बड़े भाग मानुष तन पावा

December 1991

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गन्तव्य स्थान का अता पता न हो, रास्ता ठीक से मालूम न हो तो चलने वाले का श्रम निरर्थक जाता है, वह भटकाव में किधर से किधर चलता है और कहीं से कहीं जा पहुँचता है। इसमें थकान, निराशा और खिन्नता हाथ लगती है। दिशा भूले तो लौटकर फिर वही आना पड़ता है, जहाँ से चला था। सही गन्तव्य और मार्ग का पता न लगा पाने पर यही भटकाव बार-बार होता रहता है और प्रयास की निरर्थकता में बहुमूल्य समय और श्रम ऐसे ही बरबाद होता रहता है। सही जानकारी न होना भी लापरवाही और बरबादी की तरह भर्त्सना का विषय बनता है।

जीवन का कोई लक्ष्य है और उस तक पहुँचने का राजमार्ग भी है। उसकी ओर से अनजान बने रहने या जान बूझकर उपेक्षा करने से वही दुर्दशा होती है जो भटकाव ग्रस्तों के पल्ले बँधती है। इसलिए उचित है कि इन दोनों के संबंध में जानकारी प्राप्त कर ली जाय और भ्रमग्रस्तों की तरह झाड़-झंखाड़ों में भटकते हुए कंकरीली, पथरीली, पगडंडियों में ठोकर खाते हुए उस बहुमूल्य अवसर को अस्त व्यस्त न किया जाय जो चौरासी लाख योनियों में भटकने के उपरान्त एक बार मिला है। यह उपहार असाधारण है। मनुष्य जीवन स्रष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है। यह उपहार उसके अनुदानों में उच्चस्तरीय है। जो किसी प्राणी को नहीं मिला वह मनुष्य को देकर उसके साथ विधाता ने अनिवार्य प्रयोजन जोड़ रखे हैं अन्यथा निष्प्रयोजन इतनी सुविधाएँ मिलने पर वह पक्षपात कहा जाता और समस्त प्राणियों के सम्मुख ईश्वर को अन्यायी कहे जाने का दोष लगता।

ऐसी कायिक और मानसिक सर्वांगपूर्ण रचना और किसी प्राणी की नहीं है। सुविधा से भरे पूरे इस संसार के अनेकानेक पदार्थों का समुचित उपयोग कर सकना और उन्हें बढ़ाने, बदलने सुधारने की प्रतिभा मात्र मनुष्य को ही मिली है। अन्यथा विज्ञान, शिक्षा, दर्शन, आध्यात्म से लेकर कृषि, उद्यान, याँत्रिकी संचार जैसे जटिल निर्धारण वह पशु स्तर पर रह कर कहाँ कर पाता। प्रकृति के अंतराल में छिपी हुई रत्नराशि को उसने एक एक करके अपनी झोली में भर लिया साथ ही उसके और भी बड़े-बड़े अरमान है। ऊबड़-खाबड़ इस दुनिया को उसने तिलस्म बनाकर रख दिया है। प्राणी समुदाय पर उसी का आधिपत्य है। जिन्हें वह चाहे रहने दे, चाहे जिसका अस्तित्व मिटाकर समाप्त कर दे।

ऐसा विभूतिवान यदि अपने लक्ष्य को विस्मृत करता और मार्ग को अनदेखा करता है तो निश्चय ही वह उस परमात्मा के सामने अपराधी बनता है, जिसने उसे इतनी समर्थता और सुविधा प्रदान की है। साथ ही अपनी निज की आत्मा के सम्मुख भी आत्मघाती सिद्ध होता है।

ईश्वर का श्रेष्ठ पुत्र युवराज है, उसका स्तर और प्रयास ऐसा होना चाहिए जिसमें वरिष्ठता के लक्षण निरंतर दृष्टिगोचर होते रहें। मनुष्य का चिंतन ऐसा होना चाहिए जिससे उसकी गरिमा घटने न पायें। इस क्षेत्र में उसे फूँक-फूँककर कदम रखना चाहिए। मानव जीवन के साथ अनेकानेक जिम्मेदारियां, मर्यादा, और वर्जनायें जुड़ी हैं। उसे पशु की तरह पेट प्रजनन के निमित्त कुछ भी करते रहने की छूट नहीं मिली है। वह हिंसक पशुओं की तरह किसी पर भी आक्रमण नहीं कर सकता। लोभ और मोह की पूर्ति औचित्य की सीमा तक ही करने की सुविधा है। इसमें व्यतिरेक करने पर दूसरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने या दण्ड मिलने के उपरान्त ही अनुबंध माने ऐसा न होकर उसे अपनी अंतः प्रेरणा से ही उद्भूत होते रहने वाले विवेक का आश्रय लेना होता है। दूसरों के अधिकारों पर कहीं व्यतिक्रम न बन पड़े, इस पर अंकुश उसे अंतःप्रेरणा के आधार पर ही लगाना होता है। नीति मर्यादा के आधार पर अनेकानेक अनुबंध लगे हुए हैं। नारी के प्रति उठने वाली स्वच्छंद कामुकता की दुष्प्रवृत्ति पर उसे धर्म चेतना को ध्यान में रखते हुए प्रतिरोध करना पड़ता है। जबकि पशुओं के ऊपर ऐसी कोई मर्यादा लागू नहीं होती। दुर्बलों के अधिकारों को अन्य प्राणी मान्यता नहीं देते। उन पर आक्रमण करने से नहीं चूकते। किन्तु मनुष्य को दया, करुणा एवं आत्मीयता का आँचल उढ़ाकर आश्रय देना पड़ता है। वह प्रकृतितः आक्रामक नहीं संरक्षक है। अपनी बुद्धिमत्ता और सशक्तता का उपयोग संबद्ध ही नहीं असंबद्धों को ऊँचा उठाने एवं आगे बढ़ाने में करना पड़ता है। न्याय और नीति के परिपालन के निमित्त उसे अनुशासनबद्ध रहने के लिए कहा गया है। संयम साधने और चारित्रिक अनुबंधों का पालन करने के लिए भी उसे आत्म नियंत्रण बनाये रखने के लिए कहा गया है।

अन्य प्राणी अपनी सुविधा, इच्छा एवं मौज के लिए किधर भी चल दौड़ते एवं उड़ान भरने के लिए स्वच्छन्द हैं, पर मनुष्य को न केवल अपनी चारित्रिक विशिष्टताएँ उच्चस्तरीय रखनी पड़ती हैं वरन् परिवार से लेकर संपर्क क्षेत्र की, समाज की परिस्थितियों को सुव्यवस्थित रखने, प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए भी कार्यरत रहना पड़ता है। आदर्शों के लिए घाटा उठाते हुए कष्ट सहते हुए भी उसे प्रसन्न रहना पड़ता है। दूसरों को सताने में अहंता प्रदर्शित करने की छूट उसे नहीं है।

परिस्थिति के अनुरूप सुविधा-संपदा हस्तगत करने के लिए अन्य प्राणियों के विचार जगते और पैर उठते हैं, किन्तु मनुष्य को अपने चिंतन पर भी नियंत्रण करना चाहिए। उन्हें आदर्शों के अनुरूप होना चाहिए। कुविचारों से मनोविकारों से मस्तिष्क में कूड़ा करकट जमा करते रहने के लिए मनाही है। विचारों की आदत है कि वे सुविधा, संपदा और मौज करने के लिए कल्पना करते और योजनाएँ बनाते रहते हैं। मनुष्य अपने मस्तिष्क पर अंकुश लगाता और अनैतिक चिंतन को मोड़ मरोड़कर उस दिशा में प्रवाहित करने के लिए विवश करता है ताकि उसकी गरिमा पर आँच न आने पावे। यह मानसिक संघर्ष उसे निरंतर करते रहने के लिए कहा गया है जिसमें जन्म जन्माँतरों से संचित कुसंस्कारों को उभारने और चरितार्थ होने का अवसर न मिल पावे। पिछले जन्मों में मनुष्य अन्यान्य क्षुद्र प्राणियों के शरीर में रहता और उनमें रहने वाली दुष्प्रवृत्तियों का अभ्यस्त रहा है। नशेबाजी की तरह उन पुरानी आदतों की भड़क इस जन्म में भी उठती रहती है। उन्हें दबाया दबोचा न जाय तो वे आदतें चरितार्थ होने के लिए जोर लगाती हैं और ऐसे आचरण करने के लिए घसीटती हैं, जिनके कारण उसे नर पशुओं में, नर पिशाचों में गिना जाने लगे। यदि आत्म नियंत्रण में ढील पोल बरती जाय तो वह कर गुजरने का सिलसिला चल पड़े जो मनुष्य योनि में आने के बाद कुकर्म और अपराध श्रेणी में गिने जाते हैं और जिन्हें करने की आत्म प्रताड़ना लोक भर्त्सना और शासकीय दण्ड व्यवस्था सहनी पड़ती है। अपने आपे में संचित कुत्साओं और कुंठाओं से लिप्सा और लालसाओं से झगड़ने के लिए महाभारत स्तर की लड़ाई निरंतर लड़नी पड़ती है।

गुण, कर्म, स्वभाव की अनेकानेक उत्कृष्टताएँ ऐसी हैं जिनके विषय में हेय प्राणियों को कोई अभ्यास नहीं होता। उन्हें मनुष्य जन्म में आकर ही सीखना और बढ़ाना पड़ता है। स्नेह, सौजन्य, शिष्टाचार, सद्भावना, संयम अनुशासन,श्रम, संतुलन जैसे सद्गुण अनायास ही उत्पन्न नहीं होते, उसके लिए कुशल माली की तरह आरोपण और अभिवर्धन का प्रयास करना पड़ता है। यह असाधारण काम है। किसी कल कारखाने में उच्चस्तरीय उत्पादन की तरह-अशिक्षित को विद्वान बनाने की तरह। यह एक बड़ा रचनात्मक काम है। जो इसे तत्परता पूर्वक संपन्न करने में आनाकानी करते हैं उन्हें वे मानवी गौरव उपलब्ध नहीं है। अनगढ़ों, पिछड़ों और हेय स्तर का उन्हें गिना जाता रहता है। न उनकी प्रतिभा विकसित होती है और न स्वावलम्बी स्वाभिमानी कहला पाते हैं। मनुष्य की चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश करने की अपनी संस्कृति है जो उसे अपनाने अभ्यास में उतारने में आनाकानी करते हैं वे उस प्रसन्नता एवं यशस्विता से वंचित रह जाते हैं जो मनुष्य जन्म की जिम्मेदारी समझने वाले को मिलनी ही चाहिए।

अन्य जीवधारी अपनी शारीरिक संरचना के अनुरूप आवश्यकताएँ जुटाने के लिए जन्मजात रूप में प्रवृत्तियां साथ लेकर आते हैं। उसमें उन्हें कुछ घट बढ़ नहीं करनी पड़ती। प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप वे जीवनचर्या व्यतीत करते रहते हैं। किन्तु मनुष्य के संबंध में ऐसी बात नहीं है। उसे शिक्षा, भाषा, वस्त्र, मकान, उत्पादन आहार आदि के संबंध में सब कुछ समाज से सीखना पड़ता है। मिल जुलकर काम करने की प्रवृत्ति से ही वह परिवार बनाता है। सामाजिक प्राणी कहाता है ओर विकसित जीवन के लिए जिन अनेकानेक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है उसे जुटाता है। यदि आत्म निर्माण के लिए वह आरंभ से ही प्रयत्नशील न रहे तो वर्तमान परिस्थितियों में उसके लिए जीवित रह सकना संभव नहीं। अन्य जीवधारियों के अभिभावकों को कुछ ही दिन नवजातों की देख भाल करनी पड़ती है, किन्तु मनुष्य किशोरावस्था में पहुँचने तक एक प्रकार से परावलम्बी ही रहता है। यह सहकारिता प्रयत्नशीलता और इच्छाशक्ति का ही चमत्कार है। जन्मजात रूप से अत्यंत दुर्बल होते हुए भी वह अपनी बलिष्ठता से संसार भर के प्राणियों को इच्छानुसार नाच नचाता है।

उत्साह, साहस और प्रयास के निमित्त मनुष्य को अपनी गतिविधियाँ निरंतर तेज करनी पड़ती हैं। इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य जन्म तो ईश्वर ने दिया है, पर उसे समुन्नत बनाने की पूरी जिम्मेदारी उसी पर छोड़ दी है। जो इस दिशा में जितनी उपेक्षा बरतते हैं वे वन मानुषों की तरह उतने ही पिछड़े हुए रह जाते हैं। आदिमानव के साधन हीन और पशुवत होने की कल्पना की गयी है। यह उदाहरण जन जातियों के पिछड़ेपन के देखते हुए कल्पित किया गया होगा। उस स्थिति में भी वह पशुवर्ग से और बातों में आगे रहता है। प्रयत्न चले और साधन मिले तो किसी भी मनुष्य प्राणी का आवश्यक उत्कर्ष हो सकता है। उत्तरी ध्रुव के हिमाच्छादित प्रदेश में रहने वाले एस्किमो जब कनाडा आदि देशों में बसने लगे तो उनने अन्य सभ्य मनुष्यों जैसी विशेषताएं उपलब्ध कर लीं। स्पष्ट है कि मनुष्य में प्रगति के मौलिक तत्व कुछ अपवादों को छोड़कर समान रूप से विद्यमान है। आत्म निर्माण की निजी आकाँक्षा जितनी तीव्र हो, और दूसरों का जितना सहयोग सहकार उपलब्ध हो, उसे उतना ही समुन्नत, सुसंस्कृत बनने का सुयोग मिलता जायेगा।

आत्म निर्माण आत्म परिष्कार तथा आत्म विकास के लिए प्रयत्नरत रहना मानवता का प्रमुख आधार है। जो इसमें तत्परता दिखाते हैं वे योग्यतम बनते जाते हैं। जो उस विकसित क्षमता का उपयोग निजी वैभव संवर्धन में करते हैं, वे पहलवान, विद्वान, धनवान, प्रतिभावान बन जाते हैं। और समृद्धिशील कहलाते हैं। दूसरों की आँखों में चमत्कार उत्पन्न करते हैं पर वस्तुतः यह मानवी प्रतिभा का दर्शन हैं गरिमा का नहीं। मानवी गरिमा का स्वरूप तब निखरता है जब वह जीवन उद्देश्य को समझते हुए समग्र अभ्युदय के राजमार्ग पर चलता है। यह मार्ग अपूर्णता से मुक्ति दिलाकर पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाता है। इसमें आत्म परिष्कार और लोक कल्याण के दुहरे मोर्चे पर दोनों हाथों से लड़ना और दोनों पैरों से चलना पड़ता है। प्रगतिशील और सुसंस्कारिता का उपयोग अपनी सुविधा संवर्धन तक सीमित नहीं रखा जा सकता। मानवी अन्तरात्मा और ईश्वरीय प्रेरणा का संयुक्त तकाजा है कि विश्व उद्यान को अधिक समुन्नत, सुविकसित और सुसंस्कृत बनाने में वैभव का अधिकाँश भाग नियोजित किया जाय। अपना काम न्यूनतम में ही चलाया जाय।

मनुष्य दूसरों की सेवा सहायता स्नेह और सद्भावना से ही सुयोग्य और समर्थ बन पाता है। वह न मिले तो अनपढ़ पशुओं से मिलता जुलता जीवन ही उसे जीना पड़े। जिस ऋण भार ने उसे सुखी, समुन्नत बनने का अवसर दिया है उस ऋण से उऋण होना उसका नैतिक कर्त्तव्य है। फिर भगवान ने भी मनुष्य जन्म देकर यह परीक्षा भी ली है कि इस ऊँचे पद का गौरव निभ सका या नहीं। जिस प्रकार परीक्षाएँ प्रतियोगिताएँ होती हैं और उनमें उत्तीर्ण होने वाले बाजी मारने वाले पुरस्कार पाते, पदोन्नति का लाभ लेते हैं, उसी प्रकार मनुष्य जन्म को भी समझा जाना चाहिए। यह अवसर निजी विलासिता के लिए, स्वार्थ सिद्ध करने के लिए नहीं मिला है। इसका लक्ष्य पुण्य-परमार्थ है। गिरो को उठाने और पिछड़ों को आगे बढ़ाने में सहारा देने के लिए यह परीक्षाकाल जैसा है। इसमें उत्तीर्ण होने के थोड़े से ही प्रश्न पत्र हैं, पशु प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाया जा सकता या नहीं। पवित्रता और प्रखरता का अनुपात बढ़ाया या नहीं? संपर्क क्षेत्र में शालीनता और सद्भावना का परिचय दिया जा सका या नहीं? जनकल्याण के निमित्त ऊँचे दर्जे का प्रयत्न-पुरुषार्थ बन पड़ा या नहीं? सत्प्रवृत्ति संवर्धन में साहस एवं पराक्रम किया गया या नहीं? अनीति और अवाँछनीयताओं के साथ जुझारू मल्ल युद्ध में पौरुष उभरा या नहीं? इन्हीं प्रश्न पत्रों का उत्तर व्यावहारिक क्रियाकलापों के द्वारा देना पड़ता है। मौखिक या लिखित उत्तर देने की इस जाँच पड़ताल में तनिक भी आवश्यकता नहीं पड़ती। सैद्धाँतिक बकवास तो कितने ही करते रहते हैं। यहाँ व्यवहार ही सब कुछ है। जो किया गया उसी का लेखा जोखा लिया जाता है।

जो उत्तीर्ण होते हैं, वे नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, क्षुद्र से महान बनते हैं। उन्हें महामानव, ऋषि देवात्मा, अवतार जैसी पदोन्नतियों का लाभ मिलता है व ओजस्वी, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी बनते हैं और जीवन क्षेत्र में कृतकृत्य हुए समझे जाते हैं। प्रशंसा उन्हीं की है जो अपनी नाव में बैठाकर अनेकों को पार लगाने में समर्थ हुए। जो ऐसा कुछ भी न कर सके, पेट प्रजनन के लिए मरते खपते रहें। उन्हें एक दर्जा नीचे उतर जाने का दण्ड भी मिलता है। उन्हें लदे हुए पापों को ढोते हुए नारकीय यंत्रणाएँ भुगतनी पड़ती हैं और चौरासी लाख योनियों के चक्र में फिर से भ्रमण करना पड़ता है। भाग्यवान वे हैं जिन्हें मनुष्य जन्म मिला। बुद्धिमान वे है जिनने बिना भटके लक्ष्य तक पहुँचने का पुरुषार्थ कर दिखाया।


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