अवसर को पहचानने की सूझ-बूझ

December 1991

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सच्चे मित्र, सच्चे परिजन एवं हृदय से जुड़े संबंधी कितने हैं? इसकी एक कसौटी है, विपरीत परिस्थिति आने पर कितनों ने साथ दिया, सहायता की, गिरतों को ऊँचा उठाया एवं उठतों को उछालने में किनने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। यों स्वार्थी मित्रों, परिजनों एवं तथाकथित अपने कहलाने वालों की कमी नहीं है, जो अपना उल्लू सीधा करने तक लम्बी चौड़ी डींग हाँकते हैं एवं आड़े समय में दुम दबाकर ऐसे भाग खड़े होते हैं, मानों दूर-दूर तक उनका उनसे कोई संबंध ही नहीं, सोचते हैं इस झंझट में कौन पड़े। वृथा परेशानी होंगी, कष्ट उठाना पड़ेगा। यह तो इसका एक पक्ष है पर इसका दूसरा उज्ज्वल और महत्वपूर्ण पक्ष भी है, जिसमें वैसे ही लोगों की सराहना होती है, प्रमाणिक माने जाते हैं और समाज में सम्मान पाते है। जो किसी ऐतिहासिक समय के आड़े अवसर पर भागीदारी निभाते हैं। चिरस्मरणीय, अभिनन्दनीय एवं वंदनीय वही बन पाते हैं।

आज ऐसा ही समय आ उपस्थिति हुआ है। महाकाल हमें पुकार पुकार कर इसमें अपनी भागीदारी निभाने और अपना नाम शुनःशेपों में लिखा लेने का आमंत्रण दे रहा है। इतिहास साक्षी है जिसने भी आड़े समय में साथ दिया है, वह घाटे में नहीं रहा है।भगवान राम के आड़े समय में काम आने वाले रीछ, वानर, भालू, गिलहरी गीध धन्य हो गये और ऐतिहासिक श्रीराम के सच्चे संबंधी कहलाये। उस काल में बड़े बड़े राजा महाराजाओं का भी अस्तित्व था, किन्तु राम के सुखी समय तक ही अपना उल्लू सीधा करने के लिए वे हाँ में हाँ मिलाते रहे एवं आवश्यकता पड़ने पर अपना मुँह फेर लिया।

गाँधी जी के स्वतंत्रता आन्दोलन को भी आपत्ति काल के नाम से जाना जाता है। इस गहरायी तमिस्रा में दीपक की तरह जलने वाले एवं अपनी आहुति देने वाले लोग धन्य हो गये। उनके नाम स्वर्ण अक्षरों में अब भी अंकित हैं। वास्तव में उन्होंने समय को पहचान कर विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य का साथ दिया। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन आन्दोलन के समय भी अनेक धनवान एवं संपन्न लोग थे, किन्तु आगे आने वालों में अम्बपाली, अशोक, अंगुलिमाल जैसे गिने चुने सर्वस्व दान कर परिस्थितियों को बदल देने में समर्थ हुए। प्रताप के प्रतिकूल समय में काम आने वाले भामाशाह की तरह उन्हीं दिनों कितने ही लोग थे, किन्तु भामाशाह के आगे आने पर लोग भामाशाह को आज भी याद करते एवं प्रेरणा ग्रहण करते है। इतिहास इन्हें ही महापुरुष, देवमानव, महामानव, शहीद, सूरमा जैसे उपनामों से अलंकृत करता है। इनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सामान्य प्रचलन एवं प्रवाह से हटकर होते हैं। ये प्रवाह में, हवा के रुख में नहीं बहते वरन् एक ऐसा रास्ता तैयार करते हैं, जिसे नूतन और साहसिक कदम की संज्ञा दी जा सके। फिर उनका अनुगमन करने वाले अनेकों तैयार हो जाते हैं एवं उस पथ पर चल कर श्रेय और सौभाग्य के अधिकारी बनते हैं।

रात्रि में सभी जीव जन्तु चर-अचर प्रगाढ़ निद्रा में सोते हैं, उस समय समय का प्रवाह ऐसा कुछ होता है, जिसके कारण न चाहते हुए भी व्यक्ति को सोना पड़ता है। जबकि इस समय चोर-उचक्कों से सावधान एवं सचेत रहना अत्यंत अनिवार्य है। इन परिस्थितियों में जो चौकीदारी का काम करते हैं, उनकी महत्ता सामान्य लोगों से अधिक मानी जाती है। उन्हें अधिक वेतन भी मिलता है एवं उनकी ईमानदारी, जिम्मेदारी और वफादारी को देखते हुए समय-समय पर उपहार- पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है।

सुरक्षा बल में कुछ ऐसे विभाग होते हैं जिन्हें रिजर्व बल की संज्ञा दी जाती है। इन्हें सामान्य सिपाही की अपेक्षा अधिक सुविधा साधन उपलब्ध रहता है। प्रश्न उठता हैं आखिर क्यों? इसका एक मात्र उत्तर है सामान्य प्रचलन से हटकर चलने का पुरस्कार। 24 घण्टे में वे हमेशा तैयार मिलते हैं। इन्हें रात में चैन नहीं मिलता, जब चाहें तब इन्हें कहीं भी मोर्चे पर भेजा जा सकता है। इनकी प्रतिभा, पराक्रम एवं जीवटता सामान्य सिपाहियों से बढ़ चढ़कर होती है। अवरोधों से लड़ना एवं खतरों से टकराना इनके स्वभाव का एक अनिवार्य अंग होता है। भारतीयों की इसी प्रखरता को देखकर इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री बोल पड़े थे “यदि भारत के सैनिक हों एवं इंग्लैण्ड की रसद, फिर हमें दुनिया की कोई ताकत हरा नहीं सकती।” यह है ढर्रे के जीवन से उलटा चलने का इनाम-इकराम।

यही बात औद्योगिक क्षेत्र में भी लागू होती है, जापान एवं जर्मनी इतने महाविनाश के बाद ऊँचाई के इतने सर्वोत्तम शिखर पर कैसे पहुँचे इसका एक उत्तर है - अपनी जीवट का परिचय देकर। औद्योगिक क्षेत्रों में सामान्यतया लोग 8 घण्टे श्रम करते हैं। शेष समय यूँ ही। बेकार भुगतने में गुजार देते हैं किन्तु जापान एवं जर्मनी वासियों ने देशभक्ति का परिचय इस रूप में दिया कि देश के लिए अधिक से अधिक उत्पादन करने के लिए जी जान से जुट पड़ा जाय। उन देशों के उस काल में श्रमशीलता को देखने से पता चलता है कि प्रत्येक उद्योग चौबीस घण्टे चला करते थे। विषम परिस्थिति में सीमित जनशक्ति द्वारा उत्पादन बढ़ाने का यही मात्र उपाय था। इसके साथ ही उन्होंने प्रामाणिकता और राष्ट्र के प्रति निष्ठ बरकरार रखी। फलतः जापान जिसकी द्वितीय विश्व युद्ध समय में इस प्रकार से कमर टूट चुकी थी पुनः अपने धवल रूप में उभरा और आज स्थिति यह हैं कि अमेरिका अर्थव्यवस्था को उसने बुरी तरह चरमरा दिया है। यह आड़े समय की जागरुकता -सक्रियता और सच्ची निष्ठा का प्रतिफल है।

ब्रह्म मुहूर्त के स्वर्णिम काल में समस्त प्राणियों को मंगल प्रभाती सुना कर विहान की पूर्व सूचना देने वाले मुर्गे की महत्ता क्या कम उल्लेखनीय है। भले ही इनका यह उपक्रम मोटी दृष्टि से नगण्य सा लगता हो, पर ग्रामीण जानते हैं कि उनके लिए मुर्गे की बाँग कितनी महत्वपूर्ण और उपयोगी है। जिस समय को आम लोग सुखद निद्रा का समय मानते हैं, उस काल में भी सजग रहते हुए अपने त्याग का परिचय देकर जागरण के आह्वान का दायित्व निभाता है। क्या कोई अन्य पक्षी यह कष्ट उठाने को तैयार होता। कदाचित नहीं। इसलिए मुर्गे की भाँति प्यारा, दुलारा और पालतु शायद कोई नहीं बन पाता।

वनस्पति पर दृष्टिपात करें, तो वहाँ भी ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं, जो समय की प्रतिकूलता को पहचानते हुए भी अपनी सुरभि लुटाने में कोताही नहीं बरतते और धन्य बन जाते हैं। ‘रात की रानी’ ऐसा ही फूल है। दिन में तो सभी पुष्प अपनी सुगंध चहुँ ओर बिखेरते हैं किन्तु रात्रि के वातावरण को सुरभित करने का प्रश्न आया तो सभी फूल पीछे हट गये, आगे आई रातरानी, और उसने संकल्प लिया की रात में ही वह अपनी सुगंध से समूचे वातावरण को सुवासित करेगी। चाहे कितना ही प्रतिकूल समय क्यों न हो, उसने अपने इस शाश्वत संकल्प को डिगने नहीं दिया, फलतः विशेष सम्मान की अधिकारी बनी। लोग विशेष रूप से इसका रोपण घरों के आस पास करते हैं एवं इसी सुगंध से पुलकित होते रहते हैं।

मनुष्य जब भी अपनी मनःस्थिति में ऐसा कुछ परिवर्तन लाता है जिसमें सामान्य प्रवाह से विपरीत असाधारण कार्य संपन्न हो तो उसकी सराहना की जाती है। वर्तमान काल को हम आड़े समय की संज्ञा दे सकते हैं, जिसमें मनुष्य को पेट और प्रजनन में निरत रहना शोभा नहीं देता। आने वाली पीढ़ी उन्हें


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