सूक्ष्म प्रयोगों द्वारा अदृश्य का परिशोधन

December 1991

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परोक्ष वातावरण जब कुपित होता है, तो उसका परिणाम प्रत्यक्ष जगत में स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है। आयुर्वेद के मर्मज्ञ जानते हैं कि शरीर में जब वात, पित्त, कफ संतुलन बिगड़ जाता है, तो वह बुखार, खाँसी, सन्निपात जैसी भाँति भाँति की बीमारियों के रूप में सामने आता है। इसका उपचार भी वे उस समीकरण को सही करके ही पूरा करने में सफल हो पाते हैं। यदि औषधियाँ व्याधि के अनुरूप न दी जाय तो रोग को जड़-मूल से नष्ट कर पाना उनके लिए असंभव हो जाता है।

वर्तमान समय में आये दिन घटित होने वाली विभीषिकाओं के बारे में भी ऐसा ही समझा जाना चाहिए। दुर्भिक्ष, भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, महामारी, सुखा, सौर कलंकों की शृंखला और उनका अवाँछनीय प्रभाव, यह सब उसी क्रिया की प्रतिक्रिया है, जो परोक्ष जगत में समायी विषाक्तता के रूप में समय समय पर प्रकट होती रहती है। चोट जब तक नासूर नहीं बनती तब तक वह दबी पड़ी रहती है। किन्तु ज्यों ही वह समय की एक विशेष सीमा रेखा को पार करती है, विष के रूप में समाया मवाद शरीर फोड़कर प्रत्यक्ष हो जाता है।

इन दिनों मनुष्य की गतिविधियाँ कुछ ऐसी बन पड़ रही हैं, जो श्रेष्ठता को बढ़ावा न देकर दुष्टता और भ्रष्टता को ही गतिमान बनाने में लगी हुई है। यदि इसके मूल में समाये कारणों पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय तो इसका हेतु एक ही दृष्टिगोचर होगा- चिंतन की विकृति- थोड़े साधन में संतोष न कर पाने का दुर्भाग्य। प्राचीन समय में न तो आज जैसी साधन सुविधा थीं और न विश्व के एक कोने से दूसरे कोने में क्षण मात्र में पहुँचने का उपाय- उपचार। फिर भी लोग आज के तथाकथित विकास युग से अधिक शाँति और संतोषपूर्वक जीवन बिताते देखे जाते थे। उनमें न तब अवाँछनीय आकाँक्षा थी, और न आज जैसी महत्वाकाँक्षा। इसी महत्वाकाँक्षा ने मनुष्य को साधन सुविधाओं की दिशा में प्रवृत्त किया और जो नहीं किया जाना चाहिए उसे भी कर गुजरने के लिए प्रोत्साहित किया। यहाँ महत्वाकाँक्षा का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि मनुष्य में यह होनी ही नहीं चाहिए। यह उन्नति -प्रगति का एक आवश्यक अंग है। मनुष्य जीवन में इसका सर्वाधिक और सर्वोपरि महत्व है। इसका होना नितान्त आवश्यक है, किन्तु शर्त एक ही है कि यह महत्वाकाँक्षा ओछी न हों, वरन् उच्च आदर्शों के प्रति हो, अपने जीवन में ग्रहण धारण करने से संबंधित हो, साथ ही साथ उसमें सर्वोन्नति की भावना भी निहित हो। यदि आरंभ में मनुष्य में उन्नति करने की महत्वाकाँक्षा न रही तो आज वह इस विकसित सभ्यता को जन्म दे सकने में नितान्त असमर्थ होता। पर महत्वाकाँक्षा की यह आकाँक्षा सर्वग्राही सर्वभक्षी तब सिद्ध होने लगती है, जब वह आकाश-कुसुम खिलाने की बात सोचने और करने लग जाता है।

आज यही हो रहा है। औद्योगीकरण के अंतर्गत कल कारखाने पूरे संसार में इस कदर तेजी से वृद्धि कर रहें हैं कि जितना मनुष्य को उनसे लाभ नहीं मिल पा रहा हैं उससे अधिक गुना हानि उठानी पड़ रही है।इससे न सिर्फ हवा अपितु मिट्टी, पानी और सूक्ष्म जगत बेहिसाब विषाक्त होते जा रहें है।

जनसंख्या का विस्फोट भी बरसाती उद्भिजों की तरह इस भाँति विस्तार करता जा रहा है कि मनुष्य को रहने के लिए धरती की कमी महसूस हो रही है। इस स्थिति में उस वातावरण को शुद्ध बनाने वाले जंगलों का भी सफाया करना आरंभ कर दिया। वर्षों से चले आ रहे इस अभियान के कारण आज संसार भर में यह स्थिति है कि अब जंगल पहले की तुलना में इतने थोड़े रह गये हैं कि वातावरण संशोधन की प्रक्रिया पूरी करने में सर्वथा अक्षम साबित हो रहें हैं। बात यही तक सीमित होती तो किसी हद तक संतोष की साँस ली जा सकती थी, किन्तु जब आत्मघाती सरंजाम दिन दूनी रात चौगुनी की दर से बढ़ते ही चलें जाय और उनके निराकरण के उपाय उपचार नहीं के बराबर हो, तो फिर शरीर में जगह-जगह घाव के उपजने और पीड़ा दायक त्रास की अनुभूति कराने जैसे ही दृश्य यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगते हैं। इन दिनों की बाढ़, बीमारी एवं इसी प्रकार के अन्यान्य प्रकृति प्रकोपों को सूक्ष्म जगत का ऐसा ही उपक्रम समझा जाना चाहिए।

इस बिंदु पर एक ही प्रश्न उठता है कि उल्टी सोच के कारण जो उल्टे कदम उठ पड़े, इससे परोक्ष जगत को जो अपरिमित हानि हुई, उसकी भरपाई कैसे की जाय? उसका निराकरण क्यों हो? इस संबंध में एक ही बात कही जा सकती है कि सूक्ष्म स्तर की विषाक्तता को प्रदूषण को सूक्ष्म स्तर के प्रयोगों द्वारा ही ठीक किया जा सकता है। स्थूल प्रयोगों द्वारा ऐसा कर पाना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। विश्व में कितने ही देशों में वातावरण में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलने की कितनी ही मशीनें बनी और इसी से संबंधित अनेकानेक प्रकार के प्रयोग-परीक्षण हुए और हो रहे हैं, पर इतने से परोक्ष जगत में समायी विषाक्तता को सही कर देने का दावा नहीं किया जा सकता। यह तो एक प्रकार के प्रदूषण का संशोधन हुआ, मगर अदृश्य जगत में एक मात्र प्रदूषण यही तो नहीं है। इसमें वैचारिक असुरता से लेकर न जाने कैसी कैसी और कितनी विषाक्तता भरी पड़ी हैं जिसका निवारण निराकरण अध्यात्म स्तर के इन्द्रवज्र जैसे विशाल प्रयोगों से ही संभव है। गायत्री अखण्ड जप के विश्वव्यापी कार्यक्रम में इसी स्तर के महान उपचार हैं, जिनसे कम में अदृश्य जगत को शुद्ध कर पाना सरल नहीं है।

ज्ञातव्य है कि महत्वपूर्ण कार्यों और प्रयत्नों के लिए संयुक्त शक्ति का जुटाना आवश्यक होता है। भौतिक क्षेत्र में तो ऐसा ही हो सकता है कि तोप का एक गोला सौ गोलियों जितना काम कर दे पर अध्यात्म क्षेत्र में वैसा नहीं है। एक बड़े बल्ब के जलने की अपेक्षा यहाँ सौ दीपकों का महत्व अधिक माना जाता है। यों भौतिक क्षेत्र में भी छोटी-छोटी इकाइयों के मिलकर एक बड़ी रचना बनने की बात को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। तिनके के मिलने से एक मजबूत रस्सी बन जाती है। कई सींक मिलकर एक बुहारी बनाती हैं। सभी जानते हैं कि छोटी छोटी ईंटों का योग न हो, तो भव्य भवन का बनना कदापि संभव नहीं है।

मनुष्य में शरीर और प्राण दोनों हैं। शरीर में बल और प्राण में जीवन रहता है। शरीर की संयुक्त शक्ति जितनी बनती है, उसकी क्षमता से एक यंत्र मानव बन सकता है, किन्तु हर व्यक्ति की अपनी अपनी सूझ व जीवट होती है, उसका भी तो महत्व है। इस लिए सेना में अधिकाधिक सुयोग्य सैनिकों की आवश्यकता पड़ती है। अस्त्र-शस्त्रों की न्यूनाधिकता उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितनी कि सैनिकों का कौशल, साहस और पराक्रम। यह जीवंतों की विशेषताएँ हैं। इसीलिए प्रीतिभोजों व जुलूसों, उत्सव- आयोजनों में जनशक्ति के सहारे शोभा बनती है। एक- दो सेनापति, धनाढ्य, विद्वान, नेता को विराजमान करे देने से न जुलूस बनता हैं, न समारोह। भौतिक क्षेत्र में एक और एक मिल कर दो ही होते हैं, पर अध्यात्म जगत में बात इससे नितान्त भिन्न होती है, वहाँ एक-एक मिलकर ग्यारह बनने का ही सिद्धाँत काम करता है। मुसाफिरखानों की भीड़ में भावनात्मक एकता न होने से उसका महत्व भले ही नहीं पर एक स्वभाव, एक शिक्षण, एक लक्ष्य वाले सैनिकों की संयुक्त शक्ति कैसा गजब ढाती है, यह किसी से छिपा नहीं है।

यह सामूहिक बल का परिणाम है। सूर्य की किरणें तो सभी जगह बिखरी पड़ी रहती हैं, पर इस स्थिति में वह सामान्य आभा-ऊर्जा ही संसार को दे पाती हैं किन्तु किरणों को जब आतिशी शीशे के माध्यम से पुँजीभूत करके किसी लक्ष्य पर संधान किया जाता है, तो परिणीत आग के गोले के रूप में सामने आती है। सैनिक जब किसी पुल के ऊपर से होकर गुजरते हैं तो कप्तान का उनको निर्देश रहता है कि कदम मिलाकर न चलें। इससे उत्पन्न कंपन के कारण पुल टूटने का खतरा रहता है।

साधना क्षेत्र यों होती तो व्यक्तिगत और एकान्तिक साधनाएँ भी हैं। पर उनका लक्ष्य प्रयोजन एवं सामर्थ्य सीमित होने के कारण साधक तक ही उसका लाभ परिमित होकर रह जाता है। सर्वजनीन साधना एवं संवर्धन के लिए यदि कोई बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता हुई तो सदा समन्वित सहयोगी प्रयत्नों की आवश्यकता समझी और पूरी की गयी है, प्राचीन समय में राजतंत्र द्वारा राजसूय यज्ञ व धर्मतंत्र द्वारा वाजपेय यज्ञ ऐसे ही प्रयोजनों के व्यापक निराकरण के लिए आयोजित किये जाते थे। उन्हें समारोह, सम्मेलन, आयोजन, संवर्धन सह प्रयत्न की भी संज्ञा दी जा सकती है। जो काम विद्वान मण्डली या दो चार तपस्वी एवं शासक वर्ग अपने सीमित पराक्रम से संपन्न नहीं कर सकते थे, उन्हें मध्यवर्ती भावनाशीलों की संयुक्त शक्ति से संपन्न कर लिया जाता था।

उन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अदृश्य जगत के परिशोधन एवं परिमार्जन हेतु बड़े पैमाने पर गायत्री मंत्र का ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान स्थान-स्थान पर आयोजित करने की इन्हीं दिनों आवश्यकता अनुभव की गयी है।इसमें तीन दिवसीय सामूहिक व अखण्ड गायत्री मंत्रोच्चार का भावना पूर्वक श्रीगणेश का प्रावधान है। उससे उत्सर्जित होने वाले प्रचण्ड शब्द एवं भाव शक्ति न सिर्फ परोक्ष की असुरता को नष्ट करने में प्रभावी भूमिका संपन्न करेगी, अपितु स्थूल जगत में देवत्व पूर्ण वातावरण विनिर्मित करने में भी बड़ा प्रयोजन सिद्ध कर सकेगी। इस प्रकार इस एक उपचार से साँप के मरने और लाठी नहीं टूटने के दोनों उद्देश्य साथ साथ पूरे हो सकेंगे। इससे जहाँ एक ओर विषाक्तता के घटने मिटने से विषधर की तरह फन फैलाये और कालकूट उगलती विक्षुब्ध प्रकृति का सहज शमन संभव होगा, वही दूसरी ओर वातावरण को सतयुगी बनाने में मदद मिलेगी। यह संघ शक्ति का प्रभाव है।

सर्वविदित है कि जब सीता के अवतरण की ऋषियों को आवश्यकता अनुभव हुई, तो ऋषि-रक्त की एक-एक बूँद एक घड़े में इकट्ठा की गई। इसमें समायी दुर्धर्ष प्राण-ऊर्जा से जो शक्ति उद्भूत हुई वह सीता कहलायी है। यदि केवल रक्त जैसे उपादान कारण से ही सीता का उद्भव सहज संभव होता, तो संभवतः ऋषि अपने में से किसी एक का गला काटकर खून एकत्रित कर उस प्रायोजन की पूर्ति कर लेते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि रक्त के साथ-साथ उसमें उस प्रचण्ड प्राण चेतना को वे कैसे डाल पाते, जिससे सीता का अवतरण होना था। यह कार्य एक-एक बूँद रक्त के रूप में एकत्रित प्राण चेतना ही संपादित कर सकती थी। इसलिए ऐसा किया गया।

आज इसी स्तर की सूक्ष्म प्राण-चेतना के एकत्रीकरण की महती आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जिसे पुरश्चरण तथा ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान स्तर के सूक्ष्म व महान आध्यात्मिक प्रयोग ही संभव कर सकते हैं। स्थूल उपचारों से ऐसा शक्य नहीं हो सकता। इंजन की टंकी पानी से भरी तो रहती है, पर वह इंजन चला कहाँ पाता है, किन्तु उसी जल को जब भट्टी में तपाकर भाप के रूप में सूक्ष्मीकृत कर उसे एक पतली नली से गुजारा जाता है, तो प्रतिफल चमत्कार जैसा सामने आता है। इससे न सिर्फ इंजन खिसकने लगता है, वरन् अपने पीछे जुड़े सैकड़ों डिब्बों को भी खींचने घसीटने खिसकाने लगता है। यह सूक्ष्म का प्रभाव परिणाम है। ऐसे ही सूक्ष्म प्रयोगों द्वारा अदृश्य जगत का परिशोधन संभव है। इसलिए वर्तमान वर्ष को शक्ति साधना वर्ष घोषित करते हुए सामूहिक गायत्री साधना की आवश्यकता पर बल दिया गया है। प्रस्तुत संकट का समाधान इससे कम में संभव भी नहीं।


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