आत्म देव को जगाने की समर्थ साधना!

December 1991

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भौतिक प्रगति के क्षेत्र में विज्ञान समर्थ है तो आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में समर्थ विद्या का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म अर्थात् अपने आपे का विज्ञान- चेतना का विज्ञान। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो कुछ करना होता है उसी का नाम उपासना एवं साधना है। इसे दो पहियों पर चलने वाली आत्मिक प्रगति की आत्म कल्याण की यात्रा कह सकते हैं। नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान-आत्मा से परमात्मा बनने का अवसर इसी पथ पर चलने से मिलता है। नर पशु को देवता बनाने की स्थिति इसी प्रयास द्वारा संभव होती है। अगणित ऋद्धि-सिद्धियों का राज मार्ग यही है। महामानव, देवदूत एवं ऋषिकल्प स्थिति प्राप्त करने का आधार यही है। जीवन लक्ष्य की पूर्ति इन्हीं प्रयत्नों से संभव होती है।

आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करने वाले इस अध्यात्म विधि विज्ञान की दो धाराएँ हैं- आत्म दर्शन और विश्व दर्शन। इन्हें आत्मबोध एवं तत्वबोध भी कहते हैं। ब्रह्मविद्या का समग्र ढांचा इन्हीं दो धाराओं की सैद्धाँतिक एवं व्यावहारिक विधिव्यवस्था समझाने के लिए खड़ा हुआ है। आत्म बोध के अंतर्गत आत्म सत्ता के स्वरूप, लक्ष्य, धर्म चिंतन एवं कर्तव्य की स्थिति समझाई जाती है और तत्वबोध में शरीर एवं मन के साथ आत्मा के पारस्परिक संबंधों और कर्त्तव्यों का निरूपण किया जाता है। शरीर के साथ संबंध बनाते हुए परिवार और समाज के साथ उपयुक्त व्यवहार का पुनर्निर्धारण किया जाता है। अब तक जो ढर्रे का अव्यवस्थित एवं अस्त−व्यस्त जीवनक्रम चल रहा था, उसे दूरदर्शी विवेक के आधार पर सुव्यवस्थित सुसंचालित किया जाता है। अध्यात्म जगत को यही दो धारायें पवित्र गंगा जमुना कही जाती हैं। इन्हीं का संगम तीर्थ राज प्रयाग है- जिसमें स्नान करके परम पुरुषार्थ का पुण्य फल प्राप्त होता है।

उच्चस्तरीय गायत्री साधना के साधक को आत्मबोध एवं तत्वबोध की इन्हीं दोनों साधनाओं का समन्वय करना पड़ता है। इन दोनों का लक्ष्य एक ही है। दोनों अन्योन्याश्रित एवं परस्पर पूरक हैं। इसके लिए ध्यान मुद्रा में बैठकर सामने एक बड़े दर्पण में वक्षस्थल से ऊपर का अपना शरीर ध्यान पूर्वक देखा जाना ही आत्म बोध की प्रत्यक्ष विद्या है। अधिक बड़े साइज का दर्पण उपलब्ध हो तो पूरे शरीर को भी देखा जा सकता है। पर अपनी छवि लगभग उतनी ही बड़ी दीखनी चाहिए जितनी कि वह माप की होती है। छोटे दर्पण को दूर रखकर यों तो पूरा शरीर देखा जा सकता है, पर उसमें आकृति बहुत छोटी हो जायेगी। इससे काम नहीं चलेगा इसलिए सामान्यतया ऐसा ही करना पड़ता है कि डेढ़ फुट ऊँचा दर्पण किसी छोटी मेज पर इस तरह रख लिया जाय कि वह सामने लगभग ढाई फिट की दूरी पर रहे। इस दर्पण में अपने स्वरूप को देखना होता है साथ ही उसका दार्शनिक विवेचन-विश्लेषण गम्भीर मनःस्थिति में करना होता है।

दर्पण में अपना स्वरूप देखते हुए आत्मबोध करने वाला साधक अपनी इस दयनीय स्थिति पर विचार करता और करुणा व्यक्त करता है कि वह ईश्वर का अविनाशी अंश एवं उसका वरिष्ठ राजकुमार होते हुए भी किस तरह भवबंधनों से बँधा हुआ-दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का सताया हुआ रुदन-क्रन्दन करता हुआ, संक्षोभों की आग में जलता हुआ जी रहा है। जबकि वह पृथ्वी पर प्रसन्नता पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वरीय प्रायोजन पूरे करने के लिए पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आया था। पर वह सब तो इक प्रकार से सर्वथा विस्मरण ही हो गया। पैर उस जंजाल में फँस गया जिसे आटे के लोभ में गला फँसाने वाली मछली अथवा जाल में तड़पने वाले पक्षी के समतुल्य दुर्दशाग्रस्त स्थिति कहा जा सकता है। वह चाहता तो ईश्वरीय निर्देश और आध्यात्म कर्तव्य का पालन करते हुए पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता था और अपूर्णता से पूर्णता का वरण करना चाहता था। पर वैसा न करके पशुता और पैशाचिकता की दुष्प्रवृत्तियों में उलझ पड़ा और फिर से चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने का दीर्घकालीन दुस्सह दुख सहने -कोल्हू में पेले जाने तथा चक्का में पीसे जाने की स्थिति आँखों के सामने आ खड़ी हुई।

तदुपरान्त दर्पण के सामने बैठकर अपनी छवि शीशे में देखते हुए आत्म विश्लेषण किया जाता है। ईश्वर का अविनाशी अंशधर विश्व में सुरम्य परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए नियुक्त किया गया विशेष प्रतिनिधि पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने के सुअवसर से संपन्न सौभाग्यशाली- यह है दर्पण में बैठा हुआ है। इसके काया-कलेवर में ईश्वर की समस्त दिव्य शक्तियाँ और विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। इसका एक एक कण ऐसी विशेषताओं से संजोया गया है कि चाहे तो सहज ही महामानवों की, देवदूतों की पंक्ति में बैठ सकता है।

सूक्ष्म रूप में मानव शरीर में समस्त देवताओं की ऋषियों की दिव्य सत्ता विद्यमान रहती है। उसे थोड़ा भी पोषण मिले तो यह बीज विशाल काय वटवृक्ष में परिणीत होकर अपने को धन्य और विश्व मानव को सुसम्पन्न बना सकता है। इसमें महामानव देवमानव बनने एवं बुद्ध, ईसा, राम, कृष्ण जैसे अवतार चेतना से सुसम्पन्न बन सकने की परिपूर्ण संभावनायें विद्यमान हैं। इतना सब कुछ होते हुए भी अवाँछनीय गतिविधियाँ अपनाने के कारण यह दर्पण में बैठा महामानव किसी दयनीय दुर्दशा से ग्रसित ही रहा है, यह कैसे आश्चर्य या दुर्भाग्य की बात है। लोभ और मोह के, वासना और तृष्णा के स्वार्थ और संकीर्णता के बंधनों ने किस बुरी तरह से जकड़ रखा है। इन्द्रिय लिप्सा का गुलाम बनकर इसने अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को किस बुरी तरह चौपट कर डाला। परिवार के उचित उत्तरदायित्वों को निबाहना और परिजनों को सुसंस्कृत बनाना तो कर्त्तव्य था, पर मात्र इसी छोटे समुदाय के लिए अपनी समस्त क्षमताओं को नियोजित कर देना कहाँ की समझदारी थी। कुत्साओं और कुण्ठाओं से ग्रसित जीवन का क्रम और स्वरूप बना लेने की उसी की पूरी जिम्मेदारी है, जो इस दर्पण में बैठा है और उसमें फँसा है। वह चाहे तो उसे समेट सकता है और स्वच्छंद विचरण की जीवन मुक्ति की स्थिति प्राप्त कर सकने में सफल हो सकता है।

इस प्रकार दर्पण में दृष्टिगोचर प्रतिबिम्ब के सहारे आत्म विश्लेषण की अधिक गहराई में प्रवेश किया जा सकता है और पतन से ऊँचे उठकर उत्थान के उच्च शिखर पर पहुँच सकने का पथ निर्धारण किया जा सकता है, भविष्य के लिए ऐसी सुसंतुलित गतिविधियों का निर्धारण किया जा सकता है, जिसमें भौतिक और आत्मिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह की संतुलित गुंजाइश बनी रहे।

दर्पण आत्म बोध का एक माध्यम है। बाह्य जगत में इतने घुले हुए व्यस्त रहते हैं कि अपने को एक प्रकार से भूल ही बैठे होते हैं। याद तो शरीर और मन की क्षुधा, तृष्णा ही रहती है। आत्मा या परमात्मा भी कोई होता है? हम भी आत्मा है आत्मा के कुछ अपने स्वार्थ और कर्त्तव्य भी हैं क्या? यह बात पढ़ी सुनी तो कई बार होती है, पर उसने तथ्य के रूप में कभी हृदय की गहराई तक प्रवेश नहीं किया होता। यदि आत्मबोध की यथार्थता अंतःकरण में सजग हुई होती तो निश्चित रूप से भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त करने की तरह आत्मोत्कर्षण के लिए भी कुछ करने की प्रेरणा उठी होती और उस दिशा में भी कुछ तो बना ही होता।

अकेला दर्पण आत्मबोध, आत्म दर्शन करा दे, यह किसी प्रकार संभव नहीं। पूजा उपासना के पीछे जो प्रेरणायें भरी पड़ी हैं उनसे प्रभावित होकर उपयुक्त चिंतन और कर्त्तव्य अपनाते हुए दिव्यजीवन की रीति-नीति अपनाई जा सके तो ही इन पूजा परक कर्मकाण्डों का महत्व है। आत्म बोध की विचार धाराओं से अंतःकरण को भरने में सहायता करना ही दर्पण उपकरण का उद्देश्य है। उसी प्रकार पूजा का उपयोग यही है कि जीवन निमार्ण की प्रेरणाओं को उभारे और उन्हें सक्रिय बनायें। लकीर पीटने जैसी चिन्ह पूजा से न तो आत्म कल्याण हो सकता है और न दर्पण की मनुहार करने से आत्म लाभ का प्रयोजन पूरा हो सकता है।

आत्मबोध की आत्म विश्लेषण की साधना दर्पण के सहारे की जाती है। इस साधना के द्वारा प्रायः संबंधित सभी समस्याओं पर प्रकाश पड़ जाता है। आत्मबोध, आत्म निरक्षण, आत्म सुधार और आत्म विकास की पृष्ठभूमि क्या हो सकती है? आस्थाओं में आकाँक्षाओं में क्या हेर फेर होना चाहिए? गतिविधियों में रीति नीति में एवं कार्यपद्धति में क्या उलट पलट की जानी चाहिए, इसकी एक प्रभु प्रेरित सुविस्तृत रूपरेखा सामने आती है।

यदि प्रस्तुत दिव्य संदेशों को अंतःकरण की गहन भूमिका में प्रतिष्ठापित किया जा सका और उन्हें क्रिया रूप में परिणत करने का प्रबल पराक्रम भरा आत्मबल उपलब्ध हो सका तो समझना चाहिए कि दर्पण के माध्यम से की जाने वाली आत्मबोध की साधना एक दैवी वरदान बनकर सामने आई है। आत्मोत्कर्ष के महान प्रायोजन की आवश्यकता पूरी हुई और अणु से विभु, नर से नारायण बनने का लक्ष्य हस्तगत हुआ।


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