एक राजा की एक संत के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वे जब भी भ्रमण को निकलते, उन्हें प्रणाम करते। उनकी सादगी व साँसारिक विरक्ति की प्रशंसा करते। एक दिन राजा ने संत से महल चलने का आग्रह किया तो संत तुरन्त तैयार हो गये व चल पड़े। एक क्षण राजा को भी लगा कि एक बार भी मना न किया, मानों महल के निमंत्रण के लिए तैयार बैठे हों। फिर भी राजा उन्हें लेकर गये व महल में उनके रहने आदि की व्यवस्था की। एक भी सुविधा के लिए संत ने मना नहीं किया। राजा आतिथ्य स्वीकार करते हुए वे अपना साधना क्रम चलाते रहें।
एक माह गुजरने के बाद राजा ने संत के पास आकर कहा। “महात्मन्”। मैं तो आपको विरक्त योगी मानता था पर अब तो देखता हूँ कि आप और हम तो एक जैसे हैं। संत बोले “राजन्। अंतर तो अब भी है व हमेशा रहेगा। वास्तव में जानना चाहते हो तो मेरे पीछे आओ।” राजसी ठाठ बाठ छोड़कर दण्ड कमण्डल उठाकर चल पड़े सीमा पार कर घोर घने जंगल में अपनी एकान्त तपश्चर्या वाली गुफा में जाकर बैठ गए। बोले “ तुम्हारे राज्य की सीमा तो छोटी सी है, पार कर ली। हमारे राज्य की कोई सीमा नहीं। मैं तुम्हारे महल में था जरूर, पर महल मुझ में नहीं था। भोगों में रहकर भी उन्हें इच्छा हो छोड़ने की, तैयार हो सके वही संत वृति है।” सम्राट ने संत के पैर पकड़कर अपने चिंतन व व्यवहार के लिए क्षमा माँगी व लौटने को कहा। संत ने विनम्रता पूर्वक मना कर उसे लौटा दिया। हम सब रहते तो सुख विलास के साधनों बीच हैं पर कभी उनके बिना भी जीने का चिंतन कर पाते हैं? तैयारी उसकी भी होनी चाहिए।