धर्म सेवन का आनन्द प्राप्त कर लेने वालों का उत्साह उन्हें चैन से नहीं बैठने देता। वे हर किसी को जोर देकर कहते हैं कि सत्य को अपनाओ और आनन्द में निमग्न रहो।
कम हो, पर होंगे अवश्य। जहाँ रामलीला -रासलीला होती हैं, सिनेमा- नाटक होते हैं, वहाँ उन्हें देखने वाले भी मौजूद रहते हैं। यदि इनका मंचन न हो तो, दर्शक भी वहाँ इकट्ठे न होंगे। इस प्रकार गोर्की के अनुसार दृश्य ही वह मूलभूत कारण है, जो द्रष्ट बनने के रास्ते में रोड़े अटकाता है। यदि दृश्य को समाप्त कर दिया जाए, तो दर्शक भी स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे और फिर जो उत्पन्न होंगे, वह द्रष्ट होंगे। यहाँ दृश्य का तात्पर्य बनावटीपन से, आडम्बर से है। यदि इसे छोड़ लोग साधारण जीवन अपना लें, तो रूसी लेखक के अनुसार लक्ष्य प्राप्त की काफी कठिनाइयाँ हल हो जायेंगी।
प्रख्यात अंग्रेज विचारक बट्रैण्ड रसेल ने अपनी पुस्तक ‘ह्नाट डज बैक लक मीन?’ में लिखते हैं कि आज की व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं में से अधिकाँश का आधारभूत कारण यही हैं कि वर्तमान में हमने स्वयँ के अन्दर झाँकना बन्द कर दिया है। अब हम अन्दर की बजाय बाहर झाँकना अधिक पसन्द करते हैं। इसी बाह्य दृष्टि ने इन दिनों इतनी विपत्तियां खड़ी कर दी हैं। इनका समापन भी तभी संभव हो सकेगा, जब हम अंतर्दृष्टि विकसित कर सकेंगे। वे लिखते हैं कि इससे कम में कदाचित इसका हल शक्य न हो सके।
इस स्थान पर विद्वान अंग्रेज दार्शनिक और विख्यात रूसी लेखक की मान्यताओं में काफी साम्य दिखाई पड़ता है। रूसी ग्रंथकार ने भी तीन प्रकार के मनुष्यों में सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ तीसरी कोटि के मनुष्यों को ही माना है और इस बात पर बल दिया है कि वर्त्तमान समस्याओं का आत्यन्तिक हल इसी में है कि हम दर्शक नहीं दृष्ट बनें। यहाँ दर्शक और दृष्ट में एक मूलभूत अंतर हैं। दोनों ही कहीं न कहीं खोये होते हैं, पर उनका स्थान भिन्न भिन्न होता है।
दर्शक रेडियो, टी.वी., सभा सम्मेलन, भाषण-संभाषण, वाद-विवाद, वार्तालाप, मेले-ठेले आदि को देखने सुनने में अपने को भूल जाता, सुध-बुध खो बैठता है। जब तक यह कौतुक चलते रहते हैं, तब तक वह आत्मसत्ता को भूल जाता है और आत्म विहीन जड़वत् प्रतीत होता है, किन्तु दृष्ट! वह खोता तो जरूर है, मगर स्वयँ में, अपने अंतराल में अपने अंतःकरण में। इसमें डुबकी लगाकर वह अपनी कमियों, त्रुटियों को हटाने मिटाने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि दर्शन यदि आत्म विस्मरण की अवस्था है, तो दृष्टपन आत्म-स्मरण की।
अब यहाँ एक प्रश्न उभरता है कि दृष्ट बना कैसे जाए? क्या कुछ जप ध्यान कर लेने मात्र से ही व्यक्ति दृष्ट कहलाने का अधिकारी हो जाता है? रूसी मनीषी का कहना है कि, नहीं, इतने ही से कोई दृष्ट नहीं बन सकता। वे कहते हैं कि दृष्ट के भीतर का भाव ही यही है कि वह अपने अंतस् में डुबकी लगाये और अपनी उन कमियों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर बाहर निकाले, जो उसके दृष्टपन को प्रकट होने देने में बाधक हैं।
स्पष्ट है- दृष्ट के लिए अपने निज का स्रष्टा होना भी आवश्यक है, उसे अपना सृजन कर सुगढ़ता में बदलना भी अनिवार्य है, तभी वह यह संबोधन प्राप्त कर सकता है। यदि वह भी आत्म सृजन के संदर्भ में जनसामान्यों जैसा ही बना रहा, तो असामान्य अथवा असाधारण कहलाने का विशेषण कैसे प्राप्त कर सकेगा? निश्चय ही दृष्ट के लिए सृष्ट होना भी उतना ही अनिवार्य है। जितना जीवन के लिए प्राण वायु। इसी प्रक्रिया से मानव महामानव बनते और नर-नारायण की, भूसुर की पंक्ति में जा खड़े होने की गौरव - गरिमा अर्जित करते हैं। हम दर्शक नहीं, दृष्ट बनें।