एक कलाकार स्रष्टा है जिसने मनुष्य को सृजा। दूसरा कलाकार वह है जो मनुष्य को सभ्य और समर्थ बनाता है।
“मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मेरा नहीं है। शरीर के साथ जुड़ हुआ अहम्भाव मिथ्या है, शरीर और सम्पत्ति की दृष्टि से मेरापन निरर्थक है। यह जड़ पदार्थ मुझसे भिन्न है। मैं सत्-चित् आनन्द का अविनाशी अंश हूँ।” इस प्रकार चिंतन करते हुए जब भौतिक अहम् विलीन हो जाय, तो समझना चाहिए कि मैं और तू से ऊपर उठा हुआ जीव परम सत्य को पा गया।
प्राणी जगत और पदार्थ मात्र में एक ही चेतन तत्व भरा हुआ है। मन जब उस व्यापक चेतना के साथ गुंथ जाता है तो एकाग्रता सधते ही समस्त विश्व चेतन सत्ता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। मन स्वयँ विराट रूप बन जाता है और तद्रूप बन जाने पर परमात्मा की शक्तियों का क्रीड़ा स्थल भी। ऐसी स्थिति को ही भगवत्प्राप्ति, बंधनमुक्ति, स्वर्ग, समाधि आदि कहा जाता है। इस प्रकार उत्कर्ष को प्राप्त हुआ मन ही मोक्ष का, निर्वाण का कारण बनता है। ध्यान साधना की उक्त प्रक्रिया को अपने नियमित अभ्यास में सम्मिलित करके हर कोई उस स्थिति को प्राप्त कर सकता है।