आत्मशोधन की परिमार्जन प्रक्रिया

December 1991

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उपासना का प्रथम चरण है- आत्मशोधन। आत्मशोधन के बिना उच्चकोटि की साधनायें भी निष्फल चली जाती हैं। अतएव सर्वप्रथम वर्तमान और भावी जीवन को पवित्र परिष्कृत बनाने की योजना बनायी जाती है एवं पिछले पापों एवं कुसंस्कारों के कारण आत्मिक प्रगति के पथ पर अवरोधों की तरह अड़े रहने वाले दुष्कृतों का निवारण परिमार्जन प्रायश्चित प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। प्रायश्चित का अर्थ गिड़गिड़ाना या सस्ते मोल में विधि-विधान से बच निकलना नहीं, वरन् क्षतिपूर्ति करना है। दुष्कर्मों से अपने अंतःकरण को विचार संस्थान को तथा कार्यक्रमों को जिस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों से भर दिया गया था, उसी साहस और प्रयास के साथ इन तीनों संस्थानों के परिमार्जन, परिशोधन एवं परिष्कार की प्रक्रिया को प्रायश्चित कहा गया है। इससे सदाशयता और साहसिकता तो बढ़ती ही है, साथ-साथ सफलता की प्राप्ति भी सुनिश्चित हो जाती है।

कर्मफल अकाट्य है। बन पड़े पाप कर्मों को तरकस से छोड़े गये तीर की तरह वापस तो नहीं लौटाया जा सकता, पर यह उपाय पीछे भी संभव रहता है कि प्रायश्चित करके उस दण्ड भार को काफी हल्का किया जाय। इसका एक प्रत्यक्ष लाभ यह है कि अंतःकरण पर चढ़ा हुआ दुष्चिंतन और आत्म-धिक्कार का भार हल्का हो जाता है। पापकृत्यों, दुराचारों के फलस्वरूप उत्पन्न आत्मग्लानि और आत्म प्रताड़ना से छुटकारा पा सकना प्रायश्चित के अतिरिक्त और किसी प्रकार के उपाय में संभव नहीं हो सकता। इसलिए भारतीय धर्मशास्त्रों में पाप निवारण का एक मात्र उपाय प्रायश्चित निर्धारित किया गया है।

अंगिरस स्मृति- 4/1 में प्रायश्चित की विवेचना करते हुए कहा है-

प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते।

तपो निश्चय संयोगात् प्रायश्चितमिति स्मृतम्॥

‘प्रायः’ का अर्थ तप है और ‘चित्त’ का अर्थ निश्चय है। तप और निश्चय के संयोग से प्रायश्चित होता है। इसका प्रारम्भ सर्वप्रथम पाप परिमार्जन और आत्मशोधन के लिए साहस पूर्वक कदम बढ़ाने से होता है,साथ ही इसमें गायत्री की सामान्य साधना तथा उच्चस्तरीय साधना का नियोजन किये रहना पड़ता है। इस आधार पर खड़ी हुई साधना तपश्चर्या के सफल होने में फिर कोई अड़चन शेष न रह जाती।

शास्त्रों में प्रायश्चित के चार चरण बतायें गये हैं- (1)पश्चाताप (2)पाप का प्रकटीकरण (3) दण्डरूप व्रत उपवास जप तप अनुष्ठान आदि कृत्य करना और (4) क्षतिपूर्ति या ऋणमोचन। यह चार चरण मिला देने से ही प्रायश्चित का एक समग्र स्वरूप बनता है।

प्रायश्चित का प्रथम चरण है- पश्चाताप। इसमें जीवन भर के दुष्कर्मों की सूची बनाकर उसके द्वारा दूसरों को पहुँची हानि का स्वरूप मन को समझाना होता है। दुष्कर्मों के फलस्वरूप अपनी आत्मा को, अनीति पीड़ितों को तथा परोक्ष रूप से अन्यान्यों को जो क्षति पहुँचती हैं उस पर विचार करने से हर विवेकशील के मन में दुख होता है। यह ऐसा दुख ही पश्चाताप है। यदि ऐसा दुख नहीं उपजा, उलटे पाप समर्थन की धृष्टता बरती जाती रही - अनुचित को उचित सिद्ध किया जाता रहा तो समझना चाहिए कि ऊपर से ही लीपापोती की जा रही है। पाप की जड़े जहाँ की तहाँ है। वे अवसर पाते ही फिर फूलेंगी--फलेंगी और पुनरावृत्ति होती रहेगी।

पश्चाताप का स्वरूप है- सच्चे मन से दुखी होना। भूल की भयंकरता का अनुभव करना और भविष्य में इस प्रकार के आचरण न करने के लिए सच्चा संकल्प करना और उसे कठोरता पूर्वक निबाहना। इतना कर चुकने पर ही प्रायश्चित की यथार्थता सामने आती है। पश्चाताप की महत्ता का उल्लेख करते हुए विश्व पुराण में कहा गया है-

पाश्चात्तापः पापकृताँ पापानाँ निष्कृतिः परा।

सर्वेषा वर्णितं सद्भिसर्वपाप विशोधनम्॥

पश्चात्तापेनैव शुद्धिः प्रायश्चितं करोति सः।

यथोपदिष्ट सद्भिर्हि सर्वपाप विशोधनम्॥

अर्थात् पाप कर्म में संलिप्त व्यक्तियों के लिए पश्चात्ताप ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है। मनीषियों ने महर्षियों ने सच्चे मन से किये गये पश्चाताप को ही समस्त पापों का शोधक बताया है। पश्चात्ताप से ही पापों की शुद्धि होती है। जो पश्चात्ताप करता है, वही वास्तव में पापों से मुक्ति प्राप्त करता है, ऐसा सत्पुरुषों का कथन है।

प्रायश्चित का दूसरा चरण है- पाप का प्रकटीकरण। इस उपक्रम में दुष्कर्मों का चिंतन कर आत्म-विश्लेषण करना, उन्हें पुनः नहीं दोहराने का संकल्प एवं विज्ञजनों महामानवों के समक्ष उनका प्रकटीकरण करते हुए प्रायश्चित का संकल्प करना होता है। इससे कई लाभ होते है। मन के भीतर जो दुराव की गांठें बँधी रहती हैं, वे खुलती हैं। मनोविज्ञान शास्त्र का सुनिश्चित मत है कि मनोविकारों के, दुष्कर्मों के दुराव से मानसिक ग्रंथियाँ बनती हैं और वे अनेकों मानसिक व शारीरिक रोगों के रूप में उभरती रहती हैं। मनः चिकित्सा शास्त्री मानसिक रोगियों से उसके पिछले जीवन के घटनाचक्र को विस्तार पूर्वक बताने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इसमें अप्रकट दुरावों का यदि प्रकटीकरण हो गया तो रोग का निराकरण सरल हो जाता है। आरोग्यशास्त्र की नवीनतम शोधों ने भी यह निष्कर्ष निकाला है कि रोगों की जड़ें शरीर में नहीं, वरन् मानसिक विकृतियों के रूप में मन में जमी रहती है। रोगों की चिकित्सा में औषधि उपचार का जितना महत्व हैं उससे कही अधिक मानसिक परिशोधन का अंतः शुद्धि का है। यह कार्य पिछले किये हुए दुष्कर्मों की जड़ काटने के रूप में प्रायश्चित की प्रकटीकरण प्रक्रिया के सहारे ही संभव हो सकता है।

ईसाई धर्म में दो अवसरों पर पापों का प्रकटीकरण आवश्यक माना जाता है। एक ईसाई धर्म की दीक्षा -’बपतिस्मा’ लेते समय। दूसरे मरण काल के पूर्व। दोनों ही अवसरों पर मनुष्य को अब तक के अपने पाप पादरी के सम्मुख निताँत एकाँत में कहने होते हैं। ‘बपस्तिमा’ और मरणकाल में इस स्वीकारोक्ति को “कन्फैशन” को उस धर्म में अत्यंत पवित्र और आवश्यक माना गया है। एकाँत में वह व्यक्ति अपने जीवन के प्रमुख पाप कर्मों को प्रकट करता है। पादरी उसके समाधान की प्रार्थना करता है। इस प्रकार जी हल्का करके मरने का निश्चित रूप से सत्परिणाम होगा और उससे आत्मा को शाँति, सद्गति मिलेगी। हिन्दू धर्म में भी श्रावणी पर्व पर हेमाद्रि संकल्प के साथ इसी प्रकार का प्रकटीकरण हर साल करते रहने का विधान है। इसके अतिरिक्त जब भी पाप बने तभी उसके प्रकटीकरण एवं प्रायश्चित का विधान संपन्न करने की परम्परा है। उन्हें जितने समय तक छिपाये रखा जाता है, उतना ही चक्रवृद्धि दर से उसका भार बढ़ता चला जाता है। शास्त्रों में कहा गया है-

‘आसम्वत्सरं प्रायश्चिताकरणे पापद्धैगुण्यम्।’

अर्थात् एक वर्ष तक किसी पाप कर्म का प्रायश्चित न किया जाये तो पाप दुगुना हो जाता है। अतः पाप का प्रायश्चित यथा समय अवश्य करना चाहिए। प्रकटीकरण से मन की ग्रंथियाँ खुलती हैं और उससे शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक स्वास्थ्य सुधार का सुनिश्चित लाभ मिलता है। पर पाप कर्मों का इस तरह प्रकटीकरण हर किसी के सामने नहीं किया जाना चाहिए अन्यथा जोखिम ही जोखिम है। वरन् प्रकटीकरण के लिए सत्पात्र की तलाश करनी चाहिए, इसके लिए यथाकथित शुभचिंतक मित्र नहीं, वरन् सद्भाव संपन्न उदार हृदय तत्वदर्शी, सद्गुरु ही उपयुक्त हो सकते हैं।

सुधार, सद्भावना, उदार क्षमाशीलता और चिकित्सक जैसी उदार सहृदयता जिनके भीतर हो, मात्र वे ही पाप प्रकटीकरण के अधिकारी हो सकते हैं। वे ही पिछली दुखद घटनाओं की उचित समीक्षा कर सकते हैं। उन्हीं से प्रायश्चित का स्वरूप निर्धारित करने में सहायता मिल सकती है। प्रकटीकरण की इस महत्ता का उल्लेख करते हुए महाभारत अनुशासन पर्व में कहा गया है-

‘तस्मात् पापं गृहेत गुहमानं विवर्धयेत्।

कृत्वा तत् साधुष्वरवमेयं ते तत् शमयन्त्युत ॥ “

अतः अपने पापों को छिपायें नहीं, छिपाया हुआ पाप बढ़ता है। यदि कभी पाप बन गया हो तो उसे साधु -महापुरुषों से कह देना चाहिए वे उसकी शाँति कर देते हैं।

प्रकटीकरण के उपराँत तीसरा चरण प्रतीकात्मक दण्ड व्यवस्था एवं तप-तितिक्षा का आता है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत अपने ऊपर दण्ड ऐसे दबाव डालना होता है जिनकी स्मृति देर तक बनी रहे और उस परिवर्तन की छाप को अंतः चेतना गहराई तक धारण कर ले। प्रायश्चित रूप से अपने आप दण्ड देने की यह पद्धति तप-तितिक्षा नाम से शास्त्रों में वर्णित की गयी है। इसमें अपने को शारीरिक, मानसिक यत्किंचित् कष्ट देकर स्मृति पटल पर दुर्घटना का स्वरूप और दुष्परिणाम अंकित किया जाता है। इससे भावी पुनरावृत्ति की आकाँक्षा बहुत हद तक घट जाती है।

ऐसी तितिक्षाओं में कई तरह के व्रत उपवास सम्मिलित हैं। चाँद्रायण, कृच्छ, चाँद्रायण, सन्तापन व्रत, पंचगव्य प्राशन, अस्वादव्रत आदि इसी प्रकार के हैं। मौनव्रत, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन, ग्रीष्म तथा शीत सहन जैसी तितिक्षायें भी अमुक समय तक करने का विधान बनाया जाता है। जप, अनुष्ठान, पाठ आदि भी इस संदर्भ में कराये जाते हैं। केश मुण्डन, तीर्थ स्नान, आदि कितने ही विधानों का शास्त्र में उल्लेख मिलता है। इन सब में थोड़ी सी शारीरिक एवं मानसिक कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ती हैं। इससे अनीति आचरण के दुष्परिणाम और छोड़ देने के लिए किये गये संकल्प का ध्यान भविष्य में भी बना रहता है। यह अंतः चेतना पर परिवर्तन की छाप छोड़ने का अच्छा उपाय है। इसलिए इस तीसरे चरण को प्रायश्चित विधान में समुचित स्थान दिया गया है।

चौथा चरण सबसे प्रमुख एवं आवश्यक है। प्रथम तीन चरणों को उसका भूमि का भाग माना जा सकता है। प्रायश्चित का यह अंतिम प्रभावशाली चरण है- क्षतिपूर्ति या ऋण विमोचन। जो लिया है उसे वापस लौटाना है। जो हानि पहुँचाई है, उसकी भरपाई करनी है। सड़क पर गड्ढा खोद कर यदि दूसरों के लिए उसमें गिरने का कष्टकारक आचरण किया गया है तो उसकी क्षतिपूर्ति इसी प्रकार होगी कि जितना श्रम गड्ढा खोदने में किया गया था, उतना ही उसे पूरा करने के लिए किया जाय। गड्ढा पट जाने पर ही उस अनाचार की भरपाई होगी, जिसके कारण अनर्थ होता रहा। विघातक कृत्य के वजन का विधेयात्मक कार्य करने पर ही संतुलन बनता है और क्षतिपूर्ति संभव होती है। अतः पाप कर्मों के द्वारा व्यक्ति की, समाज की नैतिक, आर्थिक एवं अन्य प्रकार की जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई सत्प्रवृत्ति संवर्धन से उतना ही श्रम लगाकर की जा सकती है। दूसरों को गिराने के लिए जो खाई खोदी गयी थी, उसे पाटने के लिए समतल बनाने वाला श्रम नये सिरे से लगाने पर ही संतुलन बनेगा और प्रायश्चित संभव होगा।

यहाँ यह स्मरणीय है कि सारा समाज एक शरीर है। उसके किसी भी अंग को क्षति पहुँचाई गई हो तो पूरे शरीर की हानि मानी जायगी। आवश्यक नहीं कि हानि जिस रूप में पहुँचाई गई हो उसे उसी रूप में वापस लौटायी जाय। लोकहित के किसी भी श्रेष्ठ काम में उस ‘वापसी’ को लगाया जा सकता है। इस प्रयोजन में धन एवं श्रम का अधिकाधिक उपयोग लोक मंगल के कार्य में लगाया जा सकता है। प्रायश्चितों के साथ शास्त्रों में दान-पुण्य के विधान भी जुड़े रखे गये हैं। इनमें धन-दान और श्रम-दान दोनों की ही व्यवस्था है। क्षतिपूर्ति इसी रूप में हो सकती है। अनीति उपार्जित उपलब्धियों को सत्प्रवृत्ति संवर्धन के किसी श्रेष्ठ काम में लगाया जा सकता है। अशोक, अंगुलिमाल, चण्ड, सदन कसाई, अम्बपाली, पिंगला, वेश्या आदि ने अपनी अनीति उपार्जित धन-संपदा प्रायश्चित स्वरूप बौद्ध धर्म के प्रचार विस्तार में समर्पित कर दी थी। जिसकी जो हानि की, उसी की तलाश करना और उसी रूप में वापस करना उनके लिए संभव भी न था।


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