महाकाल की हुँकारें अब गूँज रही,
उन्हें न हम पल भर भी अब अनसुनी करें।
चारों तरफ प्रमाद, अकर्मण्यता भरी,
यहाँ सभी सोये, अधसोये लगते हैं,
मुसकाने तो शिष्टाचार बनीं केवल,
सभी हृदय से रोये-रोये लगते हैं,
यह दुहरे व्यक्तित्व न ओढ़े हम बिल्कुल,
मन न और आश्वासन से हम यहाँ भरें।
अंतरिक्ष-यानों में ऊपर जा कर भी,
दिन-पर-दिन हम अधोमुखी होते जाते,
सुख सुविधाओं का अम्बार लगा जितना,