आकाश में बादल बरसने की तरह नव युग का ऐसा आगमन नहीं होने वाला है जिसे दैवी अनुग्रह से बिना पुण्य के ही सब कुछ घर बैठे उपलब्ध हो जायेगा। छप्पर फाड़ कर संपत्ति बरसने की आशा किसी को भी नहीं करनी चाहिए। इसके लिए सूझ-बूझ, त्याग, साहस और पराक्रम को उपयुक्त मात्रा में जुटाना होगा। गिराने और बिगाड़ने में थोड़ा समय लगता है। पर यदि उसे नये सिरे से बनाना हो तो कुशल कारीगरों की, उपयुक्त निर्माण सामग्री की, और निर्माण कृत्य के अनुभवी इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। जो इतना जुटा लेते हैं, उन्हीं को दैवी अनुग्रह से मिलने वाला श्रेय और जन साधारण द्वारा मिलने वाला यश सहयोग भी हस्तगत होता है।
संसार बहुत बड़ा है। उसमें इन दिनों प्रायः 600 करोड़ व्यक्ति रहते हैं। इनमें से हर एक को उलटा सोचने और उलटा करने की अवाँछनीयता से विरत करना है। नये सिरे से वह सिखाया और अभ्यास में उतारना है जिसे अगले दिनों अनिवार्य रूप से अपनाना पड़ेगा। परिवर्तन की बेला सदा जटिल होती है। इसे प्रसव वेदना के समतुल्य समझा जा सकता है। अण्डे का कलेवर तोड़कर जब बच्चा बाहर आता है तो फिर विचित्र खींचतान करनी पड़ती है। मकान छोड़ने, बदली होने पर भी कई असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। उसे संपन्न करने के लिए बढ़े चढ़े कौशल एवं साहस का परिचय देना होता है।
सतयुग ऋषि युग था। उन्हीं का पराक्रम और बाहुल्य ही धरती को स्वर्ग बनाये रखने और मनुष्य में देवत्व उभारने में सफल होता था। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ परिव्राजक जैसे समर्थ पुरोहित राष्ट्र को, विश्व को जाग्रत जीवंत बनाये रहने की जिम्मेदारी उठाते थे और विश्व व्यवस्थाएँ भी बनी रहती थीं जिसे स्वर्गादपि गरीयसी कह कर संबोधित किया जाता था।
आज पुरोहित वर्ग के पुरातन स्तर के पाँचों वर्ग गड़बड़ा और लड़खड़ा गये हैं। उनमें से अधिकाँश को, स्वर्ग मुक्ति की, बिना परिश्रम के सम्मान तथा दान दक्षिणा बटोरने की ललक बनी रहती है। निर्धारित दायित्वों को निभाने वाले कदाचित ही कहीं दीख पड़ते हैं। विश्व परिवर्तन के आधार भूत कार्य लोक मानस के परिष्कार को इसी वर्ग के लोग कर सकते हैं। अध्यवसाय समय और लोक मंगल के प्रति समर्पण की रीति-नीति अपनाकर वे ऐसा प्रखर व्यक्तित्व विनिर्मित कर पाते हैं कि लोक श्रद्धा के अधिकारी बनने के साथ-साथ अन्य अनेकों की गलाई ढलाई का कठिन कार्य संपन्न कर सकें।
आवश्यकता इन दिनों इसी वर्ग की है। जनसंख्या में कहीं कोई कमी नहीं। अनेक प्रकार की योग्यताओं और चतुरता के धनी भी इस धरती पर भरे पड़े हैं। पर इस कोयले की खदान में बहुमूल्य हीरे को ढूँढ़ निकालना कठिन हो रहा है। हनुमान, अंगद, भरत, जामवंत जैसों की मण्डली न बनती तो लंकाकाण्ड राम राज्य के सतयुग में कैसे बदलता, पाण्डव उभरकर आये न होते तो महाभारत कैसे जीता जाता? समय की पुकार युग सृजेताओं की है। पुरातन काल में वे उपरोक्त पाँच वर्ग के थे, पर अब तो अपने को ही सिख धर्म के पाँच प्यारों की तरह अग्रिम पंक्ति में खड़ा करना पड़ेगा। इसका नया नाम ‘व्रतधारी प्रज्ञा पुत्र’ दिया गया है।
उदारता घर से आरंभ की जाती है। दूसरों से त्याग और सृजन के निमित्त पराक्रम अपनाने और साहस दिखाने के लिए किस मुँह से कहा जाय। अपना उदाहरण प्रस्तुत किये बिना दूसरों से ‘पर उपदेश कुशल’ कहकर कुछ वैसा नहीं कराया जा सकता जिसकी इन दिनों निताँत आवश्यकता पड़ रही है। यह कार्य घर से ही आरंभ करना पड़ेगा। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने बच्चों को अग्रिम मोर्चों पर खड़ा किया था। कुन्ती और मदालसा ने अपने पुत्रों को आदर्श प्रस्तुत करने के लिए आगे धकेला था। बुद्ध और अशोक के बच्चे भी पितृ परम्परा निभाने के लिए बिना ननुनच किये पुण्य परम्परा निभाने के लिए कटिबद्ध हुए थे।
युग परिवर्तन का यह अभूतपूर्व स्तर का पुण्य पर्व है। ऐसा संधिकाल भविष्य में फिर कभी किसी को भूमिका प्रस्तुत कर सकने के लिए मिल सकेगा, इसकी आशा नहीं ही की जानी चाहिए। ऐसे भविष्य के शुभारम्भ के लिए किन्हें छाँटा जाय? उपयुक्त यही लगा कि अपनों को ही अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह भेदन के निमित्त भेजा जाय।
सर्वविदित है कि अखण्ड-ज्योति के पृष्ठो पर मात्र विचार प्रतिपादनों का ही उल्लेख नहीं रहता, वरन् उसमें ऐसी प्राणवान प्रेरणाएँ भी भरी रहती हैं कि पाठकों के मन, मस्तिष्क और अंतराल को भी हिलाकर रख दें। उपयुक्त मार्ग दर्शन प्रदान करें और ऐसा साहस भी जिसके सहारे आदर्श निर्वाह का कठिन दिखने वाले मार्ग पर उल्लास पूर्वक चलते जा सकें। यही कारण है कि इस परिकर के वाचक प्रकारान्तर से युग सृजन के क्रिया कलापों में किसी न किसी प्रकार नियमित रूप से लम्बे समय से भाग लेते चलें आ रहें हैं।
इन सबके समय दान, अंशदान के समन्वय से नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्राँति की दिशा में इतना अधिक कार्य बन पड़ा है, जिसके बिना किसी प्रचार विज्ञापन के विश्व के कोने कोने में अपने लिए श्रद्धा-विश्वास का प्रगाढ़ वातावरण बना लिया है। साथ ही यह आशा अपेक्षा दशों दिशाओं में उभरी है कि 21वीं सदी के संभावित महान परिवर्तन का श्रीगणेश इसी परिवार में होने जा रहा है। बात एक सीमा तक सही भी है। राजतंत्र, अर्थतंत्र, स्वेच्छा सेवी तंत्र, कला तंत्र, साहित्यिक तंत्र, प्रचार तंत्र अपने-अपने ढंग से प्रगति प्रयोजनों के लिए काम कर रहे हैं। लाँछन धर्म तंत्र पर ही लगता रहा है कि उसके पास व्यक्तियों, साधनों और सामानों की कमी न होने पर भी नव सृजन की दिशा में ऐसा कुछ नहीं किया जा रहा है जिससे उज्ज्वल भविष्य की आशा अपेक्षा उभरे।
अखण्ड ज्योति परिवार के परिजनों ने पिछले इक्यावन वर्षों में सृजन और सुधार की दिशा में जो कुछ किया है उसकी तुलना में उन्हें कई गुना पुरुषार्थ प्रस्तुत करना है। युग संधि के शेष नौ वर्ष इसी तैयारी में जुट जाने की विशेष अवधि है। ऐसी अवधि को समय की पुकार और युग धर्म की गुहार कह सकते हैं।
यों करने को तो पुनरुत्थान के क्षेत्र में बहुत कुछ पड़ा है, पर प्रारम्भ में थोड़े और छोटे से ही हो सकता है। भूमि पूजन एक छोटे स्थान में ही होता है।भले ही भवन निर्माण की परिधि कितनी ही विस्तृत क्यों न हो। छात्रों को आरंभ में कुछ अक्षर ही पढ़ाये जाते हैं, भले ही आगे चलकर वह स्नातकोत्तर परीक्षाएं पास करता ही क्यों न चला जाय? नये बछड़ों के कंधों पर थोड़ा ही वजन रखा जाता है, भले ही उसे आगे चलकर कितनी ही लम्बी मंजिल क्यों न पार करनी पड़ें। 21वीं सदी बहुमुखी परिवर्तन साथ लेकर आ रही हैं, उनमें अनेक स्तर की प्रतिभाओं के बहुउद्देशीय योगदान सम्मिलित होंगे। सामर्थ्य के धनी अपनी-अपनी विशेषताओं के अनुरूप महान परिवर्तन में महती भूमिका संपन्न करेंगे। पर अपने परिवार की योग्यता सीमित रहते हुए भी वे भावना की प्रबलता के अनुरूप कुछ कहने योग्य कदम उठायेंगे, ऐसे कदम जिनके अनुकरण की उत्कंठा अन्य असंख्यों को मिल सके। एक से पाँच पाँच से पच्चीस बनते चलने का क्रम चक्रवृद्धि रीति से गुणन विद्या के अनुरूप साथी-सहयोगियों का इतना विस्तार कर सकेगा जो समूचे मानव समुदाय को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करेगा।
इस प्रकार क्रियाकलापों में संलग्न होने वाले अखण्ड-ज्योति के परिजन ‘व्रतधारी प्रज्ञापुत्र’ कहलावेंगे। इन्हें तैयार तो स्थानीय प्रज्ञा मण्डल ही करेंगे, पर उन्हें कुम्हार के अवे की तरह पकाया शाँतिकुँज में जायेगा। इससे वे युगशिल्पी नल-नील की, अंगद-हनुमान की भूमिका निभा सकने के लिए इस महाक्राँति के अंशधर बन सकेंगे। जो 21वीं सदी से “सतयुग की वापसी” बनकर इस धरती पर प्रत्यक्ष प्रकट होने आ रही है जिसमें बहुत कुछ सुधरा और बदला दिखाई पड़ेगा। आशा की जानी चाहिए कि 21वीं सदी की महाक्राँति के लिए युगसंधि के शेष नौ वर्ष में ही व्रतधारी प्रज्ञापुत्रों-की सृजन शिल्पियों की संख्या लाखों को पार कर करोड़ों में जा पहुँचेगी और सृजन तथा सुधार का दुहरा मोर्चा सँभालने के लिए कटिबद्ध हो सकेगी।