ध्यान संबंधी गुत्थियाँ व उनका समाधान

December 1991

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जड़े जमीन में न हों ऐसे पेड़ की कल्पना करना कठिन है। ठीक उसी तरह जीवन अपना अस्तित्व, कर्म बिना भी बचाये रख सकता है, सोच पाना कठिन है। निठल्ले-निकम्मे समझे कहे जाने वालो को भोजन आदि शरीर की अनिवार्य जरूरतों को पूरा करने के लिए हाथ पैर हिलाने के लिए विवश होना पड़ता है। फिर जिनका मन सतेज, शरीर सबल है उनका कहना ही क्या? आठों प्रहर उन्हें कर्म की कठोर दीवारों और कर्म संबंधी विचारों के तन्तु जाल में बँधे फँसे रहना पड़ता है। कर्म की तपती भूमि से मानव ध्यान के शीतल सरोवर में प्रवेश कैसे करें? रोज नये कामों की नयी नयी उलझनों के चक्रव्यूह में फँसें, इसकी तप्त ज्वाला में सुलगते-झुलसते उसके मन को बचाव का एक ही उपाय सूझता है जैसे-तैसे ध्यान की शीतलता में कूद जाय। लेकिन इसके प्रवेश द्वार पर लटकी आवश्यक सूचनाओं की पट्टिका में शीर्ष स्थान पर उत्कीर्ण अक्षर समूह की चमचमाहट में स्पष्ट निषेध सुनाई देता है। कर्म नहीं इसे छोड़ना अनिवार्य है यदि ज्यादा देर तक न छोड़ सको तो कम से कम उतनी देर तक तो छोड़ना ही पड़ेगा जितनी देर ध्यान करना है।

मनीषी ए. एस. कुआ के चिंतन कोष “दि यूनिटी ऑफ मेडिटेशन एण्ड एक्शन” के अनुसार ध्यान और कर्म एक गहरे असामंजस्य के दो छोर लगते हैं। प्रबल विरोधाभास की यह अंतर्वर्ती मरुभूमि मानवीय सामर्थ्य को निश्चेष्ट करती रही है। अपने अस्तित्व की शुरुआत से मानव समाज यह धारणा संजोये रहा है, जिसे ध्यान करना है उसे कर्म का त्याग करना पड़ेगा, जिसे काम करने का मोह है उसे ध्यान का लाभ नहीं मिलेगा। बात सिर्फ हिंदू धर्म-आर्य भूमि की नहीं, जहाँ कहीं जिस किसी भूखण्ड, जाति समूह में आस्तिक भावनाएँ पनपीं व्यक्तित्त्व विकास को चरम स्तर पर पहुँचाने की ललक उमगी है। इन भावों का विकास हुए बिना नहीं रहा। ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी, बौद्ध, जैन सभी को इन दो मनोभावों में बाँटा जा सकता है। मानव की प्रवृत्तियों और प्रकृति के इस विभाजन में कितनी ही निराशा की वेदना क्यों न सहनी पड़ी हो, पर होना इसकी मजबूरी रही है।

ऐसा नहीं कि इस गहरे असामंजस्य के बीच सेतु निर्माण की कोशिशें नहीं हुई। हर समाज ने अपनी रचना और परिवेश के अनुरूप प्रयास किये हैं। कर्मयोगी और संन्यासी दोनों के द्वारा स्वयँ को अपूर्व ठहराना और परस्पर पूरक होकर रहने की प्रतिज्ञा में बँधना इसी का एक रूप है। अब तक के सामंजस्य प्रयासों की यही सीमा रेखा है। इसे प्रमाण का अंतिम मापदण्ड मान लिये जाने के कारण लोक मानस में यह धारणा बद्धमूल हो गई कि जो ध्यानी है उसे संन्यासी हो जाना चाहिए, जो गृही है उसे ध्यान से क्या लेना देना, एक का स्वधर्म दूसरे का विधर्म बनकर रह गया, विधर्म के प्रति अधिक से अधिक संवेदना जन्य सहानुभूति भर हो सकती है। उसे अंगीकार किया जाने से तो रहा, संन्यासी गृही, भिक्षु श्रमण के रूप में दो समूह स्थायित्व पा गए।

इस बँटवारे का परिणाम यह रहा कि कर्मशक्ति और ध्यानशक्ति मिल नहीं पाई। इन दोनों महाशक्तियों का मिलन मनुष्य को जिस परमशक्ति की उपलब्धि कराता, उससे उसे वंचित रहना पड़ा। कर्म में ऊर्जा की जो प्रचण्डता समाई है, ध्यान में उससे कहीं कम नहीं। आज संसार में अपने आस-पास से दूर-दूर तक हलचलों की जो तीव्रता, सृजन और विनाश का नित नया उद्दाम प्रवेग दिखाई देता है वह और कुछ नहीं कर्म शक्ति के महासागर में उठने वाले बबूले लहरें-तरंगें भर हैं। ध्यान शक्ति की ऊर्जास्विता को आज थोड़े ही अंशों में समझा जा सकता है। वैयक्तिक रूप से यदा-कदा इसकी झलक भले दिखाई पड़ जाय। पर सामूहिक रूप में इसकी व्यापकता के बारे में सोच पाना भी कठिन है। जबकि भारत की पुरा संपत्ति पूर्व संस्कृति में इसके एक से एक अनूठे प्रयोगों की चर्चा भरी पड़ी है। यथार्थ कहा जाय तो ध्यान शक्ति की प्रबलता और प्रचण्डता कर्म से कही बढ़कर है। मनोविज्ञान के इस युग में उपर्युक्त कथन सर्वदा अनजाना नहीं है। जब शरीर की तुलना में मन की सामर्थ्य अजेय और अपराजिता मानी जाने लगी है, तब कर्म की तुलना में ध्यान की महत्ता को बड़ा स्वीकारने में आपत्ति क्यों?

इन शक्तियों की ऊर्जास्विता कितनी ही क्यों न हों, पर जब तक इनका मिलन नहीं होता परिपूर्ण लाभ की कल्पना कठिन है। मिलन के लिए जरूरी है इनकी प्रक्रिया और परिणामों से परिचित हुआ जाय। साथ ही उस बिन्दु की शोध हो जहाँ ये दोनों एकाकार हो सकें। आर्यभूमि के अध्यात्म ने हमेशा इस शोध परंपरा का अनुशीलन-अनुसरण किया है।

ध्यान महज एकाग्रता नहीं ठीक उसी प्रकार जिस तरह कर्म क्रिया कर्त्ता का योग भर नहीं, एकाग्रता ध्यान का आवश्यक किन्तु प्राथमिक चरण भर है। इसे पूरा कर लेने पर मनोलोक की सूक्ष्मताओं में अनेक घटनाएँ घटती है। मन पंचम सूक्ष्म इन्द्रिय पदार्थों से सूक्ष्म तन्मात्राओं में प्रवेश करता है। स्वयँ सूक्ष्म होकर प्रकृति की सूक्ष्मताओं को भेदता चेतना के एक के बाद दूसरे सोपानों में पहुँचने लगता है। इनमें से प्रत्येक स्तर अपने आपे में समूचा एक लोक ही है, प्रत्येक की अपनी अनुभूतियाँ अपना जीवन है, एक लोक के वासी दूसरे लोक की कल्पना नहीं कर सकते, करेंगे भी तो विकृत प्रायः। सामान्य व्यक्ति और ध्यान योगी के बीच ऐसा ही अंतर है। ये रूप आकृति की वाह्य दृष्टि से एक-सा दिखते हुए भी अंतर चेतना के धरातल पर धरती और आकाश जैसी दूरी पर निवास करते हैं।

ख्याति लब्ध विचारक आर. ए. स्ट्रेकर के चिंतन संग्रह “डिस्कवरिंग अवरसेल्वस” के अनुसार ध्यान मानव के चरम और परम विकास का सीधा, सरल व लघुत्तम मार्ग है। कर्म इस विकास की अभिव्यक्ति का माध्यम। यों किसी न किसी रूप में इनका थोड़ा बहुत संपर्क बना रहता है पर इतना काफी नहीं। अनिवार्यता इस बात की है कि शुरू से ही दोनों शक्तियाँ एकाकार हो चलें। ध्यान के प्रथम चरण में धारणा या एकाग्रता की गहरी जरूरत समझी जाती है। इसके लिए आचार्यों के आलम्बन की आवश्यकता सुझाई है। मार्ग विशेष के अनुसार इनमें भिन्नता संभव है। वास्तविक ‘अर्थों में यह विभेद मार्गों का नहीं मानव रुचियों का है। बौद्ध पूर्णिमा के चाँद को ध्यान का आलम्बन मानता है, तो आर्य सूर्य का, शैव-वैष्णव और शाक्तों में यह अपनी-अपनी इष्ट मूर्तियों का है। पर यह अंतर, अंतर नहीं है, इस कारण सूत्रकार पतंजलि प्रथम पाद के ध्यानयोग प्रकरण में “यथाभिमत ध्यानाद्धा” का उनतालिसवाँ सूत्र प्रतिपादित करते हैं। जो भी मनोनुकूल और तुम्हारे जीवन को ऊँचा उठाने वाला लगे आलम्बन के रूप में स्वीकार कर लो।

आलम्बन की उपयोगिता और महत्ता इतनी भर है कि वह चितवृत्तियों को एकाग्र करे। यह एकाग्रता साधन मात्र है, साध्य नहीं। साकारवादी हो या निराकारवादी हर किसी को इस रूप में कुछ न कुछ स्वीकारना पड़ता है। आखिर कहीं न कहीं तो मन को टिकाना ही है और यह आलम्बन के बगैर तो होने से रहा, फिर यह आन्तर हो या बाह्य-दीपशिखा, तारा, सूर्य, गुरुमूर्ति, इष्टमूर्ति, मंत्र, भाव, विचार कुछ भी क्यों न हो, रुचि विभेद के अनुसार फेर बदल संभव है। इसके लिए ऐसा सहारा क्यों न लिया जाय जहाँ सारी रुचियाँ एकाकार होती हैं, जो सभी को एक साथ संतुष्ट करें। यह आलम्बन है कर्म।

फ्रेंच विचारक देहलिन द यारदें के विचार कोष “द मेकिंग ऑफ माइंड” के अनुसार समूची सृष्टि में एक भी ऐसा मनुष्य न होगा जिसका मन किसी न किसी काम में न टिके। फिर काम किये बिना रहा भी नहीं जा सकता। इसी कारण योगेश्वर को ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातुतिस्ठस्यकर्मकृत’ का सूत्र रचना पड़ा। कर्म ध्यान का सहज और श्रेष्ठ आलम्बन है।

पर ध्यान के आलम्बन का निर्दोष-निष्कलुष रहना जरूरी है। यहाँ पर रह गया तनिक सा कलुष साधनामय जीवन के भविष्य और विकास समूचे को तहस-नहस कर देता है। इष्ट और गुरुमूर्तियों को स्वीकारने के पीछे पूर्णता और पवित्रता का भाव ही रहा है। सूर्य को भी सुन्दर, पवित्र, प्रेरणादायक होने के कारण स्वीकारा गया है। सामान्य कर्म दोषों से भरा रहता है। दोष जहाँ भरे रहते हैं वहाँ स्वरूप नहीं, उसके पीछे रहने वाला भाव है। शुरुआत करते ही जो दोष चढ़ दौड़ते हैं। वे यही काम करेंगे। कर्म विशेष के प्रति आसक्ति। मेरे द्वारा किया गया काम श्रेष्ठ बाकी सब कनिष्ठ। मुझसे कर्म किये बिना रहा नहीं जाता इसलिए मैं चौबीसों घण्टे काम करूंगा भले औरों का काम छीनना पड़े।

इस तरह का दूषित कर्म ध्यान का आलम्बन नहीं बन सकता। यह बात नहीं कि सिर्फ कर्म ही दोषयुक्त और अनाध्यात्मिक है और ध्यान सर्वदा दोषमुक्त और आध्यात्मिक। यह धारणा यदि त्रुटि पूर्ण नहीं होती तो ध्यान के गहरे आयामों को छूने वाले रावण, रासपुटिन अनाध्यात्मिक न होते, ध्यान के द्वारा उनका शक्ति संयम कुछ इसी तरह का था जिस प्रकार हिटलर मुसोलिनी जैसों का कर्म के द्वारा शक्ति संचय। अध्यात्म के अभाव में ये सभी स्वयं की शक्ति के द्वारा ही बुरी तरह तबाह हो गये।

इनमें आध्यात्मिकता का समावेश उस समय नितान्त जरूरी हो जाता है जब दोनों महाशक्तियों का मिलन और मिलन के रूप में परम शक्ति की उपलब्धि सोची जा रही हो, ध्यान के आलम्बन के रूप में कर्म के होने पर तन्मयता की उपलब्धि होती है। शरीर और मन की सामर्थ्य कई गुना बढ़ जाती है। लेकिन यह प्रथम चरण है। अध्यात्म के सिंहद्वार का दर्शन मात्र, प्रवेश नहीं। प्रवेश तो उस भाव के साथ होता है जिसमें हम भगवान की उपस्थिति को हृदय में अनुभव करते हैं। भावों के इस प्रवाह में भीग चुके अस्तित्व से यह निरंतर स्पन्दित होता रहे कि यह काम भगवान अपने एक यंत्र के द्वारा स्वयँ ही कर रहे हैं।

प्रक्रिया के इस सिलसिले में अनुभूतियों का वैसा ही दौर शुरू होता है जो ध्यान के अन्य साधक को मिलती हैं। क्रिया, कर्म, कर्त्ता का अलगाव ध्याता, ध्येय और ध्यान के अलगाव की भाँति है। साधना की प्रगाढ़ता में अलगाव की रेखाएँ मिट जाती हैं। साधक साकार से निराकार भाव में प्रवेश करता है। चित्त के परिपूर्ण समाधान की यही दशा समाधि की है।

ध्यान योग अष्टक योग में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। भक्ति ज्ञान, कर्म की तीनों धाराएँ यहाँ आकर मिल जाती हैं। यदि ध्यान का मर्म हृदयंगम किया जा सके तो सहज ही सिद्धि की उपलब्धि भी संभव है।


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