अक्षय अनुदान महाप्रज्ञा की साधना से

December 1991

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सप्तऋषियों में महर्षि गौतम का विशिष्ट स्थान है। वे अपनी तप शक्ति के लिए विख्यात है। एक समय की बात है कि पृथ्वी पर घोर दुष्काल पड़ा। अनावृष्टि के कारण सब ओर सूखा ही सूखा दिखाई पड़ने लगा। सर, सरिता सब सूख गये। पशु-पक्षी सभी जल के लिए भटकने लगे। घरों में मनुष्यों की लाशें सड़ने लगी। नीचे से पृथ्वी का रस सूखा और ऊपर से सूर्य का ताप इतना बढ़ा कि अग्नि वर्षा सी होने लगी।

यह बात सभी जानते थे कि महर्षि गौतम की तप शक्ति बहुत बढ़ी चढ़ी थी। गौतम गायत्री महाशक्ति के उपासक थे। सर्वत्र घोर दुर्भिक्ष होते हुए भी उनके आश्रम में भूमि सुरक्षित थी। वहाँ जल की और अन्न की कोई कमी नहीं थी।

इस स्थिति में बहुत से ब्राह्मण एकत्र होकर महर्षि के आश्रम में पहुँचे और कुशल प्रश्न के अनन्तर उन्होंने अपना कष्ट कह सुनाया। महर्षि ने उन्हें हर प्रकार से सान्त्वना दी और उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया। तदन्तर उनने भगवती गायत्री की प्रार्थना की। “अम्बे! मैं तुम्हें बारंबार नमस्कार करता हूँ। तुम प्राणियों की विपत्ति को दूर करने में समर्थ हो। इस घोर दुर्भिक्ष के समय में भी प्राणियों की सेवा कर सकूँ ऐसा बल दो। जगत् जननी तुम ही इस घोर संकट से उद्धार करने वाली हो।”

माता गायत्री ने प्रकट होकर कहा- महर्षे! “मैं तुम्हें यह अक्षय पात्र देती हूँ। कल्प वृक्ष के समान यह पात्र तुम्हारी इच्छित वस्तुओं से सदा पूर्ण रहेगा।” वही हुआ। अक्षय पात्र के द्वारा अन्न, वस्त्र, आभूषण, धन धान्य सभी के ढेर लग गये। ब्राह्मणों की पत्नियाँ श्रेष्ठ वस्त्रालंकार में दैवाँगनायें जैसी लगने लगी। गौतम ऋषि जब जिस वस्तु की इच्छा करते तभी उस वस्तु को अक्षय पात्र पूर्ण कर देता। उस समय वह आश्रम चारों ओर सौ सौ योजन बढ़ गया था और वहाँ की शोभा इन्द्रपुरी की शोभा से भी बढ़ी चढ़ी हो गयी थी।

उस समय गौतम नगरी में यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म विधिवत होते थे। देव गण भी यज्ञ भाग पाते हुए प्रसन्न थे। गौतम का यश सर्वत्र छा गया था। देवराज इन्द्र ने भी अपनी सभा में उनकी अत्यंत प्रशंसा की। भगवती गायत्री के अनुराग से वे बारह वर्षों तक जब तक दुर्भिक्ष रहा परिवारों का भरण पोषण करते रहे।

महर्षि गौतम ने प्राणी मात्र के कल्याण की जो प्रार्थना गायत्री माता से की थी, उसके फलस्वरूप जल वृष्टि एवं धन-धान्यादि की उत्पत्ति होने लगी। सुर्य का ताप अपनी विकरालता छोड़कर पूर्वमान पर आ गया। इससे उत्पन्न हुए उत्कर्ष को कुछ ईर्ष्यालु व्यक्ति सहन नहीं कर सकें। उन्होंने माया की एक गाय निर्मित की, जिसकी देह जीर्ण शीर्ण थी। उनकी प्रेरणा से वह गौ महर्षि के आश्रम के सामने जाकर मर गयी। तब उन दुष्टों ने उसकी हत्या का आरोप महर्षि गौतम पर लगाने की चेष्टा की।

महर्षि को इस कार्य से अत्यन्त क्षोभ हुआ। वे नेत्र मूँदकर समाधि में लीन हो गये। तब उन्हें इस कुचाल का पता लग गया। समाधि भंग होने पर उनने उन्हें शाप दिया- “मूर्खों! तुम अपने कर्म का फल भोगो और वेदादि कर्मों से विमुख होकर अधमगति को प्राप्त करो।”

शाप के कारण उन ईर्ष्यालु व्यक्तियों का सभी ज्ञान लुप्त हो गया। उन्होंने जो भी अध्ययन आदि किया था, उस सबको भी वे भूल गये। उनका सम्मान नष्ट हो गया। समाज में उनकी प्रतिष्ठ नहीं रही। सभी मनुष्य उनसे घृणा करने लगे।

जब उन्हें अपने दुष्कर्म पर पश्चाताप होने लगा, वे उस स्थिति से मुक्त होने का उपाय सोचने लगे। जब कोई युक्ति न सूझी तब वे झिझकते हुए सिर झुकाये महर्षि के आश्रम में पहुँचे और उनके चरण पकड़कर क्षमा याचना करने लगे, उन्होंने कहा- “महर्षि! हमसे घोर अपराध हुआ है परन्तु आप उदार मन वाले हैं, हमारे दुष्कर्मों को क्षमा कर दीजिए। हे ऋषि श्रेष्ठ! हम पर प्रसन्न हो जाइये। हमारे अपराध को भूल जाइये।”

उनका रुदन सुनकर गौतम का हृदय करुणा से भर उठा। वे बोले- “भगवती गायत्री की उपासना से तुम्हारा कल्याण संभव है, अतः एकाग्र मन से उन्हीं का जप करो।” इतना कहकर उनने उन्हें क्षमा कर दिया।

वस्तुतः गायत्री महामंत्र में अपरिमित सामर्थ्य है। जो भी कुछ अलंकारिक वर्णन आप्तवचनों, शास्त्र उपकरणों के रूप में उपलब्ध है, वह यही साक्षी देता है कि इसकी उपासना जीवन में सुख, वैभव, शाँति, आत्मसंतुष्टि, यश, कीर्ति तथा आत्मबल जैसे सभी अनुदानों को बरसाने का निमित्त कारण बनती है।


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