सर्वांगीण प्रगति का एक ही मार्ग

December 1991

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शरीर और प्राण मिलकर जीवन बनता है। इन दोनों में से एक भी विलग हो जाये तो जीवन का अंत ही समझना चाहिए। गाड़ी के दो पहिये संतुलन बनाते और गति देते है। इनमें से एक को भी टूटा फूटा, अस्त व्यस्त नहीं होना चाहिए, अन्यथा प्राण और मूलभूत की तरह अदृश्य रूप से आकाश में, लोक लोकान्तर में परिभ्रमण करना पड़ेगा। शरीर की कोई अंत्येष्टि न करेगा तो वह स्वयँ ही सड़ गल जायेगा।

दैनिक अनुभव में शरीर ही आता है। आत्मा को उसी के साथ गुँथा रहना पड़ता है। इसका प्रतिफल यह होता है कि आत्मा अपने आप को शरीर ही समझने लगती है ओर इसकी आवश्यकताओं से लेकर इच्छाओं तक को पूरा करने के लिए संलग्न रहता है। दूसरा पक्ष चेतना का, आत्मा का रह जाता है। उसके प्रत्यक्ष न होने के कारण उधर प्रायः ध्यान ही नहीं जाता है, फलतः ऐसा कुछ सोचते करते नहीं बन पड़ता, जो आत्मा की समर्थता एवं प्रखरता के निमित्त आवश्यक है। यह पक्ष उपेक्षित बना रहने पर अद्यर्गि पक्षाघात पीड़ित जैसी स्थिति बन जाती है। जीवन का स्वरूप एवं चिंतन कर्तव्य सभी में उद्देश्यहीनता घुस पड़ती है। जीवन प्रवाह कीट पतंगों जैसा, पशु पक्षियों जैसा बन जाता है। उसमें पेट प्रजनन की ही ललक छाई रहती है। वही कुछ बन पड़ता है, जो शरीर की निमित्त के काम आये। भूख की, कामुकता की, वासना, तृष्णा, अहंता की पूर्ति कर सके।

लोभ, मोह और प्रशंसा अहंता की ललक ही ऐसे व्यक्तियों पर अहर्निशि छायी रहती हैं। इसी ललक लिप्साओं को भव बंधन कहते हैं। इसी से जकड़ा हुआ प्राणी हथकड़ी बेड़ी के रूप में पहने हुए बंदी की तरह जेलखाने की सीमित परिधि में मौत के दिन पूरे करता है। इन परिस्थितियों में संकीर्ण स्वार्थ परता की पूर्ति ही लक्ष्य बन जाती है। समूचा चिंतन ओर प्रयास इसी हेतु नियोजित रहता है। ऐसी दशा में आत्मा के संबंध में कुछ विचार करते ही नहीं बन पड़ता। उपेक्षित की पुकार कौन सुने? जिसे उसकी आवश्यकताओं से वंचित रखा गया हो, अपेक्षित तिरस्कार किया गया हो, पोषण से वंचित रखा गया हो, दुर्बल तो होगा ही। आवश्यकता की स्थिति में उसकी वाणी भी क्षीण हो जायेगी। कड़क कर अपनी आवश्यकता पूरी हो जाने और शिकायत सुनाने की स्थिति भी न रहेगी। फलतः आत्मा की सत्ता होते हुए भी उसे जब कुछ कहने लायक, परामर्श देने लायक की स्थिति में न रहने दिया गया हो, तो समझना चाहिए कि उसके वर्चस्व का निखरना संभव ही नहीं रहा। शरीर के निमित्त ही अंग अवयवों की ज्ञानेन्द्रियों, कामेन्द्रियों, की विविध विधि हलचलें होती रहेंगी। ऐसी दशा में यदि जीवन चर्या पर संकीर्ण यथार्थ परता ही छाई रहें और उनकी पूर्ति के लिए सुविधा, सम्पन्नता बढ़ाने, उसका उचित अनुचित उपयोग करने की नशेबाजों जैसी खुमारी छाई रहे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

आत्म विस्मृतियाँ ही दुर्भाग्य भरी दुर्दशा है, इसके कारण मनुष्य अपने सुरदुर्लभ जीवन की गरिमा, जिम्मेदारी, संभावना आदि सभी कुछ भूल जाता है। भूल-भुलैयों में भटकता हुआ। मनुष्य मृगतृष्णा में भटकने वाले मृग का उदाहरण बनता है। भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह शावक की उसी स्तर पर मिमियाने और घास खाने की कहानी प्रसिद्ध है। उसका उद्धार तब हुआ था जब उसे पानी में परछाई देखने और दूसरे सिंह द्वारा वर्तमान रीति-नीति बदल डालने के लिए समझाते हुए सहमत किया गया था। भृंग कीट की कथा भी इसी से मिलती जुलती हैं। भृंग द्वारा पकड़ा गया कीड़ा उसका निरंतर गुँजन सुनकर मोहित हो जाता है। वह तन्मयता इतनी बढ़ जाती है कि मन ही नहीं शरीर भी उसी सांचे में ढल जाता है। यों यह उदाहरण भक्त के भगवान बनने और उसके लिए साधना उपक्रम अपनाने पर भी लागू हो सकता है। पर वस्तुतः वैसा नहीं होता। अपने को शरीर मात्र समझने और उसी सेवा शुश्रूषा में निरन्तर लगे रहने के कारण आत्मा की स्थिति भी अन्य अंग अवयवों की भ्राँति एक सामान्य घटक जैसी रह जाती है। उसका उपयोग इतना ही रहता है कि उसके बने रहने पर शरीर भी जीवित बना रहता है। मनमर्जी की कर सकने के लिए जिस शक्ति सामर्थ्य की आवश्यकता है उसे उपलब्ध कराता रहे।

होना यह चाहिए कि जिस प्रकार शरीर की विभिन्न इच्छा, आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है उसी प्रकार जीवन व्यवसाय के वरिष्ठ साझीदार को भी लाभाँशों में से उसके भाग को निकाला और दिया जाय। होता यह है कि काय पक्ष ही सब कुछ झपट निगल लेता है। आशा को निराशा और अभावग्रस्तता की स्थिति में रहना पड़ता है। ऐसी दशा में उसका दिन दिन दुर्बल होते जाना स्वाभाविक है। नियंत्रण ढीला पड़ जाने पर काया को पदार्थ संपदा के साथ खुलकर खेलने की छूट मिलेगी ही, उच्छृंखलता अपनाकर धृष्टता को परिपक्व करने से अराजकता जैसी स्थिति उत्पन्न करेगी ही, यही है मनुष्य का पतन पराभव। इसी स्थिति में दुष्टता और भ्रष्टता पनपती हैं, क्रिया की प्रतिक्रिया होनी अवश्यम्भावी है। चिंतन और चरित्र यदि गये गुजरे स्तर का हो तो प्रतिकूल दुःखद संकटग्रस्त एवं विनाशकारी होगा ही। उन दुष्परिणामों का कर्त्ता स्वयं तो भोगता ही है, साथ ही अपने संबद्ध परिवार को भी इस दल दल में घसीट ले जाता है। नाव की तली में छेद हो जाने पर उसमें बैठे सभी यात्री मझधार में डूबते हैं। स्वार्थी, विलासी, कुकर्मी स्वयं तो आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना, दैवी दण्ड विधान की आग में जलता ही है, साथ ही अपने परिवार को, संबंधी स्वजनों, मित्रों को भी अपने जाल जंजाल में फँसा कर अपनी तरह दुर्गति भुगतने के लिए बाधित करता है। नशेबाजी क्रिया की प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है। बहुप्रजनन में व्यस्त व्यक्ति भी अदूरदर्शिता के कारण, अपना, पत्नी का, बच्चों का भविष्य बिगाड़ते हैं। बीमारों का परिकर भी त्रास पाता रहता है। राजदण्ड की पकड़ में आये हुए व्यक्ति तो स्वयँ जेल भुगतते हैं साथ ही परिवार को चिंता, बदनामी, कर्ज में डुबो जाते हैं। आत्मा की उपेक्षा करके उसकी भागीदारी देने में बेईमानी बरतने वाले भी इसी प्रकार पतन के गर्त में गिरते हैं और साथ ही अपने प्रभाव क्षेत्र में भी निष्कृष्टता का संवर्धन करते हुए उन्हें भी कुचक्र में फँसाते हैं।

यह है संक्षिप्त विश्लेषण उस वस्तु स्थिति का जो साधना संपन्न रहते हुए भी व्यक्तित्त्व को, प्रतिभाओं को ऊँचा उठाने के स्थान पर पतनोन्मुख बनाती और और उसकी दुखद प्रक्रिया से समूचा वातावरण विकृत दुर्गन्धित करती है। इसे आत्मिक दुर्बलता भी कह सकते हैं, जबकि आदर्शों को अपनाने की, दृष्टिकोण उत्कृष्टता भरने की, कार्यपद्धति को दूरदर्शी विवेकशीलता के अनुरूप बनाने की महती आवश्यकताओं को यही पूरा कर सकती है। सत्प्रवृत्तियां आत्मिक क्षेत्र से ही उभरती हैं। सन्मार्ग पर ले चलने वाला प्रकाश उसी केन्द्र से उपलब्ध होता है। यदि समुद्र के बीच में खड़ा हुआ यह प्रकाण्ड स्तम्भ बुझ जाय तो फिर उस क्षेत्र में चलने वाले जलयान चट्टानों से टकराकर दुर्दशाग्रस्त होंगे ही।

विचारशीलों का इस तथ्य के संबंध में गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। क्योंकि इससे प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन का उत्थान पतन तो जुड़ा ही है, साथ ही यह भी निश्चित है कि हर व्यक्ति अपना भला बुरा प्रभाव समाज पर छोड़ता है। विशेषतया सुगंध की अपेक्षा दुर्गंध का विस्तार भी अधिक होता है। और प्रभाव भी अधिक पड़ता है।


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