समय की पहली माँग- दूरदर्शिता

December 1991

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आँखों की ज्योति जब अतिशय क्षीण हो जाती है तो मात्र निकटवर्ती चीजें ही दीख पड़ती हैं। दूर पर तो कुहासा ही छाया प्रतीत होता है। न कुछ सूझ पड़ता है न दीखता है। मोतियाबिंद पक जाने पर भी यही स्थिति हो जाती है। लाठी के सहारे निकटवर्ती स्थिति का कुछ अनुमान लगाकर ही किसी तरह काम चलाया जाता है। छोटे बच्चों की समझ भी निकटवर्ती चमकीली वस्तुओं पर ही ललचाती और टिकती है। वे जैसे ही रेंगना शुरू करते हैं सामने पड़ी चमकदार वस्तुओं को ही पकड़ते हैं और उनका उपयोग मुँह में डाल लेना भर समझते हैं। खिलौने, सिक्के, मिर्च, कीड़ा कुछ भी क्यों न हो। जो भी हाथ आता है, उसे पकड़ते और मुँह में रखते हैं। पीछे चाहे इसका परिणाम कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े। भविष्य भी कुछ होता है और उसको भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इतनी समझ उन्हें होती ही कहाँ है? मानसिक दृष्टि से अविकसित पगले भी तात्कालिक चंचलता भर से प्रेरित रहते हैं। आगा पीछा भी उन्हें भी कुछ नहीं सूझता।

चिड़ीमार के जाल में चिड़ियाँ एक जगह कुछ दाने पड़े देखकर ही दौड़ पड़ती हैं और जान जोखिम उठाती हैं। मछलियों को भी सामने का चारा देखकर टूट पड़ने पर यही दुर्गति होती है। चासनी के कढ़ाव में कूद कर मक्खियाँ भी कम नहीं पछताती। उस भूल का प्रायश्चित वे जान गवाँ कर ही कर पाती हैं। यह सब अबोध स्थिति की चर्चा है। पर उन्हें क्या कहा जाय जो समझदारी का दावा करते हुए भी उसी प्रकार का आचरण करते हैं।

कई उजड्ड बच्चे बुरे लड़कों की संगति से आवारागर्दी के कुचक्र में फँस जाते हैं। पढ़ना लिखना छोड़ देते हैं। दुर्व्यसनों के आदी बन जाते हैं। आरंभ में तो अभिभावकों का रोकना समझाना तक बुरा लगता है पर बड़े होने पर प्रतीत होता है कि उनने आधी जिंदगी खराब कर ली। पीछे पछताते हुए मौत के दिन पूरे करने पड़ते हैं। छोटे कीड़े मकोड़ों की आंखें भी सिर्फ पास का ही देखती हैं। फलतः वे राहगीरों के पैर तले कुचलते रहते हैं।

यदि सैनिकों के पास दूरबीन न हो तो वे छिपे हुए शत्रु छापामारों के हमले का शिकार हो सकते हैं। जलयानों को दूरबीन के बिना अपनी यात्रा में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। आकाश में ऊँचे उड़ने वाले पक्षी भी तेज दृष्टि होने के कारण ही जमीन पर अपनी खुराक खोज पाते हैं। पैनी दृष्टि जिसे समझदारों की भाषा में दूरदर्शिता भी कहते हैं, मनुष्य के लिए एक वरदान है।

मूर्खता मात्र वर्तमान में ही जीती है। वह न भूतकाल के अनुभवों से कुछ शिक्षा लेती है और न भविष्य का अनुमान लगा सकने की क्षमता होती है। फलतः उनके लिए कोई उपयोगी लक्ष्य बना पाना तक संभव नहीं होता है, कि वे समय और श्रम को सुनियोजित करके कोई बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर सकें। वह तो बन ही कैसे पड़े? हवा के साथ उड़ने वाले पन्नों की तरह भली बुरी परिस्थितियों के साथ उठते गिरते, उड़ते-पिछड़ते रहते हैं। इस संयोग को विदूषक का एक भोंड़ा मजाक ही कहना चाहिए।

किसी जमाने में दूरदर्शिता मनुष्य की समझदारी के साथ अविच्छिन्न रूप से गुथी हुई थी। फलतः वे सोच पाते थे। की जीवन के क्षणों की बहुमूल्य सम्पदा के बदले कुछ ऐसा खरीदना चाहिए, जिस पर अपने को संतोष और दूसरों को प्रकाश का लाभ मिले। इस स्तर के लोगों को ही दूरदर्शी प्रज्ञावान कहा जाता है। वे ही कुछ ऐसा कर पाते हैं, जिनके लिए उन्हें चिरकाल तक सराहा जा सके।

बहुमूल्य सफलताएँ अर्जित करने वालों में से प्रत्येक को दूरदर्शिता अपनानी पड़ती है। सोचना पड़ता है कि आज के विचार और कृत्य कल के लिए क्या परिणति परिस्थिति उत्पन्न करेंगे, यह समझ जिन्हें होती है, वे आरंभ में कष्ट सहकर भी भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाला आवश्यक मूल्य चुकाते हैं। विद्यार्थी स्नातकोत्तर कक्षा उत्तीर्ण करने तक चौदह वर्ष की एकाग्रता भाव से तप साधना करते हैं और प्रतियोगिता में बाजी मारकर ऊँचे अफसर का पद पाते हैं। किसान एक वर्ष तक खेत की मिट्टी को पसीने से सींच कर कोठे भरी फसल काटता है और साथियों में सिर ऊँचा उठाकर चलता है। व्यवसायी, शिल्पी, कलाकार लम्बे समय तक साधनारत रहते हैं और उपर्युक्त समय पर श्रेयाधिकारी बनते हैं। लम्बे समय तक अखाड़े की साधना करने पर ही पहलवानों को मिलने वाले पुरस्कार को हस्तगत करने का अवसर मिल पाता है। इसे प्रकाराँतर की साधना कह सकते हैं। योगी जब इसी मार्ग पर अवलम्बन करते हैं तो सिद्ध पुरुष बनते हैं। आध्यात्मिकता अथवा भौतिक स्तर की बड़ी सफलताएँ पाने वाले मनमौजी नहीं रहे हैं। उनने भविष्य पर दृष्टि दौड़ाई है। तदनुरूप योजना बनाई है और एक निष्ठ भाव से अनवरत यात्रा करते हुए ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचने में सफलता पाई है। जिन्हें सिर्फ आज ही सूझा कल पर दृष्टि नहीं गई वे घाटे में रहे हैं और उपहासास्पद बने हैं।

स्वाद में चटोरे व्यक्ति गरिष्ठ वस्तु अति मात्रा में खा जाते है और कुछ ही समय में पेट दर्द, उल्टी दस्त, आदि के विकार बनते हैं। इन्द्रिय लिप्सा के अनेक प्रसंग सामने आते हैं। आतुरतापूर्वक आंखें मींचकर टूट पड़ने वाले लोग अपना शरीर और मस्तिष्क बुरी तरह खोखला कर लेते हैं। बीमारियों का शिकार होते हैं और अकाल मृत्यु के मुँह में जा घुसते हैं। चोर, लबार, ठग अपराधी प्रकृति के व्यक्ति तत्कालिक लाभ देखते हैं और यह भूल जाते हैं कि कुकर्मों का देर सवेर में इतना महँगा मूल्य चुकाना पड़ेगा, जिसे वहन करना अतिशय कष्ट साध्य होगा। अनाचार अपनी आँखों में तो पतित होता है भेद खुलते खुलते वह किसी की आँखों में अविश्वस्त और घृणास्पद बन जाता है। दण्ड अवस्था तक पहुँचना पड़े तो प्रताड़ना और भर्त्सना का कहर बरसता है। ऐसे व्यक्ति की योग्यताएँ भी, अप्रमाणिक बन जाने पर एक कोने में धरी रह जाती हैं। एक से एक क्रिया कुशल और चतुर लोग प्रायः जेलखानों में बंद पाये जाते हैं। उनके लिए भविष्य में कहीं कोई स्थान नहीं रह जाता। किसी प्रकार पेट भर लेने के अतिरिक्त और कोई नियति उनकी रह नहीं जाती। पीछे के लिए अपयश का पिटारा ही छोड़ मरते है। चातुर्य, कौशल और साहस भरपूर होते हुए भी दुर्गति का निमित्त कारण एक ही होता है- दूरदर्शिता का अभाव। कृत्यों के परिणामों का अनुमान न लगा पाना, प्रकृति के उस नियम को भूल जाना जिसमें “जो बोया है वही काटना” की कर्मफल प्रक्रिया का सुनियोजित विधान है, इस तथ्य को सही रूप से समझकर अपने लक्ष्य का, दिशा को सुनियोजित निर्धारित करने वाले सफल जीवन बनाते हैं। भटकने वाले झाड़-झंखाड़ों में उलझते और ठोकर खाते दिन बिताते हैं। न आत्म संतोष ही मिल पाता हैं न गर्व गौरव की अनुभूति ही हाथ लगती है। सच्चे मित्रों, प्रशंसकों और सहयोगियों का तो प्रायः अभाव ही बना रहता है। इस क्षति की पूर्ति हो सकना कदाचित ही किसी अन्य उपाय से ही संभव हो सके।

नशेबाजों को अदूरदर्शी ही कहना चाहिए। जो पैसा, स्वास्थ्य, यश, भविष्य, परिवार सब कुछ गंवाने के अतिरिक्त गये गुजरे व्यक्तित्व की लाश किसी प्रकार ढो पाते हैं। आंखें बंद कर बच्चे पर बच्चा जनते जाने वाले आरंभ में तो कुछ बड़ी कठिनाई अनुभव नहीं करते, समय-समय बीतते पता चलता है कि नारी का स्वास्थ्य चौपट हो गया है। व्यय भार बढ़ जाने के कारण उसकी पूर्ति अवाँछनीयता अपनाने पर भी कठिन ही बनी रहती है। समुचित ध्यान न दिये जाने पर संतानें कुसंस्कारी बनती और अभिभावकों के लिए जो संकट खड़ा करती हैं, उसे देखते हुए यह अनुभव होता है कि यदि समय रहते यह भूल न की गयी होती, तो अनावश्यक भार से न लदने की स्थिति में जीवन किस प्रकार किन्हीं शानदार प्रयोजनों में लगाकर धन्य हो गया होता।

दुर्व्यसनी, अनाचारी, अंधविश्वासी वर्ग के लोगों का प्रधान दुर्गुण एक ही होता है कि वे सिर्फ आज की अभी की बात सोचते हैं और यह अनुमान लगा नहीं पाते कि विष बीज जब भयंकर विष वृक्षों के रूप में फलित होंगे तो इनकी कितनी भयावह प्रक्रिया का त्रास सहना पड़ेगा।

कर्म का फल यदि तत्काल मिल जाने का विधान ईश्वर ने रखा होता तो संभव हैं लोग अनाचार पर न उतरते। झूठ बोलने पर मुँह में छाले हो जाते, चोरी करने पर हाथ को लकवा मार जाता, ठगों की आकृति बिगड़ जाती तो कदाचित कोई भी अनीति अपनाने पर उतारू नहीं होता, पर फल कर्म तो बीज बोने पर वृक्ष बनने में समय लगने पर देर में मिलता है। इसी से भ्रम में भूल हो जाती है और लोग ऐसा काम करने लगते हैं जिन्हें दूसरे द्वारा अपने साथ किये जाने की कल्पना नहीं करते। सामाजिक कुरीतियाँ इस कारण उपजी और फैली हैं। धूमधाम की शादियाँ इसका प्रमाण है। उस खाई को पाटने में दरिद्र और बेईमान बनने के अतिरिक्त और कोई चारा शेष नहीं रहता, फिर भी मूर्खता पूर्ण होने पर भी प्रचलित परम्परा को पत्थर की लकीर मानकर अपनाये रहते हैं और अपने लिए तथा देखा-देखी अनुकरण करने वालों के लिए भारी विपत्ति खड़ी करते हैं। जाति-पाँति के आधार पर चल रही ऊँच नीच की भावना भी ऐसी ही है जिसके कारण समाज के टुकड़े टुकड़े होते हैं और हर टुकड़ा हर बार घाटे में रहता है। भिक्षा व्यवसाय भी ऐसा है जिसमें तथाकथित दानी को मिथ्या अहंकार और ग्रहणकर्त्ता को आत्महीनता से लेकर प्रपंच रचने तक की विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

दृष्टि पसारकर जिधर भी देखा जाय लोग निजी स्वार्थ के लिए सामूहिक स्वार्थ का हनन करते पाये जाते हैं और उसकी प्रतिक्रिया से सभी का सब प्रकार अहित करते हैं। प्रदूषण उगलने वाले कारखानों, युद्ध का सरंजाम जुटाने वाली अव्यवस्था, अमीरी के लिए अन्यान्यों का शोषण, फैशन, ठाठ-बाठ जैसे अपव्ययों के लिए पैसे की होली जलाया जाना जैसे अनेक कृत्य ऐसे हैं जिन्हें समझदार कहलाने वालों की मूर्खता के अतिरिक्त और क्या कहा जाय? वन प्रदेशों को काटते जाने और उपजाऊ जमीन को बंजर बनाते जाने की आतुरता अपनाकर किस प्रकार अपनी और अगली पीढ़ी के लिए सर्वनाश के बीज बोये जा रहे हैं, इसे ब्यौरे बार बताने वाला समय दूर नहीं समझा जाना चाहिए।

मनुष्य कभी विचारशील, दूरदर्शी रहा है तब उसने सुख शाँति और प्रगति का सतयुगी वातावरण भी देखा है। अब जब कि हर क्षेत्र में अनीति अपनाकर सर्वनाश के बीज बो रहा है और अगणित समस्याओं विपत्तियों का न्योता बुला रहा है, इस ना समझी को किस प्रकार प्रगति का नाम दिया जाय? कैसे माना जाय कि पहले के अपने मनुष्य अधिक संपन्न, शिक्षित एवं विज्ञानी कलाकार आदि बनकर उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ते रहे हैं?

इन दिनों सबसे बड़ी सामयिक आवश्यकता एक ही है कि दिग्भ्रान्त चिंतन को उलट कर सीधा किया जाय। दिशाशूल को, दिशा भूल को ‘एक’ न नहीं अपने अपने ढंग से, अपने-अपने क्षेत्र में अधिकाँश ने अपनाया है। इसके लिए व्यापक विचार क्राँति की आवश्यकता है। हर हाथ में यह कसौटी देनी होगी कि औचित्य-अनौचित्य का निर्णय करे तो जो दूरदर्शिता की कसौटी पर खरा उतरे उसी को अपनाये। हर मनुष्य को ऐसी टार्च चाहिए ताकि इस घोर अंधकार के दिनों में जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझ पा रहा, सही वस्तु को सही रूप से देखा और अपनाया जा सके।

प्रस्तुत अगणित विपत्तियों, अवाँछनीयताओं के निराकरण का इन दिनों एक ही उपाय है अपने आपका विचार क्राँति में नियोजन। यदि इसे संपन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि युग परिवर्तन का सुनिश्चित आधार बना और उज्ज्वल भविष्य निकट आया।


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