क्या अर्थशास्त्र व अध्यात्म परस्पर विरोधी हैं?

December 1991

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विश्व व्यवस्था में सक्रिय रूप से दो शक्तियाँ कार्यरत देखी गयी हैं। उनमें एक का नाम अर्थ और दूसरे का नाम अध्यात्म है।परस्पर विरोधी दिखते हुए भी दोनों का लक्ष्य प्रायः एक है। अर्थशास्त्र का निष्कर्ष है कि व्यक्ति और समाज को समुन्नत सुविधा साधन सम्पन्न बनाने के लिए (1) उत्पादन बढ़ाने (2) पूँजी को उपयोगी कार्यों में लगाने तथा (3) सम्पत्ति के उचित वितरण का ध्यान रखे जाने की पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। यदि इन सब में आलस्य प्रमाद बरता जायेगा अथवा अव्यवस्था फैलाई जायेगी तो अर्थ संकट की विपत्ति का सामना करना पड़ेगा और सबको अकारण ही अवाँछनीय स्थिति में पड़ना पड़ेगा।

अध्यात्म शास्त्र के नियम भी अर्थशास्त्र की ही तरह हैं। उनका निष्कर्ष हैं कि (1) व्यक्तित्व, प्रतिभा और सामर्थ्य को निरंतर बढ़ाया जाय (2)संपत्ति और विभूतियों को सत्प्रयोजन में लगाया जाय (3)ज्ञान और तप से जो लोग ऊँचे उठे उनकी उपलब्धियों से समस्त मानव समुदाय को, समाज को, लाभान्वित होने दिया जाय। यदि इन तथ्यों को ध्यान में न रखा जाय तो उपार्जित आत्मबल अवाँछनीय आसुरी दिशा में लग सकता है और रावण, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर जैसे तपस्वी भी विनाशकारी विभीषिकायें उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए मात्र साधना, उपासना, तपस्या आदि आत्मिक उपार्जनों पर ही ध्यान केन्द्रित न किया जाय, वरन् यह भी देखा जाय कि उस भावनात्मक उत्पादन का प्रयोग उपयोग लोक मंगल के लिए अथवा किस प्रयोजन के लिए किया जा रहा है।

मूर्धन्य अर्थशास्त्री डॉ. फेयर चैल्ड, डॉ. टॉमस, डॉ. मार्शल आदि का कहना है कि कोई व्यक्ति निठल्ला न रहे, कोई हराम की कमाई न खाने पाये, किसी को बेकार न रहना पड़े, तभी किसी देश की आर्थिक स्थिति सुव्यवस्थित रह सकती है। हेग विश्व विद्यालय के सुप्रसिद्ध स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ. अलबर्ट ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान विकृतियों का बहुत बड़ा कारण, श्रम व्यवस्था में व्यतिरेक को माना है।

उनका कहना है कि समुचित श्रम की न्यूनाधिकता ही कायिक और मानसिक स्वास्थ्य संतुलन को नष्ट करने का प्रधान कारण है। व्यक्ति के जीवन क्रम में ऐसे श्रम का समुचित स्थान रहना चाहिए। जिसमें उपयोगी एवं आवश्यक तत्वों का बाहुल्य हो। साथ ही उसकी मात्रा भी संतुलन की दृष्टि से इतनी रहनी चाहिए जो न न्यून हो और न अधिक।

अध्यात्म शास्त्र का मन्तव्य यह है कि हर व्यक्ति को अपने कायिक और मानसिक क्षेत्र को उर्वर भूमि मान कर उसमें सद्गुणों की, सत्कर्मों की सत्स्वभाव की कृषि करनी चाहिए। सद्भावनाओं और सद्प्रवृत्तियों की बहुमूल्य फसल उगानी चाहिए। मात्र धन ही संपदा नहीं है। असली कमाई कृषि फार्मों, कारखानों आदि में नहीं होती, वरन् वास्तविक दौलत तो काया-कलेवर एवं मनःसंस्थान में उपार्जित की जाती है। प्रतिभा, समर्थता और गरिमा को बढ़ाने के लिए उसी लगन और तत्परता के साथ पुरुषार्थ किया जाना चाहिए। जिस मनोयोग से धनोपार्जन के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाता है। व्यक्ति और समाज को समुन्नत बनाने के लिए धन से भी बढ़कर प्रतिभाशाली और उच्च चरित्र वाले नागरिकों की आवश्यकता पड़ती है। अध्यात्म उपार्जित यही संसार की सबसे बड़ी संपदा भी है।

मनीषियों का कहना है कि मनोबल बढ़ाने के लिए दुस्साहस और दुष्कर्मों का अवलम्बन अवाँछनीय है। असुर पक्ष में ताँत्रिक वाममार्गी उन उपायों को बेहिचक प्रयुक्त किया जाता है जिनकी गणना न्याय नीति की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अनेक सम्प्रदायों में पशुबलि प्रथा प्रचलित है। कहीं-कहीं साधनारत व्यक्ति मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं। कापालिक और अघोर सम्प्रदायों में ऐसे कृत्य मनस्वी व तपस्वी बनने के लिए काम में लाये जाते हैं जिसे जिस-तिस प्रकार साधन एवं धन बटोरने वाले उपायों की तरह अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। कई सिद्ध योगी अपनी सिद्धियों को, अपने को चमत्कारी सिद्ध विख्यात करने में अथवा स्वर्ग मुक्ति के व्यक्तिगत लाभ में ही खर्च कर डालते हैं। इसी तरह अर्थ क्षेत्र में चन्द लोगों के हाथ में इतने साधन आ जाते हैं कि अगणित लोगों द्वारा कमाई जाने वाली आजीविका स्वयँ ही हड़पकर जाते है। अर्थशास्त्र की तरह अध्यात्मशास्त्र का भी यही नियम है कि विशिष्ट उत्पादन की वह पूँजी जो निर्वाह खर्च से बच जाये, ऐसे ही कामों में लगाई जानी चाहिए जिससे अतिरिक्त उत्पादन बढ़ने में सहायता मिले, भले ही वह पूँजी धन के रूप में हो अथवा विभूतियों के रूप में।

अर्थशास्त्री प्रो. वेनहम के अनुसार अर्थ की, पूँजी की सार्थकता इसी में हैं कि वह जन सामान्य की सम्पदा, आजीविका एवं सुविधा साधनों की अभिवृद्धि में सहायक हो। उनका मत है कि जिस प्रकार आचरण में नैतिक अनैतिक अन्तर किया जाता है और समाज व्यवस्था में न्याय अन्याय का वर्गीकरण किया जाता है, ठीक उसी प्रकार उत्पादन में वाँछनीय और अवाँछनीय का विभाजन किया जाना चाहिए। ऐसे नियम बनाये जाने चाहिए जिसके कारण अवाँछनीय उत्पादन की दिशा में बढ़ने वालों को कठिनाइयों का सामना करना पड़े। साथ ही यह व्यवस्था भी होनी चाहिए कि उपयोगी उत्पादन के लिए उत्सुक लोगों की अड़चनें सरल बनाने के लिए शासन एवं समाज का सहयोग उपलब्ध रहे।

धन की ही भाँति प्रतिभा, ज्ञान एवं आत्मिक विभूतियों की सार्थकता इसी में हैं कि परमार्थ उत्पादन में लगे। इसे आत्मिक क्षेत्र की सक्रियता कहते हैं। इस तरह की सम्पदा जिसके पास हैं वे उनको उदार धनी-मानियों की तरह लोक मंगल के लिए आयोजित करने का सत्साहस दिखायें। ढलती उम्र में बच्चों के समर्थ हो जाने अथवा रिटायर होने पर आमतौर से लोग बेकारी और मटरगश्ती में दिन काटते हैं। यह समाज का ऋण मार बैठने की तरह ही हेय है। किसी की भी प्रगति एकाकी प्रयत्न से नहीं हो सकती। जो भी ऊँचा चढ़ा या आगे बढ़ा है उसे समाज के सहयोग से ही इस प्रकार लाभान्वित होने का अवसर मिला है। अतः उसका कानूनी न सही नैतिक उत्तरदायित्व है कि जब भी अवसर मिले, समाज का ऋण चुकाने के लिए। अपने बचे हुए समय, ज्ञान एवं प्रभाव को लोक मंगल के लिए प्रयुक्त करे। जमीन में सोना गाड़ने अथवा जेवर लटकाये फिरने वाले लोग जिस तरह पूँजीगत लाभ से समाज में उद्योग व्यवसायों में गतिरोध उत्पन्न करते हैं,उस लाभ से अनेकों को रोजी प्राप्त करने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार आत्मिक और बौद्धिक सम्पन्न लोग भी यदि अपनी विभूतियों को अपने या परिवार तक के लिए सीमित रखते हैं तो उससे मानव समाज की प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है। विभूतिवान व्यक्ति यदि अपने को मिला विशेष ईश्वरीय अनुदान विलासी प्रयोजनों में खर्च कर डालते हैं, स्वयं के शौक-मौज या चमत्कार दिखाने तक सीमित रहते हैं तो समझना चाहिए कि भले ही यह सामान्य प्रचलन जैसा दिखे, पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार इस रीति-नीति को गर्हित ही ठहराया जायेगा।

मनुष्य केवल धन ही नहीं कमाता, उसके उत्पादन में अन्य अनेक ऐसी विशेषताएँ, विभूतियाँ भी सम्मिलित हैं, जो व्यैक्तिक एवं सामाजिक सुख शाँति को बढ़ाने में धन से भी अधिक कारगर सिद्ध होती हैं। यह क्षेत्र विशुद्धतः अध्यात्म का है। साधन, तपश्चर्या द्वारा उपार्जित आत्मिक क्षेत्र की ऋद्धियों-विभूतियों एवं भौतिक क्षेत्र की सफलताओं -सिद्धियों का लाभ


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