और निर्बलता को दूर करती है, उसी प्रकार लाल किरणों में भी अनेक गुण हैं। वे रोगों के पंजे से छुड़ा कर शरीर को पुष्ट करती हैं, बलवान बनाती हैं।
परित्वा रोहितैर्वणै र्दीर्घायुत्वाय दध्मसि।
यथा यमरपा असदथो अहरितों भुवत्॥
अथर्व 1। 22। 2
दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिए तुझको लाल रंगों से चारों ओर धारण करता हूँ। जिससे यह निरोग हो जाये और फीकेपन से रहित हो जाय।
भावार्थ—जिन्हें दीर्घायु प्राप्त करने की इच्छा हो; जो अधिक काल तक जीवित रहने की इच्छा करते हों, उन्हें सूर्य की लाल किरणों का सेवन करना चाहिए। फीकापन, निस्तेजता, कफ प्रकोप, आलस्य, मलीनता को इन लाल किरणों की महानता से बड़ी सुगमतापूर्वक दूर किया जा सकता है।
अनुसूर्य मुदयताँ हृदयो तो हरिमा चते।
गो रोहितस्य वर्णन तेनत्वा परि दध्मसि ॥
अथर्व 1। 22। 1
तेरा पीलापन, पाण्डुरोग तथा हृदय की जलन, हृदय रोग, सूर्य की अनुकूलता से उड़ जाय। गो के तथा प्रकाश के उस लाल रंग से तुझको सब ओर धारण करता हूँ।
भावार्थ—सूर्य की लाल किरणों में पीलिया, पाण्डु, हृदय की जलन, हृदय रोग, आदि अनेक रोगों को दूर करने की बड़ी प्रचण्ड शक्ति भरी हुई है। जो उनको गो-दूध की तरह सेवन करते रहते हैं, वे निरोग रहते हैं।
उपरोक्त मंत्रों में सूर्य की लाल किरणों का वर्णन किया गया है। पीली, नीली, आदि सप्त रंग की किरणों में सब गुण हैं। सूर्य के सप्त मुखी घोड़े यह सात रंगों की किरण ही हैं। इनके गुणों को जानने वाला व्यक्ति अमृतपाणि होकर यशस्वी चिकित्सक बन सकता है।
उत् सूर्यो दिव एति पुरो रक्षाँसि निजूर्वन् आदित्वः पर्वतेभ्यों विश्व दृष्टों अदृष्टहा।
अथर्व 6। 52। 1
(विघ्व दृष्टः भदृष्ट हा) सबको दिखाई देने वाला अदृश्य रोग जन्तुओं को मारने वाला (आदित्यः) नाश रहित (सूर्य) सूर्य (दिवः) गुगर से (पर्वतेभ्यः) पर्वतों से (उत् एति) उदय होता है, (पुर) अपने आगे आगे (रक्षाँसि) नाना प्रकार के रोग क्रिमियों को (निजूर्दन्) नष्ट करता जाता है।
भावार्थ—अविनाशी सूर्य नाना प्रकार के दृश्य और अदृश्य रोग जन्तुओं का नाश करता हुआ आगे बढ़ता है। जिन स्थानों पर सूर्य की किरणें पहुँचती हैं, वहाँ रोग नहीं ठहर पाते।