उत्थान या पतन का स्वेच्छा-वरण

May 1981

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मनुष्य सृष्टा की सर्वोत्कृष्ट संरचना है। उसकी सत्ता यदि सही दिशा-धारा अपना सके, तो इतने भर से वह आत्म-कल्याण का स्वार्थ और लोक-कल्याण का परमार्थ इसी जन्म में पूरा कर सकती है। मनुष्य इतना समर्थ है और आत्म-निर्भर है कि अपनी क्षमताओं का उपयुक्त उपयोग करने के उपरान्त कहीं किसी के सामने हाथ न पसारे। पारस्परिक आदान-प्रदान और स्नेह-सहयोग दूसरी बात है, पर दरिद्रता और विपन्नता के गर्त में जा गिरने जैसी तो कोई बात हो ही नहीं सकती। पतन और पराभव विधाता ने उसके भाग्य में लिखा नहीं है। दुर्गति तो उसने अवांछनीयता अपनाकर स्वयं ही निमन्त्रित की है।

उत्थान का आधार है- सही दिशा निर्धारण और सज्जनता भरा आचरण। पतन का कारण है, अनुपयुक्त चिन्तन और उसके नशे में कुमार्ग का अनुसरण। उठने और  गिरने के दोनों मार्ग हर किसी के लिए खुले पड़े हैं। इनमें से कोई किसी का भी स्वेच्छापूर्वक वरण कर सकता है और मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस तथ्य की यथार्थता अपने उदाहरण से सर्वथा सत्य एवं सार्थक सिद्ध कर सकता है।

मानवी सत्ता का सृजन उत्कृष्टता की ओर अग्रसर हो सकने वाली सामर्थ्य के साथ हुआ है। यह उसका अपना चुनाव एवं रुझान है कि उत्थान के राजमार्ग को छोड़कर पतन की राह पर चले और दुर्भाग्य जैसी दुर्गति को भोगे।


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