एक साधु महाराज को बराबर यह लगता कि जप की गिनती करोड़ों तक जा पहुँची, अभी तक परमात्मा से साक्षात्कार क्यों नहीं हुआ? ऐसे ही अपनी गिनती का हिसाब करते हुए वे एक गाँव के करीब जा पहुँचे। देखा कि कुओं में एक पनिहारिन बैठी दुहकर लाये दूध को बेच रही है। सभी को नियत परिणाम से दूध देती और पैसे ले लेती है। तभी एक युवक वहाँ आया। बड़ा सुन्दर गठीला था। उसके आते ही उस स्त्री ने उससे ढेर बातें की मानें एक दूसरे को वर्षों से जानती है। पात्र सामने करने पर उस महिला ने उसका पात्र लबालब भर दिया।
साधु महाराज को यह आचरण विचित्र लगा। पूछ ही बैठे “बहिन। यह पक्षपात क्यों? सबको तूने जितना माँगा उतना ही दिया पर इसे न माँगने पर इतना दे रही है। साश्चर्य वह स्त्री उनकी ओर देख कर बोल पड़ी -”महाराज। लगता है आप गिनती का खेल खेलते है इसी लिए आपने यह बात कही। यह मेरा प्रेमी है हम दोनों की जल्दी शादी होने वाली है तथा जहाँ प्रेम होता है वहाँ न गिनती होती है और न सौदेबाजी।” साधु को इस वार्तालाप से एक महत्वपूर्ण शिक्षा मिली। परमेश्वर से प्रीति वैसी ही होनी चाहिए जैसी प्रेमी प्रेमिका की होती है। जप की गिनती बीच में आ जाने से वह घनिष्ठता नहीं बन पा रही थी। उस दिन से उन्होंने गिनती का सौदा हटाकर परासत्ता को अपना आपा सौंपना आरंभ किया व लक्ष्य सिद्धि तक पहुँच कर ही रहे।
एक नशेबाज, जुआरी, अभिचारी, कुकर्मी अनेकों संगी साथी बना सकने में सहज सरल होता होता है। बेल आगे आगे पसरती जाती है, लहरें एक दूसरे को आगे धकेलती हैं और उनकी हलचल किनारे तक पहुँचकर रुकती है। अनुकरण प्रिय सामान्यजनों में आदर्शवाद का अनुकरण करने की क्षमता हल्की सी होती है। पर वे कुप्रचलनों को सहज ही पकड़ते हैं। दूषित साहित्य का अवाँछनीय एवं फिल्मी अभिनयों का प्रभाव जितनी तेजी से पशु प्रवृत्तियों को भड़काता है, उतनी तीव्रता सत्साहित्य की नहीं होती। गीता पढ़कर उतने आत्म ज्ञानी नहीं बने, जितने की अश्लील दृश्य, अभिनय से प्रभावित होकर कामुक अनाचार अपनाने में प्रवृत्त हुए हैं। एक संत सज्जन कम ही अपने जैसा बना पाते हैं। महामानव को अपने जैसे साथी उत्तराधिकारी विनिर्मित करने में एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ता है। पर खल मण्डली की बिरादरी बरसाती मेंढ़कों की तरह देखते देखते तेजी से बढ़ती है। कुकुरमुत्ते की फसल और मक्खी मच्छरों का परिवार भी तेजी से बढ़ता है। पर हाथी की वंश वृद्धि अत्यंत धीमी गति से होती है।
समाज में छाया हुआ अनाचार, असंतोष पतन, पराभव का मात्र एक ही कारण है कि जन साधारण की आत्मचेतना मूर्छित हो गयी है और उसका स्थान शरीरगत लिप्सा लालसा ने ले लिया है। यदि स्थिति बदलना हो तो उलटे को उलटकर सीधा करना होगा। चिंतन के आदर्शों का समावेश करना होगा और दृष्टिकोण में उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना करनी होगी। व्यवहार में सज्जनता का पुट लाना और स्वार्थ पर अंकुश लगाते हुए पुण्य परमार्थ की प्रवृत्ति जगानी होगी। इसी आधार पर व्यक्तियों को उभारना और सत्प्रयोजनों को सफल बना सकने वाली प्रतिभा को निखारना पड़ेगा। संक्षेप में यही हैं आत्मिक प्रगति॥
इसी के साथ मानवीय गणना जुड़ी है। यही सद्गुण संपन्न महामानवों की बिरादरी उत्पन्न करती है। इसी तत्व ज्ञान को अपनाकर प्राचीन काल में साधु, ब्राह्मणों का विशाल संप्रदाय संकल्प पूर्वक सत्प्रवृत्ति प्रवर्धन की महती लोक साधना में लगा था। उसी आधार पर सतयुग का स्वर्णिम काल विनिर्मित हुआ था। उन दिनों यह भारत भूमि देव मानवों की जन्मदात्री और “ स्वर्गादपि गरीयसी” कहलाती थी। यहाँ के निवासियों ने असाधारण स्तर की सेवा साधना करके जनसंपर्क और जनसहयोग अर्जित किया था। जगद्गुरु और चक्रवर्ती के ऊँचे पदों पर उन्हें इसी सेवा साधना के बदले बिठाया गया था।
पुरातन काल में व्यैक्तिक और सामाजिक गरिमा का विकास विस्तार मात्र ही आधार पर संभव हुआ था कि यहाँ आध्यात्मवाद को मान्यता दी गयी थी। आज जितना ध्यान भौतिक विज्ञान के आविष्कारों ओर उसके द्वारा विनिर्मित उपकरणों को भोगने पर है, पुरातन काल में उतना ही ध्यान चेतना स्तर ऊंचा उठाने पर भी दिया जाता था। भावनाओं, मान्यताओं, आकाँक्षाओं उमंगों की प्रत्येक लहर में आदर्शों की ऊर्जा भरी रहती थी। फलतः हर किसी का मन ऊँचा सोचता था। हर शरीर आदर्शों को क्रियान्वित करने में तल्लीन रहता था। उस महान परम्परा का परित्याग करके ही हम आज अनेकानेक संकटों और उलझनों में फँसे हैं। उसी परम्परा की जीवन में पुनः अंगीकार कर हम उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।