मनः चेतना के प्रखरीकरण की ध्यान-साधना

December 1991

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गीताकार ने मन को ही बन्धन और मोक्ष का कारण बताया है। प्रतिभा का, अतीन्द्रिय क्षमताओं एवं ऋषि सिद्धियों का भाण्डागार भी उसी की अतल गहराइयों में छिपा पड़ा है। सफल कहे जाने वाले व्यक्तियों की महान उपलब्धियाँ मन को परिष्कृत करने एवं साध लेने के उपराँत ही हस्तगत होती रही हैं। मन ही है जो समूचे कार्यतंत्र पर अपना आधिपत्य रखता है। वह जैसे निर्देश देता है, वैसी ही क्रियायें शरीर द्वारा होती रहती हैं। इसकी तुलना उस महा दैत्य से की जा सकती है, जिसे सिद्ध कर लेने पर उससे अद्भुत काम कराये जा सकते हैं, परन्तु यदि वह अनियंत्रित, कुमार्गगामी एवं कुसंस्कारी ही बना रहे तो उसके परिणाम हर प्रकार से हानिकारक ही होंगे। उपासना में साधक सर्वप्रथम इसी क्षेत्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और मन को परिष्कृत परिमार्जित करते हुए लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ता है।

साधना-उपासना की एकाग्रता तभी सध सकती है जब विचारतंत्र को- मानसिक हलचलों के बिखराव से बचाकर एक सीमित परिधि में सीमाबद्ध किया जाय। मन को एक सीमित परिधि में ही चिंतन करते रहने के लिए प्रशिक्षित किया जाय। इसके लिए सर्वोत्तम उपाय उपचार ध्यान साधना है, इसका स्वरूप यह है कि विचारों को केन्द्रीभूत करके किसी एक लक्ष्य पर नियोजित किया जाय। इसमें सफलता तभी मिलती है जब चेतना का मस्तिष्कीय हलचलों पर नियंत्रण सध जाय। गायत्री माता-के इष्टदेव के अथवा स्वर्णिम सविता के प्रकाश मण्डल के या अन्य किसी केन्द्र पर मन मस्तिष्क को सीमाबद्ध किये रहा जाय। इस उपक्रम में यदि सफलता मिल गयी तो समझना चाहिए कि विचार प्रवाह को स्वेच्छाचार बरतने से छोड़ने के लिए अनुशासन में रहने के लिए सहमत कर लिया गया।

वस्तुतः ध्यान एक व्यायाम है जिससे मन पर, विचारों पर नियंत्रण करना संभव होता है। इसके अनेकों उपयोग हैं। इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण उपयोगी यह है कि आवेशों, उत्तेजनाओं, भावुकताओं का अवाँछनीय उभार जब भी उठे तब उसे रोककर प्रवाह को दूसरी दिशा में उलटा सकना संभव किया जाय। अनगढ़ मन मनुष्य को कहीं भी घसीट ले जाया जा सकता है और कुछ भी करा सकता है, किन्तु सुसंस्कृत मन विवेक का अनुशासन मानता है और अंतःकरण का निर्देश मिलने पर हलचलें बताई हुई दिशा में मोड़ देता है। ऐसी दशा में मस्तिष्कीय तंत्र रचनात्मक उपयोगी विवेकपूर्ण कार्य ही करता रहेगा। अवाँछनीयता के प्रवाह में नहीं बहेगा। यदि कुछ भटकाव आया तो ध्यानयोग के समय जो प्रबल आत्मचेतना मनःसंस्थान पर नियंत्रण रखने में सफल हुई थी, वही अपनी प्रखरता से उस भटकाव को सुधार कर सहज ही सुव्यवस्थित बना लेगी। गलती तुरन्त ही सुधर जायेगी। इस क्षेत्र में जितनी ही सफलता मिलेगी, व्यक्ति उसी अनुपात से प्रतिभा-प्रखरता संपन्न बनता चला जायेगा।

मनोविज्ञान वेत्ताओं का कहना है कि मन सही तो शरीर सही। विचारों को अभीष्ट लक्ष्य में नियोजित किये रहना जिसके लिए संभव हुआ, वह अपनी क्षमता को निर्धारित दिशा में लगाये रहेगा। सामान्य व्यक्तियों द्वारा असामान्य कार्य कर गुजरना-चमत्कार उत्पन्न कर सकना इसी कारण संभव होता रहा है। इस तरह दिशाबद्ध चिंतन और क्रियाकलाप जिनसे भी बन पड़ेगा वे भटकाव की अस्त व्यस्तता से अपनी बरबादी को बचा लेंगे और उस बचत के सहारे उच्चकोटि की सफलताएँ प्राप्त कर सकेंगे। सफल जीवन ऐसे ही लोगों का होता है। यशस्वी वे ही बनते हैं। ध्यान योग का छोटा सा अभ्यास, छोटी सी चेष्टा अंततः कितना बड़ा सत्परिणाम उत्पन्न करती है। इसे देखते हुए उनकी उपमा बीज के माध्यम से वट वृक्ष बनने के रूप से दी जा सकती है।

साधारणतया ध्यान साधना को पूजा उपासना के साथ जोड़कर रखा गया है। देवाराधना एवं योगाभ्यास का प्रयोग ही उसमें सम्मिलित रहता है। यह उचित भी है क्योंकि इसका दोहरा लाभ है- जीवन सम्पदा के सदुपयोग के लिए मनोविग्रह जैसी महान उपलब्धि के साथ ही उपासनात्मक लाभ। किन्तु ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि देवाराधना या योगाभ्यास के अतिरिक्त और कोई उपाय ध्यान साधना का है ही नहीं। ऐसी भी साधनायें हैं जो अनीश्वरवादी उपासना में अरुचि रखने वाले अध्यात्म सिद्धाँतों से असहमत लोगों के लिए भी उपयोगी रहेगी। आस्तिक प्रवृत्ति के लोग भी उनसे समुचित लाभ उठा सकते हैं। प्रक्रिया इस प्रकार है। -

एकान्त कोलाहल रहित शान्तिदायक स्थान पर बैठकर ध्यान अभ्यास किया जाय। एक चौकी पर हरे या नीले रंग का कपड़ा बिछाया एवं उस पर खिला हुआ गुलाब का एक सुन्दर सा फूल रखा जाय। तदुपरान्त फूल की पंखुड़ियों की बनावट तथा रंगों के चढ़ाव-उतार और उसके मध्यवर्ती पराग केन्द्र को गहराई के साथ अवलोकन किया जाय। निरख व परख इतनी बारीकी से होनी चाहिए मानों कुछ समय पश्चात ही परीक्षा में वे सारे विवरण पूछे जाने वाले हैं। फूल को देखने से जब मन ऊबने लगे तो उसके द्वारा बनने वाली वस्तुओं की कल्पना की जाय। गुलाब, जल, इत्र, गुलकन्द, फूलमाला आदि के स्वरूप एवं निर्माण विधि पर कल्पना दौड़ाई जाय। गुलाब पुष्प के गुणों पर विचार किया जाय कि आध्यात्मिक प्रकृति हँसना और हँसाना, खिलना और खिलाना, सौंदर्य की अभिवृद्धि, सुगंध का वितरण, प्रभु समर्पण, काँटों के बीच संतोषपूर्ण निर्वाह, भ्रमर, तितलियाँ, मधुमक्खी आदि को मधुदान जैसी गुणपरक विशेषताओं पर और उनकी प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए। इस प्रकार घण्टों गुलाब पुष्प से संबद्ध विस्तार का चिंतन किया जा सकता है। इससे मन की अस्त व्यस्त घुड़दौड़ रुकेगी और एक सीमित परिधि के अन्दर चिंतन करने के लिए अभ्यस्त होता चला जायेगा। तथ्यों पर जितनी गहराई और सजगता के साथ विचार किया जायेगा, उतनी एकाग्रता बढ़ेगी और मन के भागने का अनुपात घटता जायेगा। कुछ ही समय के अभ्यास में ऐसा समय आ जायेगा कि चिंतन की परिधि सिमट जाय और आरंभिक ध्यान भूमिका में सफलता मिल जाय।

जिस प्रकार गुलाब के फूल को लेकर ध्यान अभ्यास की बात ऊपर कहीं गयी है, उसी प्रकार किसी महापुरुष के जीवन वृत्तांत को चिंतन की परिधि बनाकर संबंधित घटनाक्रमों पर गहराई से विचार करते रहा जा सकता है। किसी गीत या श्लोक के भावार्थ पर भी देर तक चिंतन को केन्द्रित रखा जा सकता है। संगीत की कोई ध्वनि इसके लिए चुनी जा सकती है। किसी मनुष्य या प्राणी की किसी विशिष्टता पर भी ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है।

किसी गुण विशेष के सिद्धाँत, स्वरूप, अभ्यास एवं परिणाम को लेकर भी चिंतन को देर तक सीमित किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, संयम, उदारता जैसे गुणों की व्याख्या, प्रयोग, पद्धति एवं प्रक्रिया के अनेक पक्ष हो सकते हैं और उन सब पर क्रमशः विचार करते हुए देर तक मन को उसी परिधि में प्रतिबंधित रहने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

परमेश्वर का विराट रूप भी ध्यान के लिए उपयुक्त प्रकार है। स्वर्ग उसका शीर्ष, पृथ्वी उसके पाद, दिशायें हाथ, सूर्य चन्द्र नेत्र, वायु श्वास, अग्नि पाचन, धर्म हृदय, वनस्पति केश, पर्वत अस्थियाँ, नदियाँ नाड़ियाँ, समुद्र मूत्राशय, जैसी कल्पना विराट ब्रह्म की की जा सकती है और उन क्षेत्रों के प्रस्तुत दृश्यों में मन को उलझाये रहा जा सकता है।


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