“धियो यो नः प्रचोदयात्”

December 1991

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“वत्स! तुमने अपने अभिवादन से कौटिल्य को गौरवाँवित किया है। जिनकी यशोगाथा हिमवान् के शुभ्र शिखरों से लेकर आसिन्धु भारत भूमि को पवित्र करती है। उनके मेधावी पुत्र जिसके अंतेवासी होने पधारे वह धन्य हुआ।” मगध के चक्रवर्ती सम्राट जिसके सम्मुख सेवक के समान कर बद्ध खड़ा होता था। वे आचार्य चाणक्य गदगद कंठ कश्मीर से आये युवक को अपनी भुजाओं पर बाँधे वक्ष से लगाये थे। उन राजनीति के परम चतुर सदा शुष्क कहे जाने वाले के नेत्रों में भावबिन्दु चमक रहे थे।

“आर्यावर्त आज आर्य की बुद्धि से श्रीसंपन्न है।” विनम्र ब्राह्मण युवक ने झुककर चरण स्पर्श किये। “पिता ने मुझे ‘धी’ की प्राप्ति का आदेश दिया है और आज देश में आर्य ही एक मात्र उसके ज्योति केन्द्र है।”

उस सुन्दर विशिष्ट विद्वान युवक को विश्राम की आवश्यकता थी। सुदूर कश्मीर की यात्रा करता वह मगध पहुँचा था। अपनी कूटी में ही आचार्य ने उसे आवास दिया था। चाणक्य के शिष्य गुरु का इंगित न समझ सके तो उनका शिष्यत्व कैसा? वे अपने नवीन सहचर की सुव्यवस्था तथा सत्कार में स्वतः लग गये। पर विश्राम उसके मन को शान्त न कर सका। रह रह कर उसके मानस पटल पर पिता का सौम्य चेहरा उभर उठता। अभी तो उसके द्वारा कहे गये शब्द उसके मस्तिष्क में सक्रिय थे। उस दिन काशी से लौटने के बाद वे कह रहे थे ‘नीलकण्ठ! विद्या वाग्देवी का वैभव है, किन्तु सारे जीवन को अनुभव ने मुझे बता दिया यह सर्वोपरि नहीं है। आशा भरी दृष्टि से उन्होंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा था ‘पिता का अपूर्ण कार्य जो पूर्ण कर दिखाये, पुत्र होना उसी का सफल हुआ। मेरे पिता की आकाँक्षा शास्त्रार्थ जयी होने की थी। उसे पूर्ण करने में जीवन लगा दिया मैंने किन्तु ब्रह्मणत्व दूसरे को पराजय देने में नहीं है। विशुद्ध निर्मल ‘धी ‘ ब्राह्मण का धन है, तुम उसे उपार्जित करो।

इस प्रेरणा को जिज्ञासा में परिवर्तित कर वह आचार्य के सम्मुख बैठ कर पूछ रहा था “आर्य” ‘धी’ का स्वरूप क्या है?” गाय के गोबर से लिपी भूमि पर मृगचर्म बिछाकर कृष्ण वर्ण दीर्घारुण नेत्र, भारतीय नीति शास्त्र को साकार मूर्ति के समान आचार्य चाणक्य जब अपना प्रातः कृत्य करके, अग्नि को आहुतियाँ देकर विराजमान हो गये तब वह नवयुवा कश्मीर का आगत छात्र उनके सम्मुख वेदिका के नीचे कुशासन पर आ बैठा था। उसके नेत्र और मुख की आकृति कहती थी कि जिज्ञासा उसमें सचमुच जगी है।

कौटिल्य दार्शनिक नहीं नीतिज्ञ है वत्स! आचार्य गम्भीर हो गये। तुम्हारी आँखों की बनावट और मस्तिष्क की रेखायें कहती हैं कि तुम्हारी प्रतिभा जब जागेगी उसका आलोक विश्व को चमत्कृत कर देगा, तुम्हारे जैसे मंत्री पाकर मगध अपने को कृतार्थ मानेगा। तुम राजनीति में रुचि........।

“मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा।” दो क्षण चाणक्य मौन रहे। उन्होंने देख लिया कि उनका प्रयास असफल रहा है। उनके इस नवीन छात्र को राजनीति में कोई आकर्षण नहीं। अतः उसके प्रश्न का उत्तर दिया उन्होंने “बिना दर्शन के कोई विद्या पूर्ण नहीं होती, अतः चाणक्य दर्शन से अपरिचित है, ऐसा भी कहा नहीं जा सकता, धी एक धायक शक्ति है। वह पदार्थ नहीं हैं। इसे अभिव्यक्त करने वाले अंतःकरण की व्यवस्था के अनुरूप इस तत्त्व की अनुभूति होती है।

युवा छात्र आचार्य की बातों को पूर्ण गम्भीरता और तल्लीनता से सुन रहा था। आचार्य उसके मनोभावों को पढ़ते हुए कह रहे थे तमस् प्रधान अंतःकरण भी यह धी तत्व बुद्धि बनकर अभिव्यक्त होता है और उसकी अनुभूति हिंसा, छल आदि कार्यों में होती है। रजस् प्रधान अंतःकरण में यही विवेक है। राज्य व्यवस्था आदि कार्य इसकी अनुभूति के क्षेत्र हैं। सत्व प्रधान अंतःकरण में धी तत्व की अभिव्यक्ति प्रज्ञा बनकर होती है। साधना शक्ति की खोज में तन्मयता उच्चस्तरीय तत्वों का चिंतन आदि कार्यों में इसकी अनुभूति होती है। परन्तु ये तीनों प्रकार किसी न किसी गुण के आधीन होने के कारण विशुद्ध नहीं हैं।

“विशुद्ध धी......युवक ने पूछने का उपक्रम मात्र किया। ‘चाणक्य अर्थ और काम का विद्वान है वत्स! आचार्य ने बड़े स्नेह से देखा उसकी ओर। ‘तुम आज और रुको।’

राजनीति के कठिनतम प्रश्न जिसके माथे पर एक भी आकुँचन लाने में समर्थ नहीं हुए थे, वे आचार्य चाणक्य आज गम्भीर थे। वे एक साम्राज्य के सूत्रधार थे। अभीप्सुओं की जिज्ञासा को समाधान प्राप्त हो इसकी व्यवस्था क्या राज्य का कर्तव्य नहीं? पर विशुद्ध धी की अनुभूति करा पाना क्या राज्य व्यवस्था की शक्ति सीमा में है?

कश्मीर से कोरा हाथ हिलाते ही तो वह यहाँ नहीं आ गया था। कश्मीर ही कहाँ तपस्वी साधकों एवं सिद्धों से रहित है? स्वयं शिवाचार्य विद्यमान है वहाँ और उनका अनुग्रह प्राप्त हैं युवक के श्रद्धेय पिता को।

प्रज्ञा और प्राण को एक करके साधक जब मूलधार से उठती परावाणी को जीवन में अवतरित कर पाता है, उसके जन्म जन्म के कलुष उस धवल धारा में धुल जाते हैं। प्राणों से अवतरित परावाणी ही पिण्ड में जाह्नवी का अवतरण है। लेकिन प्रत्येक जिज्ञासु किसी एक ही साधन का अधिकारी तो नहीं होता, शिवाचार्य ने देख लिया था कि वह उनके कुल का नहीं है।

योगी चन्द्रनाथ मिले थे मार्ग में उन्होंने स्वतः परिचय किया था उससे। परीक्षण के पश्चात बोले ‘तू-जन्मान्तर का साधक है। आशाचक्र तक तेरी कुंडलिनी मासार्ध में पहुँच जायेगी यदि तू साधना प्रारम्भ करें। भ्रमर गुहा होकर बिन्दु बेध करते सहस्रार में पहुँचकर शून्य शिखर से ऊपर सत्स्वरूप में अवस्थित होने में तुझे अधिक समय अपेक्षित हो ऐसी संभावना नहीं है।’

जिनका अनुग्रह पाने की अच्छे साधक आकाँक्षा करते हैं, उन योग सिद्ध चन्द्रनाथ की सहायता का लोभ भी उसे आकर्षित नहीं कर सका। उसकी उदासीनता से चकित चन्द्रनाथ ने नेत्र बन्द कर लिए और जब ध्यान से उठे तो शिथिल स्वर से बोले- “तेरी उपेक्षा उचित है। तु इस कुल का नहीं है।”

मुझे मोक्ष की लालसा नहीं है। उसने कई सिद्ध साधुओं को यह उत्तर दिया है- “मेरा क्या होता है। इसकी चिंता मैं नहीं करता। पिता ने मुझे एक आदेश दिया है, वह जीवन में पूर्ण न भी हो तो भी मुझे संतोष रहेगा यदि मैं उसे प्राप्त करने के प्रयत्न में लगा रहा।”

पता नहीं उसका रूप था जिज्ञासा थी पिता की ख्याति थी या उनकी तितिक्षा थी क्या था? कुछ ऐसा अवश्य उसमें था, जो मिलने वाले उत्कृष्ट विद्वानों, साधकों, सिद्धों को उसकी ओर आकृष्ट कर लेता था। उसे महापुरुषों की कृपा मार्ग में प्राप्त होती रही यह उसने अपने लिए परम सौभाग्य माना। इतने पर भी उसकी जिज्ञासा का समाधान नहीं मिल सका।

आचार्य चाणक्य ने नवीन आगन्तुक से यह सब विवरण प्राप्त कर लिया था। कुशल राजनीतिज्ञ सम्पूर्ण परिस्थिति पहले जानना चाहता था। लेकिन परिस्थिति के परिचय ने समस्या को सरल करने में कोई सहायता नहीं की। समस्त भूमण्डल के विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला बुद्धि की पहेली में उलझा था। जिज्ञासु ब्राह्मण कुमार को निराश लौटा देना भी आचार्य का हृदय भी स्वीकार नहीं करता था।

“वत्स! सभी जिनके अपने हैं उन ‘धी’ तत्त्व की परमाधिष्ठात्री की शरण में जाओ। बहुत चिंतन मनन के बाद चाणक्य इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे। ‘धी’ अपने विशुद्ध रूप में ऋतम्भरा है। परन्तु अनुभूति करा पाना किसी व्यक्ति के बूते की बात नहीं। तुम कुछ काल यहाँ निवास करो और अपने को शान्त बनाकर उनकी कृपा पाने की चेष्टा करो।

आचार्य के शब्द उसकी शिराओं में विद्युत की भाँति दौड़ गये। योग दर्शन का सूत्र तस्य प्रज्ञा ऋतम्भरा उसके मस्तिष्क में उद्भासित हो उठा साथ ही जाग्रत हो उठी “धी” तत्व की परमाधिष्ठात्री ‘गायत्री’ महाशक्ति की मंत्र के रूप में शब्द मूर्ति।

अगले दिन प्रातः संध्या के लिए गंगा तट पर ही बैठ गया था। अभी गीले केशों से जल बिन्दु टपक रहे थे। संध्या का संकल्प करके अंगन्यास बोलते-बोलते चौक गया वह। मन में मंत्र का उत्तरार्ध जैसे स्वयँ जाग्रत हुआ -”धियो यो नः प्रचोदयात्।”

धी तत्व के प्रेरक हैं भगवान सविता। प्रतिदिन संध्या कर रहा है बाल्यावस्था से और अब तक इस तथ्य पर दृष्टि नहीं गयी। लेकिन केवल मंत्र जाप अथवा पाठ मात्र से कोई ऋषि नहीं हो जाता। मंत्र जब हृदय में स्वयँ प्रकाशित होता है। उस अद्भुत आलोक का वर्णन वाणी कैसे करे? किन्तु हुआ यह दीर्घकालीन अभ्यास के कारण। इसी महामंत्र के आश्रय ने उसे बुद्धि विवेक प्रज्ञा की क्रमिक अवस्थाओं के बाद आज चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया। जो मानव विकास की श्रेष्ठतम अवस्था है।

सूर्योपस्थान करके वह गंगा तट पर स्थिर खड़ा हो गया था। उसकी वाणी मूक थी। किन्तु उसका मौन स्तवन किसी शब्द की उपेक्षा कहीं अधिक श्रद्धा सबल हो गया था।

आज उसके नेत्र भास्कर की ज्योति से विचलित नहीं हो रहे थे। वह ज्योर्तिमय सूर्यमण्डल को प्रत्यक्ष देखे जा रहा था? क्या? यह क्या? उसका शरीर पुलक प्रपूरित हो गया॥

“धियो यो नः प्रचोदयात्।” अचानक हृदय से परावाणी प्रकट हुई और उसने देखा विशुद्ध धी अपने मातृरूप में सूर्य मण्डल के मध्य विराजमान है। आद्यशक्ति की करुणा से उसका अणु-अणु आप्लावित है।

इन क्षणों में वह अनुभव कर सका विशुद्ध “धी” स्वयं आत्मा यही सविता है। अपने क्रियाशील रूप में यही गायत्री है। इस महामंत्र के आश्रय से अपनी जिज्ञासा का समाधान करने वाले उस युवक नीलकण्ठ को विश्व मनीषा प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रतिष्ठापक के रूप में जान सकी॥


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